गहराता जा रहा है नाउम्मीदी का काला साया

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 07, 2022 | 11:45 PM IST

किसी भी पैमाने पर परख लें, मौजूदा वित्तीय संकट 1929 से 1937 तक छाई भयानक मंदी के बाद आया सबसे खराब झंझावात है।


इसमें कोई शक नहीं कि यह मंदी दुनिया भर में कारोबार के तौर तरीकों को पूरी तरह बदल रही है और वित्तीय उद्योग भी इसके बाद नई शक्ल ले लेगा। इस बात की पूरी संभावना है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था ठहराव के भंवर में फंस जाएगी या उसमें मंदी भी आ सकती है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने अपने ताजा बयान में यह बात कह ही दी है।

दूसरे विशेषज्ञों ने भी वित्तीय अनुमानों में खासा फेरबदल किया है और पिछली तीन तिमाहियों में उन्होंने अर्थव्यवस्था को खस्ताहाल होते ही बताया है। यह बात अब तय मानी जा रही है कि जुलाई-सितंबर तिमाही के आंकड़े जैसे ही सामने आएंगे, वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के बारे में अनुमान पहले से निचले स्तर पर पहुंच जाएंगे।

इससे भी बुरी बात यह है कि नकदी का बहुत बड़ा संकट पैदा हो गया है। अमेरिकी सरकार और विकसित देशों समेत सबसे अंतिम पंक्ति के खरीदार और ऋणदाता, जिनके पास नकदी की कमी नहीं मानी जाती है, भी इस मामले में अब कंगाल होते जा रहे हैं।

अजीब बात है कि अमेरिकी कर्ज में इतनी विदेशी मुद्रा की बलि चढ़ गई कि उसके दाम में एकाएक उछाल आ गया। लेकिन जब यह चाल पलटेगी, तो जो कुछ सामने आएगा, वित्तीय जगत के लिए वह और भी परेशानी भरा होगा।

मौजूदा वित्तीय संकट दरअसल पुरानी नीतियों का ही नतीजा है। फेडरल रिजर्व के पूर्व चेयरमैन एलन ग्रीनस्पैन की नीतियां कभी खासी कारगर रही थीं और उन्हीं की वजह से एशियाई फ्लू और रूसी संकट को नाकाम करने में कामयाबी मिली थी। इतना ही नहीं उसके बाद कई सालों तक वैश्विक स्तर पर जबरदस्त विकास भी उन्हीं की वजह से हुआ था।

लेकिन वही विकास इतिहास का सबसे बड़ा बुलबुला बन गया। बुलबुले आखिर में फूट ही जाते हैं और बुलबुला जितना ज्यादा बड़ा होता है, उसके फूटने पर तकलीफ भी उतनी ही ज्यादा होती है। इस समय कंपनियों के लिए बहीखातों को मजबूत रखना ज्यादा जरूरी है, मुनाफा कमाना नहीं।

हरेक कंपनी जो तेज रफ्तार से आगे बढ़ी है, लेकिन नकदी के मामले में पीछे है, दिक्कत में पड़ जाएगी। इस बवंडर से वे कंपनियां ही सही सलामत बच पाएंगी, जिनके ऊपर कम से कम कर्ज है और ज्यादा से ज्यादा नकदी का भंडार है।

संकट के माहौल में भी ऐसी कंपनियां तो सस्ती संपत्तियों को खरीदकर नए-नए कारोबार भी शुरू कर सकती हैं। मिसाल के तौर पर भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) उद्योग को ही लीजिए, तो उसके पास ऐसा करने का पूरा मौका है या बेहतर शब्दों में कहा जाए, तो उसे ऐसा करना ही होगा।

तेज रफ्तार के साथ आगे बढ़ रहे उद्योगों जेसे दूरसंचार में तो विलय और अधिग्रहण की ज्यादा से ज्यादा घटनाएं देखने को मिलेंगी क्योंकि उन्हें बाहरी पूंजी की अच्छी खासी जरूरत होती है। दूरसंचार उद्योग में अगले तीन वर्ष में बहुत ज्यादा निवेश की जरूरत है, जिससे उसे ज्यादा से ज्यादा नेटवर्क बिछाने और नई प्रौद्योगिकियों का समावेश करने में मदद मिलेगी।

