आजादी के 61 साल बाद भी कानपुर की जनता अपनी आजीविका के लिए शहर से बाहर जाने को मजबूर है। एक समय था जब कानपुर को ‘पूरब का मैनचेस्टर’ कहा जाता था।
बिहार, पश्चिम बंगाल, पूरे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश राज्यों से लोग कानपुर में रोजी-रोटी कमाने के लिए आया करते थे। लेकिन अब यहां कि आबोहवा बदल चुकी है। यहां के लोग बेहतर रोजगार की तलाश में बड़े शहरों की ओर काफी तेजी से पलायन कर रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि शहर में दिनों-दिन चौपट होते उद्योगों की वजह से ही एक बड़ी संख्या में लोग पलायन करने को विवश हैं।
84 वर्षीय रामबिहारी शहर के सिविल लाइनस इलाके में अकेले रहते हैं। ऐसा नहीं है कि उनका कोई परिवार नहीं है। उनका एक बेटा है जो पिछले 23 सालों से नोएडा की एक कंपनी में काम कर रहा है। अपने बीते दिनों को याद करते वे कहते हैं कि उन्हें उम्मीद थी कि उनका बेटा शहर के सबसे प्रतिष्ठित हरकोर्ट बटलर प्रौद्योगिकी संस्थान (एचबीटीआई) से पढ़ाई करने के बाद वह उन्हीं के साथ रहेगा और कानपुर के किसी उद्योग इकाई में काम करेगा।
रामबिहारी ने बताया, ‘एक समय था जब शहर में व्यवसाय और औद्योगिक गतिविधियां अपने चरम पर थी। लोग कोलकाता जैसे दूर दराज राज्यों से भी नौकरी की तलाश में यहां आया करते थे।’ कपड़ा मिल में काम करने वाले एक व्यक्ति ने बताया कि यहां कि मिलें लाखों लोगों के लिए रोजगार मुहैया करती थी। उस वक्त भी राजधानी लखनऊ ही हुआ करती थी लेकिन अधिकांश प्रमुख औद्योगिक घरानें कानपुर पर ही केंद्रित थी।
यहां के उद्योगों के विनाश का कारण पूछने पर उस बूढ़े व्यक्ति ने आरोप लगाते हुए कहते हैं कि राजनीतिज्ञों की वजह से ही यहां के उद्योग शमशान घाट में तबदील हो गए हैं। रामबिहारी अकेले शख्स नहीं हैं, जिनके परिवार के सदस्यों ने शहर से पलायन किया हो।
एक आंकड़े के मुताबिक शहर के करीब 54 फीसदी मूल निवासी बेहतर भविष्य की तलाश में बड़े शहरों की ओर रूख कर रहे हैं। यहां तक कि शहर के ग्रेजुएट और पोस्ट-ग्रेजुएट छात्र भी अपनी पढ़ाई खत्म करने के साथ ही दिल्ली की ओर कूच करना शुरू कर देते हैं।