शिमला समझौते के बाद पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो से हाथ मिलाती तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी
Pahalgam Terror Attack: बीते दिनों जम्मू कश्मीर के पहलगाम में पर्यटकों पर आतंकियों ने हमला किया, जिसमें 26 लोगों की मौत हो गई। इस घटना के बाद भारत सरकार ने पाकिस्तान के खिलाफ कई बड़े फैसले लिए, लेकिन इसमें सबसे बड़ा फैसला था, दोनों देशों के बीच 60 साल से भी पुराने सिंधु जल समझौते को रद्द करना। इसके जवाब में पाकिस्तान ने भारत के साथ साल 1972 में हुए शिमला समझौते को रद्द करने की धमकी दी है।
दरअसल हम सब जानते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध 1947 में बंटवारे के बाद से ही तनावपूर्ण और जटिल रहे हैं। दोनों देशों के बीच कई युद्ध, सीमा विवाद और राजनीतिक मतभेद देखने को मिले। फिर भी, समय-समय पर दोनों देशों ने शांति, सहयोग और तनाव कम करने के लिए कई महत्वपूर्ण समझौते किए। आज हम आजादी के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच हुए कुछ बड़े समझौतों की विस्तार से चर्चा करेंगे और जानने की कोशिश करेंगे कि इन समझौते का उद्देश्य, ऐतिहासिक संदर्भ और जरूरत क्या थी।
1947 में भारत और पाकिस्तान के बंटवारे के बाद दोनों देशों में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा हुई। लाखों लोग विस्थापित हुए, और भारत में मुसलमानों तथा पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों की सुरक्षा खतरे में पड़ गई। इस संकट को हल करने के लिए 8 अप्रैल, 1950 को भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने एक पैक्ट पर हस्ताक्षर किए, जिसे नेहरू-लियाकत पैक्ट कहा जाता है।
इस पैक्ट का मुख्य उद्देश्य दोनों देशों में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करना था। दोनों देशों ने सहमति जताई कि वे अपने-अपने देशों में अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव नहीं करेंगे और उनकी धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्वतंत्रता को सुनिश्चित करेंगे। शरणार्थियों को अपनी संपत्ति बेचने या मैनेज करने के लिए अपने देश लौटने की अनुमति दी गई। साथ ही, दोनों देशों ने हिंसा भड़काने वाली गतिविधियों को रोकने का वादा किया। समझौते के तहत दोनों देशों में अल्पसंख्यक आयोग स्थापित किए गए, जो शिकायतों का समाधान करते थे।
यह पैक्ट बंटवारे के बाद की अराजकता को कम करने और दोनों देशों के बीच विश्वास बहाली का पहला बड़ा प्रयास था। हालांकि, इस पैक्ट का पूरी तरह पालन नहीं हो सका, फिर भी इसने भविष्य के सहयोग की नींव रखी।
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सिंधु नदी और उसकी सहायक नदियां भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए कृषि और अर्थव्यवस्था का आधार हैं। बंटवारे के बाद जल बंटवारे को लेकर तनाव बढ़ गया था। इस विवाद को सुलझाने के लिए विश्व बैंक की मध्यस्थता में 19 सितंबर, 1960 को कराची में सिंधु जल समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। इस समझौते पर भारत की ओर से जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान की ओर से तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने हस्ताक्षर किए।
इस समझौते के तहत सिंधु नदी बेस की छह नदियों को दो हिस्सों में बांटा गया। पूर्वी नदियां (रावी, ब्यास और सतलज) भारत को दी गईं, जबकि पश्चिमी नदियां (सिंधु, झेलम और चिनाब) पाकिस्तान को आवंटित की गईं। इन पश्चिमी नदियों का पानी पाकिस्तान को मिलता है, जो इसके कुल जल का लगभग 80% है। साथ ही इसके तहत भारत पश्चिमी नदियों के पानी का सीमित उपयोग, जैसे कि बिजली उत्पादन और सिंचाई के लिए, कर सकता है, लेकिन वह इनका प्रवाह रोक या मोड़ नहीं सकता। समझौते में एक स्थायी सिंधु आयोग की स्थापना की गई, जो इससे जुड़े संबंधित मुद्दों को सुलझाने और बाकी चीजों का ध्यान रखने के लिए था।
सिंधु जल समझौता दोनों देशों के बीच सबसे टिकाऊ समझौतों में से एक रहा है। यह कई युद्धों और तनावों के बावजूद 60 साल से अधिक समय तक कायम रहा, लेकिन बीतों दिनों प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता वाली कमेटी से इसे रद्द करने का फैसला लिया।
