भारत में निजी निवेश में बड़ी गिरावट देखी गई है और यह वर्ष 2007-08 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 27.5 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2020-21 में करीब 20 प्रतिशत रह गया है। आखिर इसकी वजह क्या है? इन वजहों का विश्लेषण करने से पहले अर्थशास्त्र के कुछ सरल पहलू पर विचार करते हैं।
अगर निवेश, बचत से अधिक है तब ब्याज दर बढ़ जाती है। वहीं अगर निवेश बचत से कम है तब ब्याज दर में कमी आएगी जब तक कि यह शून्य या शून्य के निचले स्तर को न छू ले। लेकिन भारत में ऐसा नहीं हुआ है ऐसे में यहां मानक विश्लेषण लागू होता है।
अब मुख्य विश्लेषण की ओर आते हैं। लगभग वर्ष 2003 से 2010 तक जीडीपी वृद्धि दर लगभग 8 प्रतिशत तक रही थी और इसमें वैश्विक अर्थव्यवस्था में तेजी का योगदान भी था। यह उस दौर में और उससे पिछले वर्षों के दौरान जारी रहीं घरेलू नीतियों के कारण भी था। जीडीपी की वृद्धि उस ‘रुझान’ से ऊपर तेजी से बढ़ी।
यह प्रशंसा करने योग्य बात है कि कई लोगों के लिए घरेलू बचत दर, इस अनिश्चितता के कारण बढ़ गई कि जीडीपी की बहुत ऊंची वृद्धि दर वास्तव में टिकाऊ है या नहीं। हालांकि, कुल बचत दर में दीर्घकालिक वृद्धि का रुझान था और यह वर्ष 2000 के 24 प्रतिशत से तेजी से बढ़कर सात वर्षों में 34 प्रतिशत हो गई।
हालांकि तेजी के दौर में बचत दर ऊंची थी लेकिन उपभोग मांग की कुल मात्रा भी प्रभावी तरीके से बढ़ रही थी। इसके अलावा निर्यात मांग भी बढ़ रही थी। ऐसे में उत्पादन के लिए अधिक क्षमता की आवश्यकता थी।
नतीजतन, निवेश की दर ऐसे समय में बढ़ी जब घरेलू बचत दर भी बढ़ी और विदेशी पूंजी प्रवाह भी अधिक था। बचत और निवेश दोनों अधिक थे, ऐसे में ब्याज दरों पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ा। निश्चित रूप से सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर ऊंची थी।
आखिरकार, चीजें बदल गईं। यह काफी हद तक उसी तर्ज पर था जो कई देशों में हुआ था। वर्ष 2012 तक, भारत में जीडीपी की वृद्धि दर महज 5 प्रतिशत से कुछ अधिक थी। एक विस्तारवादी व्यापक आर्थिक नीति का उपयोग किया गया लेकिन एक वक्त के बाद यह काम नहीं आया। दरअसल, महंगाई बढ़ गई और निजी निवेश की दर कम हो रही थी।
आखिर ऐसा क्यों था? आर्थिक मंदी को देखते हुए क्षमता बढ़ाने की उतनी जरूरत नहीं थी और इसका अंदाजा होने लगा था कि यह अतिरिक्त क्षमता है। इसके अलावा, पहले किए गए बड़े निवेश के कारण कई कारोबार को ज्यादा फायदा हुआ लेकिन अधिक पूंजी जुटाना कठिन था।
स्पष्ट रूप से, वर्ष 2012 से 2020 तक रियल एस्टेट उद्योग में एक विशेष तरह की मंदी के कारण जीडीपी वृद्धि में कमजोरी कुछ हद तक बढ़ गई थी। इसके अलावा, बैंकों में गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) यानी फंसे कर्ज को पहले परोक्ष रूप से और बाद में स्पष्ट रूप से पहचाना जाने लगा और फंसे कर्ज ‘नए’ कारोबार के लिए बैंक ऋण की वृद्धि को प्रभावित कर रहे थे।
यह अब तक कुछ हद तक दीर्घावधि के आर्थिक चक्र की कहानी है जिसमें तेजी और मंदी के दोनों ही दौर शामिल थे। बाकी इतिहास है और इससे सभी परिचित हैं। वर्ष 2016 में नोटबंदी और 2018 में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की शुरुआत से वास्तव में दीर्घावधि में आर्थिक रूप से फायदेमंद रहने की संभावना है, लेकिन अगर अल्पावधि के नजरिये से देखें तो इससे आर्थिक मंदी बढ़ गई।
वर्ष 2019 में एक विस्तारवादी मौद्रिक नीति का उपयोग किया गया था लेकिन इसका मुख्य प्रभाव मुद्रास्फीति दर पर पड़ा जो लगभग 4 प्रतिशत से बढ़कर 6 प्रतिशत से अधिक हो गई। इसके तुरंत बाद ही जीडीपी की वृद्धि दर शून्य से
ऋणात्मक 7 प्रतिशत के स्तर तक चली गई हालांकि इसका इससे कोई संबंध नहीं था। ऐसा कोविड-19 और उसके बाद लगाए गए लॉकडाउन के कारण हुआ।
आर्थिक मंदी के पूरे चरण में, जीडीपी वृद्धि दर स्पष्ट रूप से ‘रुझान’ की तुलना में नीचे थी। ऐसे में अब यह स्वाभाविक है कि तेजी के वर्षों के दौरान जो हुआ अब उसका विपरीत होगा। जैसा कि पहले भी देखा गया था कि तेजी के उन वर्षों में बचत दर और निवेश दर बढ़ गई थी।
मंदी के दौरान बचत दर और निवेश दर में कमी आई और इसके बाद फिर से बचत और निवेश दोनों के बदलने से ब्याज दरों पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ा। बचत दर में गिरावट सिर्फ मंदी के कारण नहीं थी बल्कि जिन्हें बचत करने की जरूरत थी उनके लिए बाधा जैसी स्थिति थी और उनके सामने वास्तव में कई संकट थे।
अब तक हमने देखा कि जीडीपी की वृद्धि दर बचत और निवेश को प्रभावित करती है। लेकिन यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती। बचत और निवेश भी सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर को प्रभावित करते हैं। यह दोनों तरह से जारी रहता है। यही कारण है कि जब तेजी आती है तब इसका असर बड़ा होता है और जब मंदी होती है तब भी यह उतना छोटा नहीं होता।
निष्कर्ष के तौर पर, वर्ष 2003-08 की अवधि में बहुत ऊंची जीडीपी वृद्धि कोई सामान्य बात नहीं थी। यह एक ऐसे चक्र का हिस्सा था जिसमें तेजी और मंदी दोनों ही शामिल थी और फिर उसके आगे मंदी जारी रही। इसके साथ ही निजी निवेश की दर में गिरावट आंशिक रूप से चक्रीय है। लेकिन बाकी हिस्से में भी बड़ी गिरावट है।
(लेखक अशोक यूनिवर्सिटी में अतिथि प्रोफेसर हैं। लेख में निखिल वुय्युरु का भी योगदान)