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सियासी समझदारी के साथ देश को दिशा देने वाले राजनेता

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 15, 2022 | 2:48 AM IST

वह 22 मई, 2004 की गर्म शाम थी। एक दिन बाद ही संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार का शपथ ग्रहण होने वाला था। गठबंधन सरकार बनाने और चलाने का कांग्रेस का यह पहला बड़ा दांव था। उस समय तमाम समाचार चैनल अगली सरकार के खाके और संभावित मंत्रियों के नामों पर अटकलबाजी में लगे थे। लेकिन प्रणव मुखर्जी तालकटोरा रोड पर अपने आवास में छोटे से अध्ययन कक्ष में बैठकर गृह मंत्रालय के कामकाज से जुड़ी रिपोर्टों के पन्ने पलटने में मशगूल थे। उनके कुछ दोस्तों ने कहा था कि अगले कुछ घंटों में वह देश के गृह मंत्रालय की कमान संभालने वाले हैं। कश्मीर में एक आतंकी हमला हुआ था और कुछ टेलीविजन चैनल मुखर्जी को अगला गृह मंत्री मानकर उनका साक्षात्कार करने में जुट गए थे। चैनलों ने आतंकी हमलों पर मुखर्जी की प्रतिक्रिया प्रसारित भी कीं।
मगर कुछ ही घंटों में तस्वीर बदल गई। टीवी चैनलों पर मनमोहन सिंह सरकार में शामिल होने जा रहे मंत्रियों के मंत्रालय बताए जाने लगे और मुखर्जी का नाम बतौर रक्षा मंत्री आया। तालकटोरा रोड पर इस घर में मौजूद लोगों को टीवी की स्क्रीन देखकर यकीन ही नहीं हुआ। मुखर्जी के करीबी सहयोगियों को लग रहा था कि रक्षा मंत्रालय वरीयता में गृह मंत्रालय से कमतर है। इसीलिए उनके चेहरों पर हैरत के साथ आक्रोश भी था।
खुद मुखर्जी ने उस समय क्या किया? उन्होंने बदली हुई परिस्थिति के हिसाब से खुद को संभालने में महज 10-15 सेकंड लगाए और अपने सहायक को आदेश दिया, ‘रक्षा सचिव से मेरी बात कराओ।’
प्रणव मुखर्जी उस सरकार में सबसे वरिष्ठ मंत्री थे और जानते थे कि सत्ता के गलियारों की डगर फिसलन भरी है। वहां जो भी मिले, कबूल करना होता है। जो नहीं मिला, उस पर कुढ़ते रहना वक्त की बरबादी थी।
मुखर्जी भले ही प्रधानमंत्री नहीं बन पाए मगर वह राष्ट्रपति यानी देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद तक जरूर पहुंच गए। उन्हें बाद में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से भी अलंकृत किया गया। वह ऐसे नेता थे, जिन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने भी काफी अहमियत दी। वह कांग्रेस के भीतर ऐसे शख्स थे, जिसका मुंह पार्टी विचारधारा पर भ्रम की स्थिति में ताकती थी। ऐसे शख्स, जो ममता बनर्जी को बिल्कुल नहीं सुहाते थे। चंडी पाठ को कंठस्थ करने वाले ऐसे शख्स, जो स्वास्थ्य ठीक रहने तक हर साल अपने गांव की काली पूजा में मौजूद रहते थे। मगर उन्हें कभी यह कहने की जरूरत महसूस नहीं हुई कि हिंदू होने के नाते वह मस्जिद नहीं जाएंगे।
भारतीय राजनीति में बहुत कम नेताओं ने मुखर्जी से अधिक महत्त्वपूर्ण विभाग संभाले होंगे। उन्होंने रक्षा, विदेश और वाणिज्य मंत्रालयों की कमान थामी। मगर उन्हें सबसे ज्यादा पसंद था इंदिरा गांध्ी सरकार में मिला वित्त मंत्रालय का दायित्व। इंदिरा उनकी पसंदीदा नेता थीं, जिन्होंने उन्हें प्रशासनिक कौशल के साथ पार्टी राजनीति संभालने के गुर भी सिखाए थे।
