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दिल्ली-मेरठ RRTS: छोटे शहरों में धीरे-धीरे रफ्तार भर रही रैपिड रेल, क्या यह परिवहन का नया भविष्य बन सकता है?

दो शहरों के बीच यात्रा को सुगम बनाने वाली देश की पहली आरआरटीएस ट्रेन दिल्ली और मेरठ साउथ के बीच इस साल जनवरी में शुरू हुई।

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शुभमय भट्टाचार्जी   
Last Updated- April 18, 2025 | 10:31 PM IST

हर सप्ताह अंजलि सिंह दक्षिणी दिल्ली के लाजपत नगर में स्थित दुकान से मेरठ साउथ अपने घर जाने के लिए रात 9 बजे वाली मेट्रो पकड़ती हैं। वह इसके बाद वाली मेट्रो भी ले सकती हैं, लेकिन बस में यात्रा करते समय सुरक्षा के लिहाज से जल्दी जाने की उनकी आदत बदली नहीं है। वह मेट्रो के लिए भी कुछ समय पहले ही निकलती हैं। भले दिल्ली के न्यू अशोक नगर से लेकर मेरठ के अंदरूनी इलाकों तक जाने वाले रैपिड रेल ट्रांजिट सिस्टम (आरआरटीएस) का सफर बेहद सुरक्षित है, लेकिन वह अपनी आदत से मजबूर हैं।

जिस तरह तमाम एयरपोर्ट उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे घनी आबादी वाले राज्यों के लिए बेहतर हवाई संपर्क उपलब्ध कराते हैं, उसी तरह आरआरटीएस भी रोजाना राजधानी से मेरठ के बीच का सफर आसान बना रही है। भले ही यह सुविधा अभी छोटे स्तर पर शुरू हुई है। यात्री दिल्ली-मेरठ के बीच चलने वाली आरआरटीएस को भी मेट्रो ही कहते हैं। ऐसा हो भी क्यों नहीं, एक जैसे टर्नस्टाइल गेट, ऑनलाइन टिकट व्यवस्था, साफ-सुथरे प्लेटफॉर्म और एसी कोच के कारण यात्रियों को दिल्ली मेट्रो और आरआरटीएस के बीच ज्यादा फर्क ही नहीं लगता।

बहुत तेज शुरुआत

दो शहरों के बीच यात्रा को सुगम बनाने वाली देश की पहली आरआरटीएस ट्रेन दिल्ली और मेरठ साउथ के बीच इस साल जनवरी में शुरू हुई। बहु कम समय में ही इसने 70 लाख लोगों को यात्रा कराने का रिकॉर्ड बनाया है। इसी साल फरवरी में इसमें रोजाना 35,784 यात्रियों ने सफर किया। अभी आरआरटीएस पूरी तरह चालू नहीं हुई है। केवल 11 स्टेशन ही चालू हैं। दिल्ली में सराय कालेखां से मेरठ में मोदीपुरम तक पूरे 82.15 किलोमीटर ट्रैक का काम पूरा हो जाने पर इन स्टेशनों की संख्या बढ़कर 18 हो जाएगी। मेरठ के अलावा दिल्ली-गुरुग्राम-अलवर और दिल्ली-पानीपत-करनाल तक भी आरआरटीएस लाइनों को नीति आयोग की टास्क फोर्स ने मंजूरी दे दी है।

पूर्व आईएएस अधिकारी ट्रांसपोर्ट इकॉनमिस्ट और राष्ट्रीय शहरी ट्रांसपोर्ट नीति के प्रमुख लेखक ओपी अग्रवाल कहते हैं, ‘शहरों में एक स्तर तक ही बसों के मार्ग निश्चित किए जा सकते हैं। उसके बाद सड़क परिवहन सेवाएं देना लगभग असंभव हो जाता है।’ उनकी इसी नीति ने 2006 से शहरी परिवहन योजनाओं को और उनमें निवेश को अलग दिशा दी है। दिल्ली और मेरठ दो पड़ोसी राज्यों में फैले हैं, लेकिन इतने करीब हैं कि दस लाख से ज्यादा लोग रोजाना इनमें आवाजाही करते हैं।

तत्कालीन योजना आयोग (अब नीति आयोग) की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि दिल्ली, गाजियाबाद और मेरठ में सफर करने वालों को 2035 तक लगभग 3,180 करोड़ रुपये की संभावित बचत होगी।

शहरी मामलों का मंत्रालय अन्य शहरों के बीच कुछ और आरआरटीएस चलाने की योजना बना रहा है। अग्रवाल का कहना है कि लखनऊ और कानपुर या कोलकाता और आसनसोल जैसे करीबी शहरों के बीच इसी तरह यात्रा विकल्पों को तलाशा रहा है। 

कोच्चि स्थित पब्लिक पॉलिसी थिंक-टैंक, सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी रिसर्च के संस्थापक व चेयरमैन डी. धनराज कहते हैं, ‘मैं नहीं मानता कि अभी आरआरटीएस क्षेत्रीय परिवहन अथवा आम जनता की जरूरतों को पूरा करता है।’ ये बड़े बजट की परियोजनाएं हैं। वर्तमान की जरूरतों के हिसाब से ऐसे यात्रा विकल्प तैयार करने की आवश्यकता है, जो भविष्य में भी उतने ही काम आएं। 

