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इतिहास, बाजार और आतंक

Last Updated- December 08, 2022 | 7:45 AM IST

मुंबई में आतंकी हमले होने से बमुश्किल एक हफ्ता पहले मैं दक्षिण मुंबई में किसी के साथ मुलाकात कर रहा था।


अब यह इलाका पुलिस के पहरे में है। मैं वाईएमसीए कोलाबा में दो साल तक रह चुका हूं और बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में काम करते समय लियोपोल्ड में हर हफ्ते कुछ वक्त गुजारना मेरा शगल था। इसी इलाके में हुए दो जबरदस्त विस्फोटों से बचकर मैं खुद को खुशनसीब मानता हूं।

मैं सोच भी नहीं सकता कि इन विस्फोटों के वक्त मेरे वे दोस्त कैसा महसूस कर रहे होंगे, जो आसपास की इमारतों में मौजूद थे। मेरे एक सहकर्मी ने कहा, ‘दुनिया बेहद खराब वक्त से गुजर रही है।’ उसका यह जुमला सामाजिक तानेबाने की हालत को बयां करता है।

लेकिन इससे आर्थिक तानाबाना भी जुड़ा हुआ है। कहते हैं कि कुछ पहलुओं को बिना छुए छोड़ दिया जाए, तभी अच्छा होता है। लेकिन मुझे लगता है कि इतिहास, बाजारों और आतंक के पहलू पर बात करने का इससे बेहतर वक्त दोबारा शायद नहीं आएगा।

किसी आम आदमी से पूछें, तो वह मुंबई में आतंकी हमले की घटना को भारत के विकास, वित्तीय माहौल और क्रिकेट के लिए बहुत खराब खबर बताएगा। नाव पर सवार कुछ लोग आए और उनकी वजह से बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज बंद हो गया और पूरा शहर घुटनों पर आ गया।

लोग यह भी बता सकते हैं कि इस तरह के उपद्रव का बढ़ना बाजारों और वित्तीय नजरिये के लिए कितना नुकसानदेह हो सकता है। लेकिन असलियत इससे ठीक उलट है। 

दरअसल जब सब कुछ अच्छा होता है, तब हमें लड़ने की जरूरत ही नहीं होती। लड़ाई तो तब शुरू होती है, जब माहौल अच्छा नहीं होता है और हमें कुछ गंवा देने की वजह से गुस्सा आता है।

आतंकी भी इसी समाज के हिस्से हैं और उनके हमले भी ऐसे वक्त में ही होते हैं। यह बहुत कुछ युद्ध की तरह होता है। दोनों का उद्देश्य बहुत कुछ एक जैसा होता है और उन पर प्रतिक्रिया भी एक सी ही होती है। लेकिन आतंक और युद्ध में एक फर्क होता है, वह है पैमाना।

यदि आतंकी कार्रवाई बहुत बड़े पैमाने पर की जाए, तो वह युद्ध में तब्दील हो जाती है। कारगिल युद्ध कुछ महीने तक चला और उसके बाद बाजार ने छलांग लगा ली।

मई 1999 से फरवरी 2002 के बीच बाजार 50 फीसद तक उछल गया। आर्थिक मंदी की बात तो बाजार के गिरने के साल भर बाद ही होती है, जैसा इस समय हो रहा है और इसके बाद युद्ध या संघर्ष होता है।

अमेरिका में 1857 में हुए गृहयुद्ध की वजह भी यही थी, उससे ठीक पहले वहां आर्थिक मंदी आई थी। अगली महामंदी 1932 में आई और उसका नतीजा दूसरे विश्वयुद्ध की शक्ल में सामने आया। पहला विश्व युद्ध भी मंदी के बाद ही हुआ था।

दूसरे विश्वयुद्ध ने बाजार को उड़ने के लिए पंख दिए। उसके बाद ही 1942 से 1966 तक अमेरिकी बाजार में तेजी आई। इसी चलन को आतंकी हमलों से जोड़कर देखा जा सकता है।

यही वजह है कि मुंबई में आतंकी हमले जनवरी 2008 में नहीं हुए, जब बाजार चरम पर था, लेकिन साल भर में ही उसमें 60 फीसद गिरावट आने पर ये हमले हो गए।

यही वजह है कि युद्ध या दंगों की खबर आने पर भी लकीर के फकीर बनकर कारोबार करना अच्छा नहीं होता। बाजार को आतंक से जोड़ना समझदारी तो कहीं से नहीं कही जाएगी। बाजार पहले से तय रास्ते पर ही चलता है। हमलों के फौरन बाद जब शेयर बाजार में कामकाज शुरू हुआ, तो सेंसेक्स बढ़त पर बंद हुआ।

रूढ़िवादी इसे बाजार का सुधरना कहेंगे, लेकिन यह फील गुड फैक्टर ही है, जिसमें बाजार पर बात करना या उसके बारे में लिखना आसान है, लेकिन उसे साबित करना बहुत मुश्किल है।