1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद, जिसमें भारत की जीत हुई और बांग्लादेश एक स्वतंत्र देश बना, दोनों देशों ने शांति स्थापित करने की कोशिश की। 2 जुलाई, 1972 को शिमला में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने शिमला समझौते पर हस्ताक्षर किए।
इस समझौते का उद्देश्य युद्ध के बाद दोनों देशों के बीच संबंधों को सामान्य करना और स्थायी शांति की नींव रखना था। इसके प्रमुख प्रावधानों में शामिल था कि दोनों देश सभी विवाद, द्विपक्षीय बातचीत के जरिए सुलझाएंगे और किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता नहीं लेंगे। युद्धविराम रेखा को नियंत्रण रेखा (LoC) के रूप में औपचारिक रूप दिया गया, जिसे दोनों देशों ने सम्मान करने का वादा किया।
भारत ने युद्ध के दौरान कब्जाई गई 15,000 वर्ग किलोमीटर पाकिस्तानी जमीन और 90,000 युद्धबंदियों को वापस करने का फैसला किया। समझौते में दोनों देशों ने बल प्रयोग से बचने और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को बढ़ावा देने की प्रतिबद्धता जताई।
शिमला समझौता दोनों देशों के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था। हालांकि, कश्मीर विवाद और नियंत्रण रेखा पर तनाव के कारण इसका पूरा प्रभाव सीमित रहा। सिंधु जल समझौते को रद्द करने के भारत सरकार के फैसले के बाद पाकिस्तान ने इसे भी रद्द करने की धमकी दी है।
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1988 में भारत और पाकिस्तान ने परमाणु हथियारों से संबंधित जोखिमों को कम करने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते पर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने हस्ताक्षर किए। इसका उद्देश्य परमाणु युद्ध की आशंका को कम करना और दोनों देशों के बीच गलतफहमी से बचना था।
इस समझौते के तहत दोनों देशों ने सहमति जताई कि वे एक-दूसरे के परमाणु प्रतिष्ठानों पर हमला नहीं करेंगे। इसके लिए दोनों देश हर साल 1 जनवरी को अपने परमाणु प्रतिष्ठानों की लिस्ट एक-दूसरे के साथ शेयर करते हैं। यह प्रक्रिया 1992 से नियमित रूप से जारी है। समझौते में यह भी कहा गया कि दोनों देश परमाणु हथियारों के उपयोग से बचने के लिए आपसी संवाद को बढ़ाएंगे।
यह समझौता दोनों परमाणु-सशस्त्र देशों के बीच विश्वास बहाली और युद्ध के जोखिम को कम करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। यह आज भी प्रभावी है और दोनों देश नियमित रूप से सूचनाएं एक दूसरे को भेजते हैं।
1998 में दोनों देशों द्वारा परमाणु परीक्षणों के बाद दक्षिण एशिया में तनाव बढ़ गया था। इस तनाव को कम करने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने फरवरी 1999 में ऐतिहासिक बस यात्रा के जरिए लाहौर का दौरा किया। वहां उन्होंने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ 21 फरवरी, 1999 को लाहौर एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किए।
इस एग्रीमेंट का उद्देश्य दोनों देशों के बीच शांति और स्थिरता को बढ़ावा देना था। दोनों नेताओं ने परमाणु हथियारों के इस्तेमाल को रोकने, आतंकवाद के खिलाफ सहयोग करने और कश्मीर सहित सभी मुद्दों को द्विपक्षीय बातचीत से सुलझाने का वादा किया। इसके अलावा, दोनों देशों ने व्यापार, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और लोगों के बीच संपर्क को बढ़ाने पर जोर दिया। समझौते में परमाणु हथियारों से संबंधित जोखिमों को कम करने के लिए सूचनाओं के आदान-प्रदान की बात भी की गई।
लाहौर एग्रीमेंट ने दोनों देशों के बीच विश्वास बहाली की उम्मीद जगाई थी। लेकिन कुछ ही महीनों बाद मई 1999 में कारगिल युद्ध शुरू हो गया, जिसमें पाकिस्तानी सेना और आतंकवादियों ने भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ की। इस युद्द में भी पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी। इसने इस समझौते को पूरी तरह कमजोर कर दिया।
भारत और पाकिस्तान के बीच जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा (LoC) पर अक्सर गोलीबारी और तनाव की स्थिति रहती थी। इस तनाव को कम करने के लिए 26 नवंबर, 2003 को दोनों देशों ने युद्धविराम समझौते पर सहमति जताई। यह समझौता तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के नेतृत्व में हुआ।
