भारत सरकार जहां एक ओर इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से उत्पन्न होने वाले अवशिष्ट पदार्थों से हो रही पर्यावरणीय क्षति को रोकने के लिए एक कानून का प्रारुप बना रही है, वहीं दूसरी ओर भारत में प्रतिवर्ष 1,46,000 टन ई-अवशिष्ट जमा हो रहा है।
वन और पर्यावरण राज्य मंत्री नमो नारायण मीणा ने आज इन आंकड़ों का खुलासा राज्य सभा में किया।
ये आंकड़े केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने एक अध्ययन के आधार पर बताया है। बहुत सारी स्वयंसेवी संस्थाओं ने भी इसी से मिलते-जुलते आंकड़े इस संदर्भ में प्रस्तुत किए हैं।
पर्यावरणीय संगठनों ने चेतावनी दी है कि 2012 तक यह अवशिष्ट 8 लाख टन हो जाएगा। इन अवशिष्टों में आधे तो घरेलू बाजारों से आते हैं और बाकी अवशिष्ट विकसित देशों से आए हुए अवांछनीय सामान के कचरे के कारण होता है।
इन इलेक्ट्रॉनिक और इलेक्ट्रिक कचरे के कारण कार्सिनोजेनिक पदार्थों का उत्सर्जन होता है। ये कार्सिनोजेनिक पदार्थ कैंसर के कारक होते हैं।
इसके अतिरिक्त इन अवशिष्टों से मिट्टी, हवा और जल को प्रदूषित करने वाले बहुत सारे पदार्थों का भी उत्सर्जन होता है।
यूरोपीय संघ के देशों में इस इलेक्ट्रॉनिक कचरे के उत्सर्जन केलिए व्यापक नियम मौजूद हैं, लेकिन स्विट्जरलैंड, नॉर्वे, जापान, बेल्जियम, दक्षिण कोरिया, ताइवान जैसे देशों में इन कचरों के उत्सर्जन के लिए एक प्रकार का लेवी या कर लगाया जाता है।
मीणा ने बताया कि इस कसरे के उत्सर्जन के लिए 2004 में गठित एक टास्क फोर्स ने लगभग अंतिम दिशा निर्देश तैयार कर लिए हैं। अभी तक इलेक्ट्रॉनिक कचरा जोखिम अवशिष्ट के तहत ही नियंत्रित किया जाता है।
वर्तमान नियम के अनुसार भारत इलेक्ट्रॉनिक कचरे का सीधा पुनर्उपयोग कर सकता है। भारत अंतिम अवशिष्ट को रिसाइकल करने में अक्षम है।
एक पर्यावरणीय एनजीओ, टॉक्सिक लिंक के मुताबिक भारतीय कानून के तहत चैरिटी उद्देश्यों से 10 साल पुराने कंप्यूटरों को आयात किया जा सकता है, जबकि ये कंप्यूटर बेकार और बिना उपयोग के होते हैं।
एक अध्ययन के मुताबिक कामगार इन इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को जब जलाते हैं,तो बड़ी मात्रा में जहरीली गैसें निकलती हैं जो पर्यावरण के लिए काफी हानिकारक होती हैं।