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शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य और हम भारत के लोग

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 11, 2022 | 11:40 PM IST

ग्लासगो में आयोजित संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन संबंधी सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जलवायु परिवर्तन को लेकर कम विकसित देशों की चिंताओं को मजबूती से सामने रखा। पश्चिमी देशों के विशुद्ध शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य से लगाव की अपनी वजह हैं लेकिन भारत ने बहुत स्पष्ट तरीके से यह दिखा दिया कि जलवायु परिवर्तन से जुड़े कदमों को समावेशी और समतापूर्ण समृद्धि हासिल करने के प्रयासों से अलग नहीं किया जा सकता है।
‘हमारे साझा ग्रह’ को चुनिंदा जलवायु योद्धाओं के सहारे नहीं देखा जा सकता जहां कुछ अन्य देशों को भुला दिया जाए।  ऐसा करने से जलवायु के मोर्चे पर निष्क्रियता ‘कमजोर के खिलाफ हथियार’ बन जाती है। अगर दुनिया ने बांग्लादेश की स्थापना के बाद से ही उसके जलप्लावित होने की चिंता नहीं की लेकिन अब जबकि वैश्विक तापवृद्धि के कारण अमीरों के पसंदीदा समुद्र तट पानी में डूब रहे हैं, तो भला बांग्लादेश क्यों चिंता करे? एक ठिगना और अल्पपोषित भारतीय बच्चा अपने जीवन में वैश्विक तापवृद्धि से अधिक प्रभावित होगा और स्वस्थ तथा बेहतर पोषण वाले नॉर्वे के बच्चे पर इसका चरणबद्ध असर होगा। हमारे इस साझा ग्रह की चिंताओं को उन बातों तक सीमित नहीं रखा जा सकता है जहां सामूहिक कदमों की जरूरत है क्योंकि इससे अमीरों के बच्चे भी प्रभावित होते हैं।
गत 21 अक्टूबर को भारत ने कहा कि किसी देश द्वारा विशुद्ध शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए वर्ष तय करने के बजाय हमें ‘विशुद्ध शून्य उत्सर्जन तक पहुंचने की राह’ तलाश करने की जरूरत है। इसकी अनदेखी कर दी गई क्योंकि जलवायु परिवर्तन से लडऩे वाले और अमीर देशों को रास्ते की परवाह ही नहीं है। अपने ही गरीब और नि:शक्त नागरिकों के प्रति उनका व्यवहार इसका गवाह है। यही वजह है कि जलवायु विज्ञान में ऊर्जा पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है। ऊर्जा एक मध्यवर्ती वस्तु है। इसका इस्तेमाल स्कूल में उजाला करने में भी हो सकता है और वेश्यालय में भी। अगर ऊर्जा का स्रोत नवीकरणीय हो तो अमीर इसके इस्तेमाल को लेकर लापरवाह रहते हैं। परिणामस्वरूप, ग्रामीण ब्रिटेन के कई हिस्सों में रविवार को सार्वजनिक परिवहन ठप रहता है। यानी जिनके पास कार है, केवल वही बाहर निकल पाते हैं। अगर कारें इलेक्ट्रिक हैं तो विशुद्ध शून्य उत्सर्जन की दृष्टि से कोई दिक्कत नहीं है। ग्रामीण यूरोप के लिए कार बहुत बुनियादी जरूरत है जब तक लोग इलेक्ट्रिक कार को नहीं अपना लेते हैं किसी को बिना कार वाले लोगों की परवाह नहीं है। ऊर्जा के इस्तेमाल में बदलाव को इस बदलाव के रास्ते के चयन से अलग कर दिया गया है।
भारत खुशकिस्मत है क्योंकि उत्पादकता और समता बढ़ाने से जुड़ा लगभग हर कदम कार्बन उत्सर्जन कम करने वाला होगा। हाथ से गंदगी साफ करना, खुली कोयला खदानें, पानी की ज्यादा खपत वाली हरित क्रांति आधारित कृषि तथा ऐसी अनेक गतिविधियां लाखों नागरिकों को कम मेहनताने वाले रोजगार के भरोसे छोड़ देती हैं। इन कामों को अधिक उत्पादक तरीके से करने मसलन जीरो बजट प्राकृतिक खेती, जैव विविधता से जुड़ी गतिविधियां और बेहतर सफाई आदि की मदद से उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है तथा कार्बन उत्सर्जन कम किया जा सकता है। लेकिनऐसे बदलाव के लिए वित्तीय सहायता चाहिए। इस मोर्चे पर अमीर देश बहुत स्वार्थी हैं।
