अर्थव्यवस्था

SBI Report: गरीबी कम होने की भारतीय स्टेट बैंक की रिपोर्ट पर अर्थशास्त्रियों ने उठाए सवाल

तेंदुलकर गरीबी रेखा के मानकों पर उठी आलोचना, विशेषज्ञों ने सैम्पलिंग और गणना प्रक्रिया पर खड़े किए सवाल

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शिवा राजौरा   
Last Updated- January 06, 2025 | 10:24 PM IST

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की शुक्रवार को जारी रिपोर्ट में ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी अनुपात तेजी से गिरने का दावा किया गया था। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि बेहतर भौतिक आधारभूत ढांचे, सबसे निचले तबके में भी खपत में उच्च वृद्धि और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण से समग्र गरीबी अनुपात महत्त्वपूर्ण रूप से गिरा है।

एसबीआई रिपोर्ट में नवीनतम सालाना घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण (एचसीईएस) के अगस्त 2023 से जुलाई 2024 के आंकड़ों का उपयोग कर दावा किया गया है कि वित्त वर्ष 24 में ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी महज 4.86 फीसदी थी जबकि यह वित्त वर्ष 23 में 7.2 फीसदी थी। इसी तरह, इस अवधि के दौरान शहरी क्षेत्रों में गरीबी का अनुपात भी 4.60 फीसदी से गिरकर 4.09 फीसदी हो गया।

एसबीआई रिपोर्ट में यह अनुमान तय किया गया है कि वित्त वर्ष 24 में ग्रामीण क्षेत्रों के लिए गरीबी रेखा 1,632 रुपये और शहरी क्षेत्रों के लिए 1,944 रुपये थी। यह गरीबी रेखा वर्ष 2011 की सुरेश तेंडुलकर समिति द्वारा निर्धारित गरीबी रेखा के मानकों और दशकीय मुद्रास्फीति को समायोजित कर तय की गई है। हालांकि कई अर्थशास्त्रियों ने इन दावों पर सवाल उठाए हैं।

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के प्रोफेसर आर रामकुमार का कहना है कि एसबीआई रिपोर्ट में त्रुटिपूर्ण गरीबी रेखा का उपयोग किया गया है, क्योंकि तेंदुलकर गरीबी रेखा, गरीबी रेखा नहीं है, बल्कि सिर्फ एक ‘अभावग्रस्तता रेखा’ है और पिछली सरकार को इसके बारे में हो रही आलोचनाओं की वजह से ही सी. रंगराजन समिति बनानी पड़ी थी।

उन्होंने कहा, ‘इसने एक ऐसे तरीके का इस्तेमाल किया है जिसमें गरीबी रेखा को बस अद्यतन कर दिया जाता है और इसमें परिवारों की खपत में बदलाव पर गौर नहीं किया जाता। इसी कारण उनकी गरीबी रेखा काफी नीचे हो जाती है। एसबीआई रिपोर्ट में 2023-24 के लिए जिस गरीबी रेखा का इस्तेमाल किया गया है वह ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 55 रुपये प्रतिदिन और शहरी क्षेत्रों के लिए महज 65 रुपये प्रतिदिन थी। आश्चर्य की बात नहीं है कि उन्होंने गरीबी का कम अनुमान प्राप्त करने के लिए गरीबी रेखा को ही कम आंका है।’

भारत के पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद प्रणव सेन ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि गरीबी रेखा का आमतौर पर मूल्यांकन विकास के चुनिंदा मानदंडों को आधार पर किया जाता है और ये मानदंड समय के साथ बेहतर होते हैं। इसलिए एक दशक से भी पहले निर्धारित मानदंडों का अभी भी इस्तेमाल करना गरीबी रेखा निर्धारित करने की निष्पक्षता में भरोसा पैदा नहीं करता। उन्होंने कहा, ‘गरीबी निश्चित रूप से घटी है लेकिन सवाल यह है कि कितनी कम हुई है। उपभोग की टोकरी में बदलाव तथा पहले के उपभोग सर्वेक्षणों और वर्तमान एचसीईएस के तरीके में अंतर के कारण सिर्फ तेंडुलकर की रेखा को महंगाई से समायोजित करना पूरी तरह से गलत है। कम से कम प्रोफेसर तेंडुलकर द्वारा बताए गए सिद्धांतों का ही इस्तेमाल करें और गरीबी रेखा की नए सिरे से गणना करें।’

बाथ विश्वविद्यालय के विजिटिंग प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा कहते हैं कि सैम्पलिंग का ऐसा तरीका समाज के समृद्ध वर्गों के अनुचित अनुपात को प्रदर्शित करता है। इससे उच्च खपत व्यय दर्ज होता है और फिर पूरी स्थिति की अनुचित तस्वीर सामने आती है। उन्होंने कहा, ‘जब महंगाई बढ़ने के कारण गरीबों के सभी संसाधन खत्म हो रहे हैं और रोजगार की वृद्धि दर व वास्तविक वेतन में गिरावट हो रही है तो गरीबी कैसे कम हो सकती है।’

First Published : January 6, 2025 | 10:24 PM IST