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क्या जाति की जगह वर्ग की राजनीति ले रही है?

महिला आरक्षण कानून पर अन्य पिछड़ा वर्ग के रुख से सामाजिक न्याय के आंदोलन में उनकी प्राथमिकताओं में बदलाव का संकेत मिलता है। क्या अब जाति की जगह वर्ग की राजनीति शुरू हो गई है?

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आदिति फडणीस   
Last Updated- October 08, 2023 | 11:03 PM IST

मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) समुदाय में शामिल लोधी जाति से आती हैं। यह जाति उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में ओबीसी समुदाय के बीच भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का एक महत्त्वपूर्ण जनाधार रही है।

भारती ने हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर आग्रह किया था कि संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण में से 50 फीसदी सीटें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं ओबीसी समुदाय की महिलाओं के लिए अलग रखी जाएं।

लोकसभा में भाजपा के पास सबसे अधिक ओबीसी सांसद हैं। साथ ही ओबीसी समुदाय के बीच उसके मत प्रतिशत में भी उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई है। मगर भारती को छोड़कर किसी अन्य सांसद अथवा पार्टी के प्रतिनिधि ने यह मुद्दा नहीं उठाया है।

समाजवादी पार्टी (सपा), राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और जनता दल यूनाइटेड (जदयू) जैसे ‘कोटे के भीतर कोटा’ के पारंपरिक समर्थकों ने अपना रुख नरम करते हुए आखिरकार इस विधेयक के मौजूदा स्वरूप के पक्ष में ही मददान किया।

समाजवादी पार्टी की ओर से राज्यसभा में रामगोपाल यादव ने कहा, ‘हम कभी भी महिला आरक्षण के खिलाफ नहीं रहे। हमारी आपत्ति केवल इस विधेयक के मौजूदा स्वरूप को लेकर थी। शुरू से ही हमारा विचार रहा है कि ओबीसी महिलाओं के लिए उनकी जनसंख्या के अनुसार आरक्षण होना चाहिए। हमारी पार्टी इस विधेयक का समर्थन करेगी, लेकिन हम भविष्य में ओबीसी महिलाओं के लिए आरक्षण सुनश्चित करने का प्रयास जारी रखेंगे। मुझे विश्वास है कि एक दिन इस सदन में उन लोगों की संख्या बहुमत में होगी जो यह मानते हैं कि ओबीसी महिलाओं को आरक्षण मिलना चाहिए। हम इसे जरूर हासिल करेंगे।’

राजद सांसद मनोज झा ने महिला आरक्षण विधेयक को पारित करने के लिए बहस के दौरान ठाकुरों पर हमला करके ओबीसी आरक्षण के मुद्दे को मोड़ दिया (जिसका क्षत्रिय सांसदों ने कड़ा विरोध किया। कई लोगों का मानना है कि ऐसा ओबीसी महिलाओं के प्रति सहानुभूति के बजाय बिहार की राजनीति को ध्यान में रखकर किया गया था।)। अंततः राजद ने भी इस विधेयक का समर्थन किया।

राजद का यह रुख 1990 और उसके बाद के दशक के बिल्कुल विपरीत है।

13 जुलाई, 1998 को तत्कालीन कानून मंत्री मुनिसामी थंबीदुरई जब महिला आरक्षण विधेयक पेश करने के लिए उठे थे तो राजद सांसद सुरेंद्र प्रसाद यादव ने लोकसभा अध्यक्ष गंति मोहन चंद्र बालयोगी की मेज से दस्तावेज छीन लिया और उसे फाड़कर हवा में उड़ा दिया था। करीब एक दशक बाद केंद्रीय कानून मंत्री हंस राज भारद्वाज ने जब सदन में महिला आरक्षण विधेयक पेश किया तो रेणुका चौधरी और जयंती नटराजन सहित महिला सांसदों ने रक्षक बनकर उनकी मदद की।

2010 में विपक्ष इतना उग्र था कि राज्यसभा में 9 विपक्षी सांसदों ने सभापति मोहम्मद हामिद अंसारी पर हमला करने की भी कोशिश की क्योंकि वह विधेयक को पेश करने की अनुमति दे रहे थे। मगर इस बार ओबीसी समुदाय के सांसदों की हलकी प्रतिक्रिया से ये सवाल उठ खड़े हुए हैं कि आखिर क्या बदलाव आया है।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और भारत में ओबीसी एवं अनुसूचित जाति की राजनीति पर अपने काम के लिए चर्चित विशेषज्ञ सुरिंदर सिंह जोधका कहते हैं कि सब कुछ बदल गया है। उन्होंने कहा कि राजनीतिक दल और जातियां नेतृत्व में पीढ़ीगत बदलाव के बाद जातिगत राजनीति का नए सिरे से आकलन कर रही हैं।

