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साहित्य से आजीविका: लेखक-कवि सुन रहे ‘मंच’ की गुहार

हिंदी साहित्य की दुनिया में लंबे समय तक मंच को बहुत अच्छी दृष्टि से नहीं देखा गया। वहां धन तो था लेकिन उसे गंभीर लेखन के लिए अच्छा नहीं माना गया। परंतु अब हालात बदल रहे हैं।

Last Updated- September 15, 2024 | 9:02 PM IST
Livelihood through literature: Writers and poets are listening to the plea of ​​'stage' साहित्य से आजीविका: लेखक-कवि सुन रहे ‘मंच’ की गुहार

हिंदी साहित्य की दुनिया से बतौर लेखक या पाठक जुड़े लोग इस बात पर एकमत हैं कि हिंदी में केवल ‘लेखन’ के बल पर आजीविका चला पाना मुश्किल काम है। प्रकाशन संस्थानों द्वारा लेखकों को दी जाने वाली ‘नाममात्र की रॉयल्टी’ भी गाहेबगाहे चर्चा का विषय बनती रही है।

ऐसे में लेखन का काम पेशा नहीं जुनून माना जाता रहा है और अभी हाल तक शायद ही ऐसा कोई लेखक मिलता, जो पूरी तरह लेखन के ही पेशे में हो। अगर ऐसा लेखक नजर भी आता तो घर चलाने के लिए वह अनुवाद के काम में लगा होता या प्रकाशन संस्थानों के साथ किसी न किसी रूप में जुड़ा होता।

परंतु अब वक्त बदल रहा है और युवा पीढ़ी साहित्य के जरिये न केवल नाम कमा रही है बल्कि कविताओं और कहानियों को मंच पर प्रस्तुत कर पैसे भी कमा रही है। कई तो ऐसे हैं जो नौकरियां छोड़कर इस पेशे में आ रहे हैं। इन युवा लेखकों ने पुस्तकों से अपनी पहचान कायम की है और मंच इन्हें पैसा तथा ख्याति प्रदान कर रहे हैं।

अब युवा पीढ़ी पारंपरिक नौकरियां छोड़कर साहित्य में आ रही है और उसे अपनी आमदनी का जरिया बना रही है। लोग अपनी जमी-जमाई नौकरियों को भी कहानी, कविताएं और मंचों के लिए छोड़ दे रहे हैं। आज कोई भी साहित्यकार, कहानीकार अथवा कवि सिर्फ किताबों और सम्मेलनों तक सिमटकर नहीं रह गया बल्कि लोग उसे देखने और सुनने के लिए टिकट तक खरीद रहे हैं। आज लेखकों को किताबों से पहचान मिल रही है और मंचों से ख्याति।

ऐसे लेखकों में दिव्य प्रकाश दुबे का नाम काफी आगे है। एक दशक से अधिक समय तक कॉर्पोरेट क्षेत्र में सहायक महाप्रबंधक का पद संभालने वाले दुबे ने लेखन के प्रति अपने जुनून के कारण जमी जमाई नौकरी छोड़ दी और लेखन में जुट गए। ‘मुसाफिर कैफे’, ‘अक्टूबर जंक्शन’, ‘यार पापा’, ‘टर्म्स ऐंड कंडीशंस अप्लाई’ समेत कई चर्चित किताबें लिख चुके दुबे अब ‘स्टोरी टेलिंग’ यानी किस्सागोई की दुनिया में कदम रख चुके हैं।

दुबे कहते हैं, ‘लोगों को कहानियां पढ़ने के साथ-साथ अब कहानियां सुनना भी पसंद आ रहा है और वे उसके लिए पैसे खर्च करने को भी तैयार हैं। कहानियों को पढ़कर जहां महसूस किया जा सकता है वहीं कहानियों को सुनते हुए आप उन्हें जी सकते हैं। स्टोरी टेलिंग शो के दौरान अक्सर श्रोताओं को रोते हुए देखा जा सकता है। यानी लोग उनसे जुड़ाव महसूस करते हैं। यही वजह है कि वे टिकट खरीदकर कहानियां सुनने आते हैं।’

