अर्थव्यवस्था

जलवायु परिवर्तन से कर्जदारों की ऋण गुणवत्ता और वित्तीय संस्थानों की सेहत पर असर: RBI डिप्टी गवर्नर

आरबीआई के डिप्टी गवर्नर ने जलवायु परिवर्तन के कर्जदारों और वित्तीय संस्थानों पर प्रभाव की चेतावनी दी, मौद्रिक और विवेकपूर्ण नीति में जलवायु जोखिमों को कम करने की जरूरत बताई।

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अंजलि कुमारी   
Last Updated- July 25, 2024 | 11:08 PM IST

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के डिप्टी गवर्नर एम राजेश्वर राव का कहना है कि जलवायु से जुड़ी घटनाएं कर्जदारों की ऋण गुणवत्ता और कर्ज चुकाने की उनकी क्षमता को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती हैं। राव ने यह बात शुक्रवार को अपने एक भाषण में कही थी, जिसे आज आरबीआई की वेबसाइट पर जारी किया गया। राव ने कहा कि जलवायु से जुड़ी घटनाओं के चलते संस्थागत पूंजी की मदद से बनी परिसंपत्तियां बरबाद हो सकती हैं और इससे इन संस्थानों की वित्तीय सेहत पर असर पड़ता है।

उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन मौद्रिक स्थिरता, आर्थिक वृद्धि, वित्तीय स्थिरता और नियमन के दायरे वाली संस्थाओं की सुरक्षा और मजबूती के लिए घातक साबित हो सकता है और इससे केंद्रीय बैंकों और नियामकों के कार्यों पर भी असर पड़ता है।

मुंबई में जेपी मॉर्गन इंडिया लीडरशिप सीरीज में उन्होंने कहा, ‘जलवायु से संबंधित घटनाएं कर्ज लेने वालों की ऋण गुणवत्ता और कर्ज चुकाने की क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती हैं। ये घटनाएं संस्थागत पूंजी की मदद से तैयार की गई संपत्तियों को स्वाहा कर सकती हैं जिससे वित्तीय संस्थानों की सेहत पर भी असर पड़ता है।’

उन्होंने कहा कि चूंकि जलवायु की घटनाएं वास्तविक क्षेत्र को प्रभावित करती हैं और अगर बैंकों के हित इन क्षेत्रों से जुड़े हैं तब वे विस्तारित होते हुए बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों के जोखिम प्रबंधन ढांचे को सीधे प्रभावित करती हैं। इसलिए, मौद्रिक और विवेकपूर्ण नीति दोनों ही नजरिये से, आरबीआई जलवायु जोखिमों को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

उन्होंने आगे कहा कि पारंपरिक जोखिम प्रबंधन रणनीतियां जलवायु परिवर्तन के चलते बनी वित्तीय और अन्य जोखिमों वाली स्थिति से पूरे प्रभावी ढंग से नहीं निपट पाती हैं। इन रणनीतियों में जोखिम से बचाव, जोखिम खत्म करना, जोखिम साझा करना और जोखिम हस्तांतरण जैसे मुद्दे शामिल हैं। ये जोखिम अक्सर व्यक्तिगत रूप से नहीं बल्कि किसी क्षेत्र या उद्योग में सामूहिक रूप से नजर आते हैं। नतीजतन, बीमा जैसी पारंपरिक योजनाएं इन जोखिमों का व्यापक प्रबंधन करने के लिए अपर्याप्त हो सकती हैं और बीमाकर्ताओं पर इन बातों का ज्यादा असर हो सकता है।

उन्होंने कहा, ‘सोचने के लिए महत्वपूर्ण बात यह है कि जोखिम प्रबंधन के परंपरागत तरीके जैसे कि जोखिम को नजरअंदाज करना, जोखिम खत्म करना, जोखिम साझेदारी और इसका हस्तांतरण पूरी तरह से प्रभावी नहीं हो सकता है क्योंकि जलवायु परिवर्तन से जुड़े वित्तीय और अन्य जोखिमों को कुछ हिस्सों में या व्यक्तिगत स्तर पर प्रबंधित नहीं किया जा सकता है बल्कि किसी क्षेत्र या उद्योग में सामूहिक तौर पर इसका असर पड़ता है तब इसका निदान भी उसी तरीके से निकालना होगा। उन्होंने कहा, ‘पारंपरिक योजनाएं जैसे कि बीमा ही जोखिम का प्रबंधन करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा।’

राव ने कहा कि इन जोखिमों को दूर करने के लिए सभी हितधारकों की भागीदारी की आवश्यकता होती है। और एक बेहतर भविष्य सुनिश्चित करने के लिए, एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है जिसमें सरकारें, निजी क्षेत्र की संस्थाएं, वित्तीय संस्थान, नागरिक समाज संगठन और जनता शामिल हों।

First Published : July 25, 2024 | 11:08 PM IST