जोधका ने कहा, ‘अब ओबीसी समुदाय के काफी कम बच्चे पढ़ाई छोड़ रहे हैं। खेतों का आकार छोटा हो रहा है और इसलिए खेतीबाड़ी का काम कम हो गया है। अधिकतर पिता के पास अपनी बेटियों पर गर्व करने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है क्योंकि वे अब कमाती हैं और परिवार की आय में योगदान करती हैं। परिणामस्वरूप, ग्रामीण भारत में पितृसत्ता की पारंपरिक धारणाएं बदल रही हैं।’

जोधका ने ओबीसी महिलाओं के बीच एक नई राजनीतिक मुखरता के बारे में बताते हुए कहा कि वे अब परिवार के अन्य सदस्यों से अलग मतदान करने में संकोच नहीं करती हैं। (सबूतों से पता चलता है कि 2019 में ओबीसी महिलाओं ने सपा और राजद जैसी सामाजिक न्याय वाली पारंपरिक पार्टियों से दूर होकर भाजपा के पक्ष में मतदान किया था।) इतना ही नहीं, शोध से पता चलता है कि ओबीसी समुदाय में किसी अन्य जाति समूह के मुकाबले कहीं अधिक पीढ़ीगत सुधार हुआ है।

जोधका ने जोर देकर कहा कि केवल पहचान की राजनीति का दायरा सीमित हो सकता है। उन्होंने कहा, ‘जातिगत राजनीति में वर्ग का पैदा होना एक महत्त्वपूर्ण कारक है जिस पर हमें विचार करना होगा।’

सपा नेता घनश्याम तिवारी सामाजिक न्याय के नारे के साथ बनी पार्टी में उच्च जाति के सदस्य हैं। उन्होंने स्पष्ट तौर पर स्वीकार किया है कि भाजपा ने देश को अचंभित कर दिया है जबकि उनकी पार्टी अभी भी ओबीसी महिलाओं के लिए आरक्षण की वकालत करने की अपनी योजनाओं पर काम कर रही है।

उन्होंने जोर देते हुए कहा कि सामाजिक न्याय के मुद्दों पर विपक्ष की सर्वसम्मति का सबसे दमदार प्रभाव यह है कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया है कि पुराने महिला आरक्षण विधेयक में ओबीसी आरक्षण को छोड़ना एक गलती थी। तिवारी ने बताया कि सपा ने इस मुद्दे पर संसद में हंगामा नहीं किया तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि उसने अपना रुख बदल दिया है।

तिवारी ने कहा, ‘सपा संसद में बातचीत की राजनीति में विश्वास करती है। तृणमूल कांग्रेस एवं अन्य दलों के विपरीत हमने सरकार के रुख से असहमत होने पर भी संसद को बाधित करने की कोशिश नहीं की है। हमने महिला आरक्षण के मामले में भी उसी सिद्धांत का पालन किया है।’ उन्होंने कहा कि सामाजिक न्याय सपा का मुख्य उद्देश्य बरकरार रहेगा।

मगर महिला आरक्षण के मुद्दे पर ओबीसी की प्रतिक्रिया से साफ तौर पर पता चलता है कि सामाजिक न्याय के आंदोलन के बीच अब प्राथमिकताएं बदलने लगी हैं। तो क्या अब जाति के बजाय वर्ग को प्राथमिकता मिल सकती है? तमाम विशेषज्ञ ऐसा दावा करने से झिझकते हैं।

जोधका ने कहा कि अवसरों की बहुलता का सामाजिक रुझान साफ दिखता है। जातियों की सीढ़ी में ज्यादा विशेषाधिकार प्राप्त उच्च वर्ग पहचान की राजनीति पर अपना नियंत्रण और कार्रवाई बनाए रखना चाहता है। मगर निचली जातियों के लोगों के अपने गांव और परिवार से बाहर निकलते (कामकाज के लिए पलायन आदि) ही उनकी पहचान और रिश्तों की अवधारणा कमजोर होने लगती है। भाजपा उन्हीं लागों को लक्ष्य करती दिख रही है।

महिला आरक्षण की राजनीति के भविष्य के बारे में फिलहाल कुछ भी कहना कठिन है। जोधका ने स्पष्ट तौर पर कहा, ‘जाति अथवा समुदाय की राजनीति का पुराना स्वरूप अब प्रभावी नहीं रह गया है।’

First Published : October 8, 2023 | 11:03 PM IST