असुरक्षित उपभोक्ता ऋण पर जोखिम भार बढ़ाने के भारतीय रिजर्व बैंक के निर्णय से एनबीएफसी पर दोधारी तलवार लटक गई है। बता रहे हैं अजय त्यागी और रचना बैद
गै र-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) पिछले कुछ समय से गलत कारणों से चर्चाओं में रही हैं। सेंटर फॉर एडवांस्ड फाइनैंशियल रिसर्च ऐंड लर्निंग ने हाल में एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में एनबीएफसी को बैंकों से मिलने वाली पूंजी और डिजिटल उधारी खंड में संभावित खतरों का जिक्र किया गया है।
इस रिपोर्ट के बाद भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने बैंकों, एनबीएफसी और क्रेडिट कार्ड प्रदाताओं के असुरक्षित उपभोक्ता ऋणों पर जोखिम भार (रिस्क वेट) बढ़ाने का निर्णय लिया है। इस निर्णय की जद में बैंकों से एनबीएफसी को मिलने वाला ऋण भी शामिल है।
पिछले कुछ समय से उपभोक्ता ऋण आवंटन में काफी तेजी दिखी है जिनमें एक बड़ा हिस्सा और असुरक्षित कर्ज का है। इसके अलावा बैंकों ने भी एनबीएफसी के लिए अपने खजाने खोल दिए हैं। इन बातों पर विचार करते हुए आरबीआई ने असुरक्षित ऋण पर जोखिम भार बढ़ाने का निर्णय लिया है।
पिछले दो वर्षों के दौरान खुदरा ऋण आवंटन में सालाना चक्रवृद्धि दर (सीएजीआर) पर 25 प्रतिशत बढ़ोतरी दर्ज हुई है। ऐसे ऋण की वृद्धि दर सकल ऋण आवंटन में वृद्धि की तुलना में दोगुना है। इनमें लगभग एक चौथाई ऋण असुरक्षित हैं।
कैफरल रिपोर्ट के अनुसार एनबीएफसी द्वारा बैंकों एवं वित्तीय संस्थानों से ली गई उधारी का अनुपात 2019 में उनके द्वारा सभी स्रोतों से जुटाई गई कुल रकम में 29.68 प्रतिशत से बढ़कर 2022 में 35.46 प्रतिशत हो गया। वर्तमान समय में यह अनुपात बढ़कर 41 प्रतिशत तक पहुंचने की खबर है।
बैंक और एनबीएफसी के बीच परस्पर जुड़ाव इस बात से भी स्पष्ट हो जाता है कि आरबीआई के निर्देश के बाद दोनों के शेयरों में तेज गिरावट आई है। बेशक, बैंकों की तुलना में आरबीआई के इस निर्णय की चोट एनबीएफसी के शेयरों पर अधिक पड़ी है।
एनबीएफसी को उधार लेने और उधार बांटने-दोनों मोर्चों पर प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। कुल मिलाकर यह उनके लिए दोहरी मार है। बैंकों से पूंजी जुटाने पर बढ़ी लागत को देखते हुए एनबीएफसी बाजार से उधारी लेने के लिए विवश हो सकती हैं।
इसका नतीजा यह होगा कि बॉन्ड पर प्रतिफल (यील्ड) बढ़ जाएगा और एनबीएफसी के लिए रकम जुटाना अधिक महंगा हो जाएगा। इतना ही नहीं, असुरक्षित ऋण के लिए पूंजी पर जोखिम भार बढ़ने से ऐसे ऋण के लिए एनबीएफसी की उधारी दर भी बढ़ जाएगी।
पिछले कई वर्षों से भारत में एनबीएफसी अस्तित्व में हैं और ऋण सुविधा ग्राहकों तक पहुंचने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।
सेंटर फॉर एडवांस्ड फाइनैंशियल रिसर्च ऐंड लर्निंग की रिपोर्ट के अनुसार एनबीएफसी द्वारा कुल आवंटित ऋण का हिस्सा 2013 में सकल घरेलू उत्पाद का 8.6 प्रतिशत हुआ करता था, जो 2022 में बढ़कर 12.3 प्रतिशत हो गया।