दुबे कहते हैं कि स्टोरी टेलिंग में जहां श्रोताओं से सीधे संवाद और उनकी प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया जानने का मौका मिलता है वहीं इसकी एक खूबी यह भी है कि श्रोताओं को कहानी का कोई हिस्सा पसंद नहीं आने पर आप उसे बदल भी सकते हैं। किताब छप जाने के बाद अगला संस्करण आने तक उसमें कोई बदलाव मुमकिन नहीं होता।

इंदौर के पुनीत शर्मा बॉलीवुड में सफल गीतकार के रूप में पहचान बना चुके हैं। ‘औरंगजेब’, ‘रिवॉल्वर रानी’ और ‘संजू’ समेत कई फिल्मों में गीत लिख चुके शर्मा भी लगातार मंच पर जाते रहते हैं। वह कहते हैं, ‘बदलते वक्त के साथ स्टेज भी बदलता है। कभी छोटे शहरों में होने वाले कवि सम्मेलन आज बड़े और मझोले शहरों में होने वाले स्टेज परफॉर्मेंस में तब्दील हो गए हैं। लोग अपने कई सवालों के जवाब कविता-कहानियों में ढूंढ़ते हैं। मुंबई, दिल्ली जैसे महानगरों में रहने वाले तो इसके लिए बड़ा खर्च कर सकते हैं। मझोले शहरों में रहने वाले भी इसे पसंद करते हैं, लेकिन खर्च कम करना चाहते हैं।’

शर्मा के मुताबिक स्टोरी टेलिंग और स्टेज परफॉर्मेंस का चलन बढ़ा है और यह इस लिहाज से बेहतर है कि किसी गायक या नर्तक/नर्तकी के शो की तरह इसमें ध्वनि और प्रकाश संयोजन के लिए बड़ी टीम की आवश्यकता नहीं होती है। ऐसे में शो की लागत कम होती है।

‘शोरूम में जननायक’, ‘अस मानुष की जात’ और ‘नया राजा, नये किस्से’ जैसे चर्चित व्यंग्य संग्रह लिख चुके लेखक अनूपमणि त्रिपाठी कहते हैं, ‘यह अभी शुरुआत है। सोशल मीडिया के जमाने में हिंदी में किस्सागोई अभी शुरुआती दौर में हैं मगर इसका बाजार जल्द ही बड़ा हो जाएगा।’

स्वयं मंच पर व्यंग्य पढ़ने वाले त्रिपाठी कहते हैं कि गंभीर कहानी-कविता पाठ को स्टैंडअप कॉमेडी में फंसने से बचाना बड़ी चुनौती है क्योंकि इंटरनेट के बेरोकटोक दौर में स्टैंडअप कॉमेडी शालीनता की सीमा लांघ गई है और ऐसे कंटेंट को सामान्य बना रही है, जो वास्तव में काफी असामान्य कहलाना चाहिए।

तंबुस्तान के बैनर तले मशहूर पृथ्वी थियेटर में पीयूष मिश्रा और राजशेखर के साथ कविताओं का शो कर चुके पुनीत बताते हैं कि ऑडिटोरियम में होने वाले स्वतंत्र शो पूरी तरह फुल टिकट होते हैं यानी इनका पूरा खर्च और प्रदर्शन करने वालों की फीस बिके टिकटों की कीमत से ही निकलती है। मगर लिटरेचर फेस्टिवल या अन्य स्थानों पर ऐसे आयोजन प्रायोजित होते हैं।

लेकिन क्या आईटी, बैंकिंग जैसी अच्छे वेतन और भविष्य वाली नौकरियां छोड़कर जीवन यापन के लिए किस्सागोई जैसी विधाओं पर निर्भर हुआ जा सकता है? दुबे कहते हैं कि यह अभी थोड़ा मुश्किल है लेकिन पूरी ईमानदारी और लगन के साथ काम करने पर इसमें कामयाबी मिलनी तय है। पुनीत इसी प्रश्न के उत्तर में कुमार विश्वास जैसे कवियों का उदाहरण देकर कहते हैं कि योग्यता होने पर सफलता मिलना तय है।

First Published - September 14, 2024 | 7:44 AM IST

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