बाजार की चाल बाहरी चीजों से बिल्कुल अलग रहती है। यह सच है, जिसे निगलना मुश्किल हो सकता है, लेकिन कीमतों के पास जज्बात नहीं होते।

लोग जज्बातों पर चलते हैं और ज्यादातर मौकों पर गलत फैसले करते हैं। ताज में आगजनी के वक्त स्टॉक एक्सचेंज को खोलने या उसे बंद रखने के मसले पर बतौर विशेषज्ञ बात करना आसान है, लेकिन बाजार के लिए इतिहास या मनोविज्ञान की अहमियत समझना बेहद मुश्किल है।

ए एल शिजेव्सकी ने ऐतिहासिक गतिविधियों के भौतिक तथ्यों पर लिखे अपने शोधपत्र में मानवीय इतिहास की बात की है और उन्होंने यह भी कहा है कि आम तौर पर बेहद प्रख्यात बुद्धिजीवी व्यक्तित्व अपने राष्ट्रों या देशों के बारे में भविष्यवाणी करने या युद्ध तथा क्रांतियों का परिणाम बता पाने में बुरी तरह नाकाम रहे हैं।

मानवता कभी ऐसा कोई नियम गढ़ ही नहीं सकी है, जो किसी खास ऐतिहासिक तथ्या या घटनाक्रमों पर चलता हो। विज्ञान लगातार विकसित होता रहा है, लेकिन नियम हम नहीं बना सके।

के लाम्प्रेट, ओ स्पेंगलर और जे डी कोंडोरसेट ने 1793-94 में अपने अध्ययन में भी यह कबूल किया कि इतिहास के नियम ढूंढना नामुमकिन है।

लोग मानते हैं कि आदमी की किस्मत कोई दैवीय शक्ति लिखती है, तालिब जैसे लोग कहते हैं कि इतिहास अव्यवस्थित होता है और उसकी लीक तय करना तर्क की सीमा से परे है।

यह मानना गलत है कि इतिहास मरे हुए लोगों या गुजर चुके वक्त का कच्चा चिट्ठा है और अब हमारे लिए यह बिल्कुल बेकार है।

ब्रिटिश इतिहासकार एच टी बकल ने अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ सिविलाइजेशन इन इंगलैंड’ में यह साबित किया है कि प्राकृतिक विज्ञान के सिद्धांत और तौर तरीके इतिहास पर भी लागू किए जाने चाहिए।

यही बात जे एम ड्रैपर ने भी अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ इंटलेक्चुअल डेवलपमेंट ऑफ यूरोप’ में कही है। दरअसल बदलाव की मुखालफत करना इंसानी फितरत होती है। इंसान के अंदर उत्तेजना भी चक्रीय तरीके से ही चलती है और उसका अंदाजा लगाना भी आसान होता है।

ऐसा नहीं है कि नए टीवी चैनलों, 20 ओवरों के क्रिकेट या चंद्रयान ने पूरे उद्योग की तस्वीर बदल दी, दरअसल तब्दीली इसीलिए हुई है क्योंकि आम आदमी की उत्तेजना ने इन्हें कामयाब कर दिया। उत्तेजना की वजह से आर्थिक खपत भी बढ़ती है।

बाजार, इतिहास और मनोविज्ञान के बीच ताल्लुक समझने के लिए महज एक खुला दिमाग या नजरिया भी नाकाफी होता है। मेरे पिता, वास्तुशास्त्री थे और बाजार में फ्रैक्टल ज्यामिति या गणितीय आंकड़ों को समझते थे। उन्हें यह भी पता था कि बाजार खबरों से परे अपनी गति से चलता है।

लेकिन 2024-30 में तीसरे विश्वयुद्ध की संभावना ने उनके अंदर बौखलाहट भर दी। लेकिन यह भी सच है कि दंगों के बिना व्यवस्था कायम नहीं होती, संतुलन बहाल भी तभी होता है, जब यह बिगड़ता है, गिरावट के बिना विकास नहीं होता, ऐसा मनोविज्ञान नहीं होता, जिसमें उतार चढ़ाव न हो, आतंक के बिना शांति नहीं होती और ऐसा कोई आर्थिक चक्र नहीं होता,

जिसमें युद्ध न हो। हरेक पीढ़ी को युद्ध से सामना करना होता है। हमारे हिस्से में भी युद्ध या आतंक आएगा। हां, सबसे अहम बात यह देखना होगी कि हम उसे अपनी जिंदगी का सबसे कीमती मौका मानते हैं या सबसे बड़ा संकट।

(लेखक वैश्विक वैकल्पिक अनुसंधान कंपनी ऑर्फियस कैपिटल के मुख्य कार्यकारी हैं)

First Published - December 7, 2008 | 10:19 PM IST

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