महत्त्वपूर्ण बात है कि एनबीएफसी छोटे स्तर के कारोबारों एवं खुदरा क्षेत्र को पूंजी देती हैं। ये कारोबार प्रायः बैंकों तक पूंजी के लिए नहीं पहुंच पाते हैं या बैंक इन्हें पूंजी नहीं दे पाते हैं। कई बैंकों ने तो अलग से पूंजी लगाकर अपनी एनबीएफसी की शुरुआत की है।
वैश्विक स्तर पर बैंक और एनबीएफसी में जमा रकम हासिल करने और उधारी की रफ्तार बढ़ाने की होड़ लगी रहती है। परंतु, भारत में लंबे समय से इन दोनों के बीच संबंध आपासी सहयोग का रहा है।
एनबीएफसी ऋण आवंटन के लिए आवश्यक पूंजी का इंतजाम करने के लिए बैंकों से उधारी लेती हैं। इसके अलावा वे बॉन्ड बाजार से भी रकम जुटाती हैं और वाणिज्यिक पत्रों के माध्यम से निकट अवधि की पूंजी की जरूरतें पूरी करती हैं।
जमा लेने वाली एनबीएफसी की संख्या पहले की तुलना में अब कम हुई है क्योंकि केंद्रीय बैंक ने इससे जुड़े नियम सख्त कर दिए हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि 2022 तक जमा लेने वाली एनबीएफसी की संख्या कम होकर 49 रह गई, जो 2002 में 784 हुआ करती थी। आरबीआई नई एनबीएफसी को जमा लेकर पूंजी एकत्रित करने की अनुमति नहीं दे रहा है।
एनबीएफसी जो बॉन्ड जारी करती हैं उनमें डेट फंड और बैंक प्रमुखता से निवेश करते हैं। इस तरह, एनबीएफसी और म्युचुअल फंड कंपनियां बॉन्ड बाजार में सर्वाधिक सक्रिय रहती हैं। एनबीएफसी और म्युचुअल फंड के बीच मजबूत संबंध 2018 में भी सामने आए थे जब एक बड़ी एनबीएफसी ने अपने बॉन्ड पर भुगतान करने में चूक गई थी। इस घटना के बाद बॉन्ड बाजार में खलबली मच गई थी जिसका सीधा असर डेट म्युचुअल फंडों पर दिखा था।
हाल के वर्षों में एनबीएफसी के खुदरा ऋण कारोबार में भारी इजाफा हुआ है। उनका यह कारोबार 2013 से 2022 के दौरान 227.0 प्रतिशत तक बढ़ गया।
एनबीएफसी उधारी देने में थोड़ा लचीला रुख रखती हैं जो उनके फायदे में जाती है। बैंकों की तुलना में एनबीएफसी ने वित्त तकनीक (फिनटेक) और डिजिटल लेंडिंग प्लेटफॉर्म का बेहतर इस्तेमाल किया है। बैंक और एनबीएफसी द्वारा संयुक्त उधारी के लिए अपनाया गया उधारी प्रारूप एक परस्पर लाभ पहुंचाने वाला कदम है।
इसमें बैंकों से मिलने वाले सस्ते कर्ज और एनबीएफसी का लचीला उधारी कारोबार एवं उनकी ग्राहकों तक अच्छी पहुंच सभी के लाभ एक साथ मिल जाते हैं। आरबीआई के हाल के दिशानिर्देश से वित्त तकनीक कंपनियों द्वारा आवंटित ऋण पर खास तौर पर असर होगा। इसका कारण यह है कि उनके उधारी कारोबार में असुरक्षित ऋण की बड़ी हिस्सेदारी
होती है।
आरबीआई के इस कदम में त्रुटि ढूंढना काफी मुश्किल है। कोई भी बैंकों और एनबीएफसी में परिसंपत्ति गुणवत्ता बरकरार रखने के खिलाफ तर्क नहीं दे सकता है। वित्तीय संस्थानों की परिसंपत्ति गुणवत्ता देश में वित्तीय स्थिरता के लिए बेहद जरूरी है।
