कुछ हफ्ते पहले, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की झारखंड इकाई के प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी ने शिबू सोरेन के गंभीर रूप से बीमार होने की जानकारी मिलने पर बिज़नेस स्टैंडर्ड से कहा था, ‘मैं उनके लंबे और स्वस्थ जीवन के लिए प्रार्थना करता हूं। उन्होंने सार्वजनिक जीवन में बहुत योगदान दिया है और मैं प्रार्थना करता हूं कि वह और भी योगदान दे सकें।’ मरांडी को सोरेन के सबसे कड़वे आलोचकों में गिना जा सकता है और वह अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने लोक सभा चुनाव में उन्हें हराया था।
81 वर्षीय शिबू सोरेन का निधन सोमवार को हो गया और वह अपने पीछे बिरसा मुंडा और जयपाल सिंह मुंडा जैसे नेताओं की लंबी कतार में लोकतांत्रिक राजनीति के माध्यम से आदिवासी सशक्तिकरण की एक विरासत छोड़ गए हैं। यह कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि अगर शिबू सोरेन नहीं होते तब शायद झारखंड का अस्तित्व भी नहीं होता।
झारखंड की अपनी एक मजबूत पहचान है। पहले, इसकी एकजुटता का सबसे बड़ा कारक ‘दिकु’ (बाहरी, गैर-आदिवासी) थे। शुरुआत में झारखंड के आदिवासियों ने मुगल राजवंश और ब्रिटिशों द्वारा उनकी समृद्ध भूमि और घने जंगलों पर कब्जा करने के प्रयासों का विरोध किया। लेकिन जब हिंदू व्यापारी और मुस्लिम किसान यहां आ गए और आधुनिक कानून तथा प्रशासन की व्यवस्था कायम हुई तब आदिवासियों ने खुद को हाशिए पर पाया। ब्रिटिश शासन और उसकी व्यवस्थाओं ने उन्हें दरिद्र बनाने की प्रक्रिया को सहज बना दिया।
भारत की आजादी के बाद भी कुछ खास बेहतर नहीं हुआ। मिशनरी पीछे रहे और आदिवासियों ने अपने हिंदू धर्म और देवताओं के ही रूप को बदलने के प्रयासों का विरोध करना जारी रखा जो उनके आदिवासी नेताओं पर आधारित थे। इससे उन्हें यह अहसास हुआ कि जब तक आदिवासियों की पहचान को एक अद्वितीय पहचान के रूप में मान्यता नहीं मिलती तब तक उनकी स्थिति में सुधार नहीं होगा, इसके लिए उन्हें स्वशासन और अपना खुद का प्रांत चाहिए था।
जयपाल सिंह मुंडा ने झारखंड पार्टी शुरू की और 1954 में उनकी पार्टी के सदस्यों ने भारतीय संघ के भीतर एक अलग झारखंड राज्य के गठन के सवाल पर राज्य पुनर्गठन समिति को पहला ज्ञापन सौंपा। हालांकि, झारखंड पार्टी का वर्ष 1963 में कांग्रेस में विलय हो गया। बाद में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) की शुरुआत 1973 में धनबाद में माओवादी नेताओं के एक समूह ने की थी। इसके महासचिव एक संथाली युवा शिबू सोरेन थे जिन्होंने किशोरावस्था के दौर को बस पार ही किया था।
जब सोरेन ने राजनीति की शुरुआत की थी तब वह वामपंथी विचारधारा के बहुत करीब थे। उनके पिता की हत्या सूदखोरों ने तब कर दी थी जब वह महज 13 साल के थे। सामाजिक कार्यकर्ता, आदिवासियों के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ उनके जोशीले भाषण को याद करते हैं जिसमें वह विकास के नाम पर आदिवासियों के बड़े पैमाने पर विस्थापन और दमनकारी आर्थिक परिस्थितियों के मुद्दे उठाते थे। उस घटना को कवर करने वाले एक पत्रकार याद करते हैं, ‘उस भाषण में उन्होंने कहा था कि झारखंड से चुराए गए संसाधनों का उपयोग बाहरी लोगों के लिए चमकती हुई कॉलोनियां बनाने के लिए किया गया जबकि झारखंड को गरीबी और भूख के अंधेरे में धकेला गया।’लेकिन जैसे-जैसे सोरेन की लोकप्रियता बढ़ी वह वामपंथी राजनीति से दूर होते चले गए। वर्ष 1983 में झामुमो ने खुद को सिर्फ एक ‘मोर्चा’ बनाने के बजाय राजनीतिक संगठन के रूप में स्थापित कर लिया।
बाबूलाल मरांडी जैसे प्रशंसकों के साथ सोरेन के नेतृत्व में एक लंबे और बड़े संघर्ष के बाद वर्ष 2000 में झारखंड बना। सोरेन को मुख्यमंत्री बनने के लिए पांच साल इंतजार करना पड़ा। वर्ष 2005 में वह महज 9 दिनों तक ही मुख्यमंत्री रह पाए क्योंकि उनकी अल्पमत सरकार गिर गई थी। उन्हें वर्ष 2008 और 2009 में फिर से मौका मिला। लेकिन भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया। कुल मिलाकर, जिस राज्य को बनाने में उन्होंने मदद की थी, वह उस राज्य के मुख्यमंत्री महज 300 दिनों से कुछ अधिक समय के लिए ही रहे।
अब राजनीति में झारखंड के आदिवासी उभर रहे थे जिन्होंने अपना करियर झारखंड बनने के बाद शुरू किया था और वे आंदोलन के अर्थ से पूरी तरह वाकिफ नहीं थे। कुछ को यह अहसास हुआ कि दिकु का विरोध करने के बजाय उनका साथ देना अधिक फायदेमंद है। इस सहयोग का एक नतीजा मधु कोड़ा और खदान के पट्टों से जुड़ा घोटाला था। बाद में उनके बेटे हेमंत से जुड़े और भी मामले सामने आए।
सोरेन ने खुद को राष्ट्रीय राजनीति के लिए समर्पित कर दिया था और अपने बेटों और सहयोगियों को झारखंड की कमान संभालने के लिए छोड़ दिया। वह आठ बार लोक सभा सांसद रहे। वह राज्य सभा के सदस्य और केंद्रीय मंत्री भी थे। मरांडी ने बताया, ‘सोरेन की ताकत क्षेत्रीय राजनीति में थी और झामुमो आज भी बस एक क्षेत्रीय पार्टी ही बनी हुई है। सोरेन एक राजनेता से बढ़कर थे। वह सूदखोरों के खिलाफ और झारखंड में पूर्ण शराबबंदी के लिए चलाए गए आंदोलनों के कारण एक समाज सुधारक भी थे।’ सोरेन को उनके अनुयायियों ने लगभग देवता का दर्जा दिया।