शहरों को शहरी संपन्नता का एक ऐसा नया स्वरूप अपनाने की आवश्यकता है जो टिकाऊ विकास के अनुरूप हो। बता रहे हैं अमित कपूर और विवेक देवरॉय
शहरीकरण और संपन्नता पर कोई अध्ययन हमें संपूर्ण एवं स्थायी विकास में इनकी भूमिका पर विचार करने की दिशा में ले जाता है। शहरीकरण 21वीं शताब्दी का सबसे महत्त्वपूर्ण वैश्विक रुझान रहा है। इसका कारण यह है कि लोगों के रहने की जगह के रूप में शहरों का विकास तेजी से हुआ है। शहरीकरण का अभिप्राय केवल आबादी के रुझान तक ही सीमित नहीं रहा है। यह एक लगातार बढ़ रही ताकत है और इसका इस्तेमाल सही दिशा में किया जाए तो दुनिया को कई गंभीर समस्याओं-जलवायु परिवर्तन, टिकाऊ विकास और वैश्विक सामाजिक मुद्दे-से निजात मिल सकती है।
इसमें कोई शक नहीं कि शहर बदलाव और वृद्धि के प्रमुख केंद्र बन गए हैं। शहर संबंधित पक्षों के बीच नए संपर्क स्थापित करने और संरचनात्मक समाधान देने में भी सक्षम रहे हैं। इससे उन प्रयासों को बल मिला है जो राष्ट्रीय मुद्दों सहित क्षेत्रीय एवं वैश्विक विकास को प्रभावित कर सकते हैं। हालांकि, शहरी क्षेत्रों में दीर्घावधि के लिए संपन्नता को बढ़ावा देने की संभावनाएं अपर्याप्त योजनाओं और सक्षम सरकार एवं कानूनी ढांचे के अभाव में कम होती जा रही है। अस्थिर संस्थान, स्थानीय प्रशासन की सीमित क्षमता और एक विश्वसनीय निगरानी व्यवस्था के अभाव से भी असर हो रहा है ।
ऐसे समय में जब वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में शहरों की भागीदारी 80 प्रतिशत से अधिक हो गई है, पूरा ध्यान जीडीपी से इतर वित्तीय उपायों पर केंद्रित होता जा रहा है। अगर शहरीकरण के लाभ और मूल्य नागरिकों में समान रूप से नहीं बांटे जाते हैं तो अनुमानित आर्थिक लाभ भी संपन्नता की गारंटी नहीं दे सकते हैं। इस लिहाज से उत्पादकता, पर्यावरण संरक्षण की दिशा में प्रयास, सामाजिक समानता रहन-सहन में सुधार और जीवन यापन से जुड़ी गुणवत्ता शहरीकरण के लाभ की तुलना में प्राथमिकता में पहले आते हैं।
शहरीकरण से प्राप्त संपन्नता की गणना इकॉनमीज ऑफ लोकेशन और इकॉनमीज ऑफ एफिशिएंसी कारकों के आधार पर की जाती है। इकॉनमीज ऑफ लोकेशन सिद्धांत कहता है कि जब जमीन और परिसंपत्तियों शहरी क्षेत्रों और आधारभूत संरचनाओं के समीप होती हैं तो उनका मूल्य बढ़ता है। इकॉनमीज ऑफ एफिशिएंसी सिद्धांत कहता है कि किसी क्षेत्र में शहरीकरण बढ़ने से आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा मिलता है।
यूएन हैबिटेट की रिपोर्ट ‘द वर्ल्ड सिटी रिपोर्ट इनविजिजिंग इन द फ्यूचर ऑफ सिटीज’ में भी यह बात कही गई है कि समानता वाले शहरी भविष्य का लक्ष्य तब तक पूरा नहीं हो सकता है जब तक शहरीकरण की चुनौतियों के समाधान की दिशा में समावेशी और निर्णायक कदम नहीं उठाए जाते हैं। टिकाऊ मुद्दों के अनुरूप शहरी संपन्नता के लिए जीडीपी उपायों के लिए भी एक सतर्क नजरिये की जरूरत है तभी जाकर शहरी क्षेत्र विभिन्न परिस्थितियों से निपटने में सक्षम होंगे।
टिकाऊ शहरी विकास को अधिक अनुकूल बनाने के लिए हमें यह समझना होगा कि वैश्विक विकास के मुद्दों के पहलुओं को एक दूसरे से जोड़ना होगा। इनमें द न्यू अर्बन एजेंडा, सेंडाई फ्रेमवर्क फॉर डिजास्टर रिस्क रिडक्शन, अदीस अबाबा एक्शन एजेंडा और पेरिस एग्रीमेंट ऑन क्लाइमेट चेंज ऐसे ही मुद्दे हैं।
दूसरी अहम बात यह है कि शहरीकरण को टिकाऊ बनाना कई आयामों से जुड़ा है और कई पक्ष इस प्रक्रिया में शामिल होते हैं। इस वजह से पूर्व में उठाए कदमों से हटकर स्पष्ट बदलाव की ओर कदम उठाना जरूरी है। शहरीकरण को अधिक टिकाऊ बनाने की प्रक्रिया बहुआयामी और बहुपक्षीय है इसके लिए पुरानी दिशाओं से बदलाव की जरूरत है। इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए अधिक तेज प्रयासों की जरूरत है, क्योंकि केवल पहले अपनाई गई रणनीति के साथ आगे बढ़ने से समानता और अन्याय और बढ़ेंगे, ना कि कम होंगे।