लखनऊ-कानपुर नमो भारत परियोजना 2016 से कागज पर ही है। अलग कॉरिडोर तैयार नहीं होने के कारण रेलवे ने दोनों शहरों के बीच वंदे भारत जैसी हाई-स्पीड ट्रेनें चलाने के लिए मौजूदा रेल लाइनों का ही उपयोग करने की योजना बनाई है। लेकिन ट्रेनों की व्यस्त समय-सारणी के कारण हाई-स्पीड ट्रेनों के लिए बहुत कम जगह बचती है। धनराज कहते हैं, ‘बड़े बजट की परियोजनाओं पर पैसा खर्च करने से इंटर-सिटी परिवहन की जरूरतें पूरी नहीं की जा सकती हैं।’

वित्तीय समस्याएं

अग्रवाल और धनराज दोनों इस बात से सहमत दिखते हैं कि बड़ी परियोजनाओं की लागत केवल व्यवहार्य पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल से निकाली जा सकती है। पश्चिम बंगाल में अंडाल जैसे छोटे एयरपोर्ट को भी सज्जन जिंदल ग्रुप जैसे निवेशक मिल गए हैं, लोकिन आरआरटीएस परियोजनाओं में निवेशकों की ऐसी दिलचस्पी की उम्मीद बहुत कम है। 

दिल्ली-मेरठ आरआरटीएस प्रोजेक्ट की लागत लगभग 30,274 करोड़ रुपये थी। दिल्ली में सराय कालेखां और हरियाणा में करनाल के बीच लगभग 136.30 किलोमीटर की दूरी के लिए दिल्ली-पानीपत-करनाल नमो भारत प्रोजेक्ट की लागत भी इतनी ही आंकी जा रही है। अग्रवाल आरआरटीएस लाइनों को बहुत कारगर नहीं मानते। वह कहते हैं, ‘जिस तरह मुंबई लोकल ट्रेनों में सुबह और शाम तो बहुत ज्यादा भीड़ होती है, लेकिन बाकी समय स्थिति इसके उलट रहती है। यही हाल इन ट्रेनों का रहने की संभावना है।’ ऐसे में नैशनल कैपिटल रीजन ट्रांसपोर्ट कॉर्पोरेशन (एनसीआरटीसी) जैसी कंपनियां कम व्यस्त समय में इन ट्रेनों को यात्रियों के साथ माल ढुलाई के लिए इस्तेमाल कर सकती हैं।

कार्यान्वयन की अड़चनें

धनराज कहते हैं कि भूमि अधिग्रहण की चुनौतियां इन परियोजनाओं की गति को  धीमा कर देंगी। विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे क्षेत्रों में जहां आर्थिक विकास में बड़ी हिस्सेदारी रखने वाली अलग-अलग एजेंसियों के बीच तालमेल की कमी है, यह काम बहुत चुनौतीपूर्ण हो सकता है। केंद्र ने नेटवर्क प्लानिंग ग्रुप जैसे प्रशासनिक उपायों के जरिये इनसे निपटने के प्रयास शुरू कर दिए हैं। आमतौर पर यह डिपार्टमेंट फॉर प्रमोशन ऑफ इंडस्ट्री ऐंड इंटरनल ट्रेड या डीपीआईआईटी के अंतर्गत काम करता है। इसे मेट्रो, आरआरटीएस, सड़क और एयरपोर्ट सेक्टर में बुनियादी परियोजनाओं का मूल्यांकन करने का काम सौंपा गया है। इसकी बैठकों में पीएम गतिशक्ति नैशनल मास्टर प्लान के साथ तालमेल रखते हुए मल्टीमॉडल कनेक्टिविटी और माल ढुलाई की क्षमता बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।

इस विषय पर बहुत कम अनुसंधान हुए हैं। इंटरनैशनल जर्नल ऑफ फाइनैंशियल मैनेजमेंट ऐंड इकॉनॉमिक्स में प्रकाशित रिपोर्ट में लंदन के आरआरटीएस की तुलना दिल्ली मॉडल से करते हुए बताया गया है कि व्यापक तौर पर आपस में जुड़ा परिहवन नेटवर्क और आधुनिक टिकट प्रणाली ऐसी परियोजनाओं को वित्तीय रूप से आत्मनिर्भरता बना सकती है। इनमें इनोवेटिव रेवेन्यू-जेनरेशन मॉडल भी खासी मदद करते हैं, लेकिन सरकारी मदद जारी रखनी होगी। लेकिन सरकारें आरआरटीएस को यात्रा समय कम करने एवं सुगम यातायात उपलब्ध कराकर महानगरों के करीबी शहरों में रहन-सहन को बेहतर बनाने के अवसर के तौर पर देखती हैं।

First Published : April 18, 2025 | 10:29 PM IST