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उत्सर्जन कम करने के प्रयास में अड़चनें क्यों?

तकनीकी बाध्यताएं और नीतियों में विसंगतियां उत्सर्जन कटौती के रास्तों में विकट चुनौतियां खड़ी करती रही हैं। इस बारे में विस्तार से बता रहे हैं अजय श्रीवास्तव

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अजय श्रीवास्तव   
Last Updated- December 15, 2023 | 8:24 AM IST

दुबई में कॉप28 सम्मेलन के दौरान जलवायु पर आधारित चर्चाएं पृथ्वी के तापमान में वृद्धि को शताब्दी के अंत तक पूर्व औद्योगिक (1850-1900) औसत 13.9 डिग्री से​ल्सियस से 1.5 डिग्री से​ल्सियस नीचे सीमित रखने के लक्ष्य पर केंद्रित रहीं। यह लक्ष्य इससे पहले 2015 में पेरिस समझौते में निर्धारित किया गया था, जिसे जलवायु परिवर्तन के कुछ सबसे अ​धिक विनाशकारी प्रभावों को रोकने के लिए आवश्यक समझा जाता है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए तमाम देशों को अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में भारी कटौती करनी होगी।

जलवायु मॉडल से पता चलता है कि वै​श्विक तापमान 1.4 डिग्री से​ल्सियस बढ़ चुका है। ये मॉडल इस ओर साफ संकेत करते हैं ​कि यदि हमने उत्सर्जन कम नहीं किया तो सन 2100 तक यह तीन डिग्री से​ल्सियस तक बढ़ जाएगा। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन जो 1970 में 14.5 अरब टन था, वह 2022 आते-आते 53.8 अरब टन हो गया। तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री से​ल्सियस से नीचे रखने के लिए हमें 2030 तक उत्सर्जन को 42 फीसदी कटौती कर लगभग 22 अरब टन तक लाने की जरूरत होगी।

उत्सर्जन कटौती का लक्ष्य हासिल करने में अंतरराष्ट्रीय जलवायु प्रस्तावों की गैर बाध्यकारी प्रकृति, सौर और पवन ऊर्जा की तरफ मुड़ने के रास्तों में खड़ी चुनौतियां और जीवाश्म ईंधन को विकसित देशों से लगातार मिल रहे वित्तीय सहयोग जैसी अनेक अड़चनें हैं:

क्योटो से दुबई तक: पिछले पांच दशकों में वै​श्विक जलवायु प्रयासों से जागरूकता तो बहुत आई है, परंतु उत्सर्जन कटौती के स्तर पर व्यावहारिक परिणाम उतने नहीं मिले हैं। यह यात्रा 1972 में पर्यावरण संरक्षण के लिए पहली महत्त्वपूर्ण वै​​श्विक पहल के तौर पर संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की स्थापना के साथ शुरू हुई थी।

पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ाने में यूएनईपी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन इस संस्था के संकल्पों की गैर-बाध्यकारी प्रकृति के कारण उत्सर्जन कटौती में इसका प्रभाव बहुत ही कम रहा। यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज ने 1995 में बर्लिन में कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टी के नाम से विख्यात कॉप1 ​सम्मेलन के साथ वा​र्षिक सम्मेलनों की लंबी श्रृंखला प्रारंभ की। इन सम्मेलनों का उद्देश्य जलवायु परिवर्तन की तरफ विश्व का ध्यान आकृष्ट करना और एक फलदायी कार्रवाई प्रारंभ करना था।

हालांकि देशों को ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करने के लिए बाध्य करने में यह शुरुआती कॉप बैठक बहुत अ​धिक सफल नहीं रही। 1997 में क्योटो प्रोटोकॉल पर 192 देशों ने हस्ताक्षर किए थे। इस सं​धि में मुख्य रूप से विकसित देशों के लिए उत्सर्जन कटौती के अनिवार्य लक्ष्य निर्धारित किए गए थे। हालांकि उस समय सबसे बड़े उत्सर्जकों में से एक अमेरिका के आ​र्थिक चिंताओं का हवाला देकर 2001 में पीछे हटने से क्योटो प्रोटोकॉल की प्रभावशीलता बहुत बुरी तरह प्रभावित हुई।

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव कम करने की दिशा में एक नया अध्याय शुरू करते हुए 2015 में पेरिस समझौता अमल में आया, जिस पर 196 देशों ने हस्ताक्षर किए। इसका लक्ष्य वै​श्विक तापमान में वृद्धि को पूर्व औद्योगिक स्तर से 2 डिग्री से​ल्सियस नीचे विशेषतौर पर 1.5 डिग्री से​ल्सियस से नीचे लाना था।

इस समझौते ने राष्ट्रीय दृढ़ता योगदान (एनडीसी) की शुरुआत की, जिसके तहत देश अपनी उत्सर्जन योजना का खाका पेश करते हैं। इसके बावजूद, एनडीसी की स्वै​च्छिक प्र​कृति की वजह से तापमान कम करने का महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य हासिल करने में उनकी पर्याप्तता के बारे में संदेह पैदा हो गया। कॉप28 ने 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा को तीन गुना करने का आह्वान किया है। इस पर 118 देश सहमत हुए, जबकि भारत, चीन, रूस, सऊदी अरब समेत कई देश इससे अलग रहे।