इंदिरा और प्रणव के सियासी रिश्ते के बेशुमार किस्से हैं। इंदिरा की सलाह को नजरअंदाज कर उन्होंने 1980 का लोकसभा चुनाव लड़ा और बुरी तरह हार गए। नतीजों के कुछ घंटे बाद ही इंदिरा ने उन्हें फोन कर कहा, ‘पूरा देश जानता था कि तुम चुनाव नहीं जीतोगे। तुम्हारी पत्नी तक जानती थीं। फिर तुम्हें क्यों लगा कि तुम लोकसभा चुनाव जीत सकते हो?’ इसके बाद मुखर्जी के जवाब का इंतजार किए बगैर झल्लाई हुई इंदिरा ने फोन पटक दिया। दो दिन बाद दिल्ली से एक ओर फोन आया। इस बार इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संयज गांधी फोन पर थे। उन्होंने कहा, ‘मम्मी आपसे बहुत नाराज हैं। लेकिन उन्होंने यह भी कहा है कि प्रणव के बगैर मंत्रिमंडल नहीं बन सकता।’
जब इंदिरा की हत्या हो गई और राजीव गांधी तय नहीं कर पा रहे थे कि प्रधानमंत्री बनें या नहीं तो मुखर्जी को लगा कि वह बाजी मार सकते हैं। जब उनसे यह पूछा गया कि इंदिरा के बाद किसे काम संभालना चाहिए तो उनका जवाब था, प्रधानमंत्री की जगह वित्त मंत्री लेता है। राजीव के सहयोगियों ने कान भरे और उन्होंने मुखर्जी की इस बात को गलत अर्थ में ले लिया। इसके बाद राजीव के प्रधानमंत्री रहते प्रणव का राजनीतिक वनवास ही चलता रहा। हालत यह हो गई कि दिल से कांग्रेसी होने के बावजूद उन्होंने नई सियासी पार्टी बनाने की कोशिश की। हां, कई साल बाद उन्हें पार्टी का नाम भी याद नहीं रह गया था। जब मुखर्जी वित्त मंत्री थे तो भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर ऐनक पहनने वाले एक संकोची सिख यानी मनमोहन सिंह थे। सिंह उसी समय से मुखर्जी को ‘सर’ कहते थे। 2004 में मनमोहन प्रधानमंत्री बन गए और मुखर्जी उनके रक्षा मंत्री थे मगर उन्होंने मुखर्जी को ‘सर’ कहकर पुकारना बंद नहीं किया। बाद में मुखर्जी को ही कहना पड़ा कि उन्हें सर नहीं कहें। कांग्रेस के उच्च पदस्थ सूत्रों के मुताबिक पार्टी की कोर समिति की एक बैठक में मुखर्जी ने मनमोहन से कह दिया कि अगर वह उन्हें ‘सर’ कहना बंद नहीं करेंगे तो वह इन बैठकों में शिरकत करना ही बंद कर देंगे।
कुछ लोगों ने एक बार पीवी नरसिंह राव से भी प्रणव मुखर्जी को बाहर निकालने के लिए कहा था। कुछ ईष्र्यालु नेताओं ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राव को समझाया कि मुखर्जी को फौरन उत्तर प्रदेश का राज्यपाल बना देना चाहिए। ऐसा होता तो मुखर्जी का सियासी करियर खत्म हो जाता। मगर राव ने उनकी पूरी बात सुनने के बाद कहा, ‘हमारे ज्यादातर मतदाता पहले ही मुलायम सिंह यादव के पास चले गए हैं। अगर प्रणव को उत्तर प्रदेश का राज्यपाल बनाते हैं तो उनकी हिंदी सुनकर बाकी वोटर भी भाग जाएंगे।’ कांग्रेस के भीतर प्रणव की बहाली और सियासी मजबूती कई मायनों में नरसिंह राव की ही देन है। इस नींव पर मुखर्जी ने धीरे-धीरे मजबूत इमारत खड़ी की।
मुखर्जी 2004 के लोकसभा चुनावों के लिए गठित कांग्रेस घोषणापत्र एवं चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष थे। उन्होंने विनिवेश पर पार्टी के रुख में स्पष्टता की दरकार बताते हुए पार्टी को लाभ में चल रहे सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण के खिलाफ एकजुट भी किया। मुखर्जी ने कहा था कि कांग्रेस को घरेलू बचत बढ़ाने एवं आयात प्रतिस्थापन के प्रोत्साहन जैसे मसलों पर भी जोर देने की जरूरत है। लोकसभा चुनाव के पहले घोषित आर्थिक घोषणापत्र का आधार बनने वाले अपने एक पत्र में उन्होंने कहा था, ‘ये शब्द गुजरे हुए जमाने की निशानी लग सकते हैं लेकिन मौजूदा आर्थिक परिदृश्य में इनकी अत्यधिक महत्ता है।’ इसके साथ ही उन्होंने पार्टी सहयोगियों से यह सोच त्यागने को भी कहा था कि राज्य अनिश्चितकाल तक सब्सिडी देता रह सकता है। मुखर्जी ने उस पत्र में कहा था, ‘वर्ष 1978-79 में हमारे पास शुद्ध राजस्व अधिशेष की स्थिति थी लेकिन आज ऐसा नहीं है। भले ही भारत की वित्तीय स्थिति 1991 की तुलना में काफी बेहतर है लेकिन अब भी हम राजस्व घाटे में हैं। लिहाजा हमें अपनी प्राथमिकताओं को नए सिरे से ढालने की जरूरत है।’ इसके साथ ही उन्होंने खाद्य सब्सिडी जैसी लक्षित सब्सिडी की वकालत भी की थी।
मुखर्जी ने संप्रग की दूसरी सरकार में वित्त मंत्री के तौर पर कामकाज जब संभाला था तब अर्थव्यवस्था मुश्किल दौर से गुजर रही थी। मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद पी चिदंबरम को गृह मंत्री बनाया गया और जनवरी 2009 में मुखर्जी ने वित्त मंत्रालय का दायित्व संभाला था। उस समय भारत समेत समूची दुनिया वैश्विक वित्तीय संकट से गुजर रही थी। केंद्र सरकार ने हालात संभालने के लिए आयात शुल्कों में कटौती की घोषणा पहले ही कर रखी थी। वित्त मंत्री के रूप में मुखर्जी ने अर्थव्यवस्था में तेजी लाने के लिए सेवा कर में दो फीसदी की कटौती जैसे कई कदम उठाए। आर्थिक वृद्धि लगातार तीन वर्षों तक नौ फीसदी पर रहने के बाद 2008-09 में 6.7 फीसदी पर आ चुकी थी। लेकिन सरकार द्वारा घोषित प्रोत्साहन पैकेज की मदद से भारतीय अर्थव्यवस्था 2009-10 में फिर से 8.4 फीसदी की वृद्धि दर हासिल करने में सफल रही थी।
लेकिन वित्त मंत्री के तौर पर मुखर्जी की खामी यह रही कि वह बढ़ती महंगाई को काबू में नहीं रख सके। उनके कार्यकाल में मुद्रास्फीति उच्च स्तर पर भी रही। इसके अलावा प्रोत्साहन कदमों को समय पर वापस नहीं लिया गया जिससे राजकोषीय घाटा बढ़ता गया।
वैसे मुखर्जी के भीतर काफी कुछ ऐसा था, जिसकी वजह से वह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को भाते थे। भारत का अविभाज्य देश होना, यहां पर राष्ट्रीयताओं या आत्म-निर्णयन का कोई मुद्दा न होने और राज्य पर सवाल उठाने वालों को कुचल दिए जाने वाली उनकी वैश्विक दृष्टि से भाजपा उनके करीब आई। विडंबना की बात है कि खुद मुखर्जी को यह नजरिया इंदिरा गांधी से मिला था। भारत रत्न से सम्मानित इस शख्स ने राष्ट्रपति रहते हुए कई दया याचिकाओं को ठुकराया था। वर्ष 2016 में उन्होंने तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली को बीमा अध्यादेश के मसले पर चर्चा के लिए बुलाया था। भाजपा की अगुआई वाली सरकार इसे अपने पहले बड़े आर्थिक सुधार के तौर पर पेश कर रही थी। मुखर्जी ने कुछ महीने बाद भूमि अधिग्रहण विधेयक के प्रावधानों पर भी सरकार से चर्चा की। जब इस सरकार ने विवादास्पद शत्रु संपत्ति विधेयक के संसद में लटके होने से इस आशय के अध्यादेश को मंजूरी के लिए राष्ट्रपति के पास भेजा था तो मुखर्जी ने अपने कानूनी सलाहकारों से राय लेने के बाद सरकार से इस पर स्पष्टीकरण मांग लिया था। वैसे आखिर में यह मामला सौहार्दपूर्ण ढंग से  निपट गया था और अध्यादेश पर राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर कर दिए। गृह मंत्री राजनाथ सिंह लगभग हर हफ्ते ही उनसे मिलने जाते थे और मुखर्जी की पत्नी के निधन के मौके पर तो वह पूरे दिन उनके पास ही बैठे रहे। भारत फिर कभी प्रणव मुखर्जी जैसा नेता नहीं देख पाएगा।

First Published : August 31, 2020 | 11:02 PM IST