भारतीय दूरसंचार कारोबार के विकास और मुनाफे के रिकॉर्ड अब तक बहुत अच्छे रहे हैं। इसलिए ऐसी कंपनियां, जिनका प्रबंधन ज्यादा कारगर तरीके से किया जा रहा है, निवेश हासिल करने में कामयाब रहेंगी, चाहे वित्तीय परिस्थितियां कैसी भी रहें।

फिलहाल तो वित्तीय संकट अंधेरी सुरंग की तरह है, जिसमें काफी देर तक सफर करना पड़ेगा। इसमें मूल्य की पूरी शृंखला पर असर पड़ेगा। कार, रिटेल, कंज्यूमर डयूरेबल्स और घरों के लिए मांग नजर नहीं आ रही है। इसकी वजह से कमोडिटी की मांग में भी कमी आई है।

इस संकट से उबरने का मौका तभी मिलेगा, जब कमोडिटी की कीमतें बेहद कम आ जाएंगी, लागत में कटौती भी पूरी तरह कर ली जाएगी और उपभोक्ता एक बार फिर बाजार में खरीदारी शुरू कर देंगे।
ऐसे हालात में मूल्यांकन का आधार विकास की संभावना नहीं बल्कि कंपनी का टिकाऊपन होना चाहिए।

कम पीई अनुपात और ज्यादा लाभांश देने वाली कंपनियां निवेशकों के लिए फायदेमंद होंगी। बाजार में टिकने की काबिलियत का तीसरा पैमाना कम बाजार पूंजी यानी कम प्राइस बुक वैल्यू होता है। दुर्भाग्य से भारत उभरता हुआ बाजार है और ऐसे बाजारों में आम तौर पर कम प्राइस बुक वैल्यू देखने को नहीं मिलता।

तीनों मानकों को ध्यान में रखते हुए हम जानते हैं कि मंदी और खस्ताहाल बाजारों में भारतीय बाजार सबसे नीचे आते हैं, जिनमें निफ्टी प्राइस बुक वैल्यू महज 2.5 है, पीई 10-11 है और लाभांश प्राप्ति भी 2 फीसद के आसपास ही है।

उपलब्ध इन मानकों के मुताबिक बाजार सेहत वाले क्षेत्र के करीब है, लेकिन अभी सेहतमंद हुआ नहीं है। प्राइस बुक वैल्यू 2.9 है, पीई अनुपात 15 से कुछ ही ऊपर है और लाभांश रिटर्न 1.6 फीसद के करीब-करीब है। मौजूदा अनुमानों के मुताबिक पीई 11 के करीब होगा। लेकिन दूसरी तिमाही के नतीजे आने पर मुनाफे की संभावनाएं और कम हो सकती हैं।

यदि ऐसा नहीं होता है, तब भी निवेशकों के लिए अच्छी खबर मिलना तो बहुत मुश्किल है। आपके लिए सलाह यही है कि बाजार के बुनियादी आंकड़ों को कंपनियों के चयन का आधार मानें। कुछेक कंपनियों का पीई अनुपात ही 10 से कम है और उनमें से भी कुछ का प्राइस बुक वैल्यू अनुपात 2.5 से कम है।

दो फीसद से ज्यादा का लाभांश देने वाली कंपनियां भी चुनिंदा हैं। लेकिन एक बार बुनियादी आंकड़े मिलने के बाद आपको कम ऋण, सकारात्मक नकदी प्रवाह जैसे दूसरे मानकों पर नजर दौड़ानी चाहिए। उसके बाद ही आप कारोबारी विशेषताओं और प्रबंधन की गुणवत्ता पर ध्यान दे सकते हैं।

First Published : October 13, 2008 | 1:09 AM IST