आरबीआई ने 2018 में बॉन्ड बाजार में उत्पन्न संकट के बाद एनबीएफसी पर नजर रखने के लिए नियम कायदे सख्त कर दिए हैं। हालांकि, बाजार की गतिशीलता और कारोबार एवं परिचालन में तकनीक के बढ़ते उपयोग को देखते हुए नियामक को अपना दृष्टिकोण थोड़ा लचीला रखना चाहिए।
चूंकि, एनबीएफसी का नियमन एक व्यापक विषय है और इससे कई पहलू जुड़े हुए हैं इसलिए निम्नलिखित बातें महत्त्वपूर्ण हैं और केंद्रीय बैंक और सरकार को इन पर अवश्य ध्यान देना चाहिए।
एनबीएफसी की बैंकों और पूंजी बाजार पर निर्भरता एक बड़ा खतरा बन गया है और यह देश की वित्तीय स्थिरता के लिए भी अच्छा संकेत नहीं है।
बैंकों से एनबीएफसी को अधिक उधार लेने से रोका जाना चाहिए और बॉन्ड बाजार पर उनकी निर्भरता बढ़ाने के प्रयासों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। हालांकि यह कहना तो सरल है परंतु करना बहुत मुश्किल है क्योंकि कम रेटिंग वाली एनबीएफसी के लिए बॉन्ड बाजार से पूंजी जुटाना आसान नहीं है।
एक महत्त्वपूर्ण विषय यह है कि भारत में बॉन्ड बाजार अधिक परिपक्व नहीं है। इस दिशा में काफी कुछ किए जाने की जरूरत है। बॉन्ड बाजार में अधिक कारोबारियों की मौजूदगी होनी चाहिए ताकि विभिन्न रेटिंग प्राप्त बॉन्ड में आसानी से कारोबार होता रहे। बॉन्ड बाजार में गहराई लाए बिना पूंजी के लिए एनबीएफसी की बैंकों पर निर्भरता कम करना संभवतः छोटी एनबीएफसी को नुकसान पहुंचा सकता है।
यदि एनबीएफसी के लिए पूंजी जुटाना महंगा होता है तो इससे एमएसएमई, आवास और शिक्षा आदि क्षेत्रों के लिए ऋण महंगे हो सकते हैं। चूंकि, बैंक की पहुंच एनबीएफसी की तुलना में थोड़ी कम है इसलिए यह स्थिति ऐसे ऋण के आवंटन के लिए आदर्श नहीं हो सकती।
उन एनबीएफसी के परिचालन पर भी ध्यान देने की जरूरत है जो बैंकों की सहायक इकाइयों के रूप में काम कर रही हैं। कोई बैंक और उसके नियंत्रण वाली एनबीएफसी अगर एक ही कारोबार में हैं तो इससे नियामकीय स्तर पर चिंता एवं विवाद की स्थिति बन सकती है।
ऐसी इकाइयों के बीच कारोबार में एक निश्चित दूरी होनी चाहिए और तीसरे पक्ष के साथ लेन-देन की भी समीक्षा होनी चाहिए। प्रश्न उठता है कि बैंक अपनी सहायक इकाई यानी एनबीएफसी के साथ दूसरी एनबीएफसी की तुलना में कैसा व्यवहार करते हैं। कोई एनबीएफसी बैंक नियंत्रित है या नहीं, इससे इतर जाकर सभी एनबीएफसी के बीच अवसर की समानता सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है।
बैंकिंग नियामक को एनबीएफसी द्वारा जमा के माध्यम से रकम जुटाने पर स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। यदि आरबीआई इसकी अनुमति नहीं देता है तो इस समय जो एनबीएफसी जमा ले रही हैं उनके लिए भी एक निश्चित अवधि तय की जानी चाहिए।
दूसरे शब्दों में कहे तो केंद्रीय बैंक को इन एनबीएफसी के लिए एक निश्चित समय सीमा तय करनी चाहिए जिसके बाद वे जमा नहीं ले पाएंगी। यह सभी एनबीएफसी के बीच अवसर की समानता सुनिश्चित करने और स्थिति स्पष्ट करने के लिए बेहद जरूरी है।
(अजय त्यागी सेबी के पूर्व अध्यक्ष और रचना बैद एनआईएसएम में प्राध्यापक हैं)