अमीर देशों में संपत्ति बुजुर्गों के पास रहती है, न कि युवाओं के पास। परिसंपत्ति स्वामित्व के पैमाने पर देखें तो अमीर देशों में 40 से कम उम्र के लोग सन 1930 के बाद इस आयुवर्ग के सबसे गरीब हैं। बुजुर्गों के पास काफी बचत है और वे उसके प्रतिफल पर गुजारा करते हैं। भारत जैसे युवा आबादी वाले देशों में प्रतिफल अधिक है। ऐसे में तार्किक रूप से तो अमीर से गरीब देशों की ओर ही वित्तीय सहायता आनी चाहिए ताकि उत्पादकता बढ़े और जलवायु परिवर्तन को लेकर समुचित बदलाव किए जा सकें। ध्यान रहे कि यह दलील मदद के लिए नहीं है बल्कि इसका वाणिज्यिक गुणा गणित भी है जो उस स्थिति में अत्यधिक मूल्यवान साबित हो सकता है जब इसमें निहित सार्वजनिक हित का मूल्यांकन किया जाए क्योंकि लोग लगातार कार्बन क्रेडिट और कार्बन कर की बात कर रहे हैं।
परंतु पुराने अमीर इस मोर्चे पर विफल हैं। वे सुरक्षित और कम प्रतिफल वाले निवेश को प्राथमिकता देते हैं, न कि जलवायु और उत्पादकता को। वैश्विक वित्तीय प्रणाली और पश्चिमी सरकारें इस नाकामी में सहभागी हैं। भारत का यह कहना सही है कि इस नाकामी के कारण विशुद्ध शून्य लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती।
प्रधानमंत्री ने ग्लासगो में जो भाषण दिया उसमें हमारे देश में आत्मावलोकन को लेकर भी गंभीर सवाल उठाए गए। सन 1991 के बाद हुई वृद्धि असमानता से भरी रही है लेकिन बीते पांच वर्षों में अर्थव्यवस्था में मंदी आने के बावजूद असमानता में इजाफा जारी रहा है। मैंने बार-बार कहा है कि सन 1991 में शुरू हुई भारत की विकास गाथा समाप्त हो चुकी है और हमें समावेशी रूप से समृद्धि हासिल करने के नए तरीके तलाश करने होंगे। इसमें अहम नीतिगत लेनदेन शामिल है। उदाहरण के लिए हाइड्रोजन की शक्ति से चलने वाला रेल नेटवर्क होने से परिवहन की उत्पादकता बढ़ेगी और आने वाले कल के हाइड्रोजन उत्पादकता समृद्ध होंगे। ये वे लोग हैं जिनके पास इस तकनीक में निवेश के लिए पैसे हैं और वे आज के जीवाश्म ईंधन के बड़े कारोबारी हैं। यह तब तक सही है जब तक आप यह न पूछें कि रेल परिवहन किसके लिए? यदि इसका उत्तर और पूर्वी भारत के प्रवासी श्रमिक हैं तो यह उसी पुरानी असमानता को बढ़ाने का काम करेगा। उत्तर और पूर्वी भारत में वैकल्पिक पर्यावरण अनुकूल गतिविधियों के कारण रेल परिवहन की मांग में कमी आएगी और कार्बन उत्सर्जन घटेगा। इसके साथ ही देश में समता और समृद्धि बढ़ेगी। शुष्क इलाकों और प्राकृतिक खेती में निवेश करने से लाखों टन अनाज को पंजाब से देश के अन्य हिस्सों में ले जाने से राहत मिलेगी। इससे समता बढ़ेगी और पंजाब की पारिस्थितिकी और कार्बन उत्सर्जन के क्षेत्र में सुधार होगा।
ऐसे में कहा जा सकता है कि भारत ने ग्लासगो में विशुद्ध शून्य उत्सर्जन लक्ष्य हासिल करने की राह के बारे में जो बातें कहीं वे महत्त्वपूर्ण हैं। उत्पादन के मामले में समावेशी और असमानता कम करने वाले विकल्प अपनाना, सामाजिक समता बढ़ाना, विभिन्न क्षेत्रों में असमानता कम करना और कार्बन उत्सर्जन में कमी लाना आदि महत्त्वपूर्ण बातें हैं। यदि हम सफलतापूर्वक इस दिशा में बढ़ सकते हैं तो निस्संदेह हम भारत के लोग 2070 से पहले विशुद्ध शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य तक पहुंच जाएंगे। परंतु अगर हम ऐसा नहीं कर पाए लेकिन हमने अमीरों को इलेक्ट्रिक कार मुहैया कराने और कोयला आधारित बिजली की जगह सौर ऊर्जा को अपनाने का काम किया तो हम अपने साझा ग्रह को बचा तो लेंगे लेकिन अपने ही देश की भविष्य की पीढिय़ों के समक्ष हम विफल माने जाएंगे।
(लेखक ओडीआई, लंदन के प्रबंध निदेशक हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)

First Published : November 9, 2021 | 11:32 PM IST