कोविड-19 महामारी के बाद उत्पन्न परिस्थितियों के बीच शहरी क्षेत्रों में संपन्नता को वहनीयता को जोड़ना महत्त्वपूर्ण हो गया है। इस वजह से शहरी भविष्य का सकारात्मक स्वरूप प्राप्त करने के लिए हमें अपना दायरा बढ़ाना होगा और शहरीकरण की तरफ महज बढ़ने के बजाय शहरी क्षेत्रों में क्रांतिकारी बदलाव लाने की दिशा में बढ़ना होगा।
व्यावहारिक दृष्टिकोण से शहरी क्षेत्रों में आने वाले उतार-चढ़ाव की दिक्कतों को समझना और उनकी समीक्षा करना समुचित प्रशासनिक कार्यों के लिहाज से भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। विभिन्न स्थानीय सरकारी इकाइयां यह कार्य कर सकती हैं। सिटी रेजिलियंस इंडेक्स (सीआरआई) एक उपयोगी मानक साबित हो सकता है। सीआरआई का गठन इस उद्देश्य के साथ किया गया है कि सभी सदस्य इसका अनुपालन करेंगे और भविष्य में वहनीयता में आने वाले बदलावों पर नजर रखने के लिए इसका इस्तेमाल करेंगे ।
कोविड महामारी के बाद जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए दुनिया में आर्थिक गतिविधियों में एक अलग संतुलन और संरचना पर जोर दिया जा जा रहा है। अक्षय ऊर्जा, पर्यावरण के अनुकूल आर्थिक गतिविधियां और हरित रोजगार के जरिये यह संतुलन स्थापित करने का प्रयास भी शुरू हो गया है।
लिहाजा, उत्पादकता को केवल परंपरागत नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि इसे संपूर्ण शहरी टिकाऊ विकास के महत्त्वपूर्ण तत्त्व के रूप में भी देखा जाना चाहिए। शहरी उत्पादकता के लिए समकालीन वैचारिक ढांचे में संसाधनों के विविध रूप शामिल किए जाते हैं। इन संसाधनों का इस्तेमाल न्याय, पारदर्शिता, सह-उत्पादन, संचालन और पुनर्सृजन की दिशा में सुनियोजित सोच के साथ किया जाना चाहिए। कोविड महामारी एक महत्त्वपूर्ण बदलाव लाने वाली घटना रही है। इस महामारी के बाद एक टिकाऊ एवं अनुकूल शहरी भविष्य के लिए पर्यावरण के अनुकूल आर्थिक गतिविधियों को अपनाया जाना चाहिए।
बढ़ते शहरीकरण और आबादी के एक जगह सिमटने से आपदाओं का जोखिम बढ़ता जा रहा है। इसके अलावा, पिछले 50 वर्षों के दौरान विकसित एवं विकासशील देशों में शहरी योजना एवं ढांचा शहरीकरण के पुराने प्रारूप को दोहराते आ रहे हैं। हालांकि इस स्वरूप के अच्छे आर्थिक परिणाम भी दिखे हैं मगर इसके जरिये सामाजिक और वैश्विक पर्यावरण संबंधी चुनौतियों से सही तरीके से नहीं निपटा जा सका है।
तेजी से उभरते देशों में बढ़ते शहरीकरण की वजह से शहर के इर्द-गिर्द भी गतिविधियां तेज हो गई हैं। ये गतिविधियां मुख्य तौर पर अनौपचारिक हैं। इनका नतीजा यह है कि शहरी क्षेत्रों का क्षेत्रफल बढ़ता जा रहा है और कई बड़े शहर महानगरों का रूप ले चुके हैं और बड़े नगर निगम बन गए हैं।
मगर इनके साथ समस्या यह है कि इन क्षेत्रों में ऊर्जा इस्तेमाल पूरी क्षमता के अनुसार नहीं हो रहा है और पर्यावरण का ध्यान भी नहीं रखा जा रहा है। इस तरह, अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी ये अनुकूल नहीं रह गए हैं। लिहाजा, शहरी संपन्नता के एक नए स्वरूप को टिकाऊ विकास को मजबूती देनी चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि राष्ट्रीय विकास में शहरों की आर्थिक भूमिका को बढ़ावा दिया जाना चाहिए और शहरों से मिलने वाले अवसरों की पहचान की जानी चाहिए। इसके साथ ही शहरी संपन्नता के इन नए स्वरूप को वैश्विक पर्यावरण संबंधी चुनौतियों जैसे जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा का अंधाधुंध इस्तेमाल और जल की कमी से भी निपटना चाहिए ताकि लोगों का जीवन आसान हो सके।
(कपूर इंस्टीट्यूट फॉर कंपीटिटिवनेस देश, इंडिया में अध्यक्ष और स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी में व्याख्याता हैं। देवरॉय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष हैं)