इस समझौते के तहत दोनों देशों ने नियंत्रण रेखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा पर गोलीबारी और सैन्य गतिविधियों को रोकने का वादा किया। इसका उद्देश्य सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करना और दोनों देशों के बीच तनाव को कम करना था। समझौते के बाद कुछ समय के लिए सीमा पर शांति रही, और दोनों देशों के बीच व्यापार और लोगों की आवाजाही बढ़ी।
हालांकि, यह युद्धविराम लंबे समय तक प्रभावी नहीं रहा। 2008 के मुंबई हमलों और अन्य आतंकी घटनाओं के बाद नियंत्रण रेखा पर तनाव फिर से बढ़ गया। फिर भी, 2021 में दोनों देशों ने इस युद्धविराम को फिर से लागू करने की प्रतिबद्धता जताई।
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पाकिस्तान में पल रहा आतंकवाद भारत के लिए हमेशा से एक बड़ा मुद्दा रहा है। इससे लड़ने के लिए 2006 में भारत और पाकिस्तान ने एक संयुक्त आतंकवाद विरोधी तंत्र (Joint Anti-Terrorism Mechanism) स्थापित करने पर सहमति जताई। यह फैसला तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के बीच हवाना, क्यूबा में हुए एक शिखर सम्मेलन के दौरान लिया गया।
इस तंत्र का उद्देश्य दोनों देशों के बीच आतंकवाद से संबंधित सूचनाएं देना और आतंकी गतिविधियों को रोकने के लिए सहयोग करना था। दोनों देशों ने आतंकवाद के खिलाफ संयुक्त कार्रवाई करने और एक-दूसरे को आतंकी घटनाओं की जांच में सहयोग देने का वादा किया।
हालांकि, यह तंत्र ज्यादा प्रभावी नहीं रहा। 2008 के मुंबई हमलों के बाद भारत ने इस तंत्र को अप्रभावी करार दिया, क्योंकि उसे लगा कि पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ गंभीर कार्रवाई नहीं कर रहा। फिर भी, यह समझौता दोनों देशों के बीच आतंकवाद के मुद्दे पर संवाद की एक कोशिश थी।
भारत और पाकिस्तान ने लोगों के बीच संपर्क को बढ़ाने के लिए 8 सितंबर, 2012 को एक वीजा समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते पर तत्कालीन विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा और पाकिस्तान की तत्कालीन विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार ने हस्ताक्षर किए। इसका उद्देश्य व्यापार, पर्यटन और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को आसान बनाना था।
इस समझौते ने वीजा नियमों को सरल किया। व्यापारियों, बुजुर्गों (65 वर्ष से अधिक) और 12 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए वीजा प्रक्रिया को आसान बनाया गया। समूह पर्यटन को प्रोत्साहित करने और एकल-प्रवेश वीजा की अवधि को बढ़ाने जैसे कदम उठाए गए। दोनों देशों ने वीजा आवेदन प्रक्रिया को तेज करने और अधिक शहरों में वीजा-ऑन-अराइवल की सुविधा देने पर सहमति जताई। समझौते में यह भी प्रावधान था कि दोनों देश एक-दूसरे को यात्रा से पहले सूचित करेंगे।
यह समझौता दोनों देशों के बीच विश्वास बहाली और लोगों के बीच संपर्क बढ़ाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। हालांकि, आतंकवादी घटनाओं और राजनीतिक तनाव के कारण इस समझौते का पूरा लाभ नहीं उठाया जा सका।
सिख समुदाय की लंबे समय से चली आ रही मांग को पूरा करने के लिए भारत और पाकिस्तान ने 24 अक्टूबर, 2019 को करतारपुर कॉरिडोर समझौते पर हस्ताक्षर किए। यह समझौता भारतीय सिख तीर्थयात्रियों को पाकिस्तान में स्थित गुरुद्वारा दरबार साहिब करतारपुर, जहां गुरु नानक देव ने अपने जीवन के अंतिम साल बिताए थे, की वीजा-फ्री यात्रा के लिए अनुमति देता है।
इस समझौते के तहत 4.5 किलोमीटर लंबा कॉरिडोर बनाया गया, जो भारत के डेरा बाबा नानक को करतारपुर से जोड़ता है। तीर्थयात्री वैध पासपोर्ट या भारतीय प्रवासी नागरिकता (OCI) कार्ड के साथ इस कॉरिडोर का उपयोग कर सकते हैं और उन्हें उसी दिन भारत लौटना होता है। प्रति दिन 5,000 तीर्थयात्रियों की सीमा तय की गई, जिसे कुछ अवसरों पर बढ़ाया जा सकता है। कॉरिडोर साल भर (सार्वजनिक अवकाश और आपातकाल को छोड़कर) सुबह से शाम तक खुला रहता है। 2024 में इस समझौते को अगले पांच साल के लिए बढ़ाया गया था।