ऊर्जा परिवर्तन की चुनौतियां: वै​श्विक ऊर्जा परिदृश्य में पूरी तरह विरोधाभास है। नवीकरणीय ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ा है, परंतु कुल ऊर्जा खपत में भी वृद्धि हुई है। परिणामस्वरूप, जीवाश्म ईंधन का अ​धिक उपयोग हो रहा है। इससे जलवायु परिवर्तन शमन प्रयासों को धक्का लगा है, क्योंकि कुल ऊर्जा मांग बढ़ने के कारण जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल कम करने की योजना बा​धित होती है। इन हालात से निपटने के लिए नवीकरणीय ऊर्जा इस्तेमाल बढ़ाने, व्यापक तौर पर ऊर्जा दक्षता योजना को लागू करने एवं खपत कम करने के उपाय अपनाने की जरूरत है।

जीवाश्म ईंधन से निर्भरता कम कर नवीकरणीय ऊर्जा की तरफ बढ़ना बड़ी चुनौती है। नवीकरणीय ऊर्जा का बड़ा स्रोत जल विद्युत ऊर्जा को वन्यजीव और जल बंटवारा जैसी पर्यावरणीय चिंताओं के साथ-साथ डैम बनाने के लिए उपयुक्त जगह तलाशने में आने वाली दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।

चर्चाओं से महत्त्वपूर्ण बिंदु नदारद: खासतौर पर सौर अथवा पवन ऊर्जा पर पावरग्रिड संचालित करने के लिए अभी तक तकनीक उपलब्ध नहीं है। नवीकरणीय ऊर्जा को 20-30 प्रतिशत तक तो नियमित ऊर्जा यानी बिजली में मिश्रित करना आसान है, लेकिन इससे अ​धिक हिस्सेदारी बढ़ाने पर कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। सौर एवं पवन ऊर्जा की प्रकृति को देखते हुए ऊर्जा उत्पादन में उतार-चढ़ाव की ​ स्थिति से निपटने को इसके भंडारण की पुख्ता व्यवस्था करनी होगी। नवीकरणीय ऊर्जा का अ​धिक उत्पादन करने के साथ पावरग्रिड की ​ स्थिरता को बनाए रखने के लिए मौजूदा बुनियादी ढांचे को अपग्रेड करने की आवश्यकता है। ग्रिड के आधुनिकीकरण एवं इसे नई प्रौद्योगिकी से लैस करने के लिए भी पर्याप्त निवेश चाहिए।

अ​धिक ऊर्जा खपत वाले स्टील और ट्रकिंग जैसे भारी उद्योगों के लिए सौर एवं पवन ऊर्जा कारगर नहीं हैं। ग्रीन हाइड्रोजन प्रौद्योगिकी के भारी-भरकम आयात बिल चिंता का विषय हैं, क्योंकि सौर ऊर्जा संयंत्र स्थापित करने के लिए अधिकांश उपकरण चीन से आते हैं।

विकसित बनाम विकासशील: विकसित देश रिकॉर्ड 89 फीसदी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का कारण हैं। इन देशों ने 2020 में जीवाश्म ईंधन उद्योग को लगभग 1.8 लाख करोड़ डॉलर की सब्सिडी उपलब्ध कराई थी। अमेरिका आ​​र्थिक कारणों का हवाला देकर 2020 में पेरिस जलवायु सं​धि से पीछे हट गया था, लेकिन 2021 में वह फिर इसमें शामिल हो गया। इस कदम से उसकी जलवायु नीतियों में असंगतता का संकेत मिलता है।

असमानता उजागर करती ऑक्सफैम की रिपोर्ट: सबसे अ​धिक अमीर एक फीसदी देशों के कार्बन फुटप्रिंट सबसे गरीब 66 फीसदी की तुलना में बहुत अ​धिक हैं। जब तक विकसित देश उत्सर्जन में पर्याप्त कटौती नहीं करते हैं तब तक वै​श्विक उत्सर्जन में कमी नहीं लायी जा सकती।

भारत का दृ​ष्टिकोण: भारत अपने महत्त्वपूर्ण जलवायु लक्ष्यों के प्रति काफी प्रतिबद्ध दिखता है। इनमें 2030 तक गैर जीवाश्म ईंधन से 50 फीसदी ऊर्जा उत्पादन करना, उत्सर्जन सघनता में 2005 से अब तक 45 फीसदी की कमी लाना एवं 2070 तक उत्सर्जन को शून्य बिंदु पर लाना जैसे लक्ष्य शामिल हैं। अपने जलवायु प्रयासों को और अ​धिक गंभीरता से लागू करने के लिए भारत निम्नलि​खित चार कार्ययोजनाओं पर विचार कर सकता है।

  1. भारत हरित ऊर्जा अपनाने की दिशा में किए जा रहे प्रयासों को जारी रखे। मध्यम आय वाला देश बनने के लिए भी भारत को सस्ती ऊर्जा की आवश्यकता है। भारत पहले से ही अमेरिका और चीन जैसे देशों के मुकाबले प्रति व्य​क्ति कम उत्सर्जन कर रहा है।
  2. भारत को विविध दृ​ष्टिकोण अपनाते हुए अपने यहां आवास की कमी, जैव विविधता में गिरावट और जल संकट जैसे मुद्दों के समाधान के लिए जलवायु कार्रवाई के दायरे को व्यापक करना होगा। धरती के स्थायित्व के लिए नेट जीरो जैसे लक्ष्य बहुत ही छोटे हैं।
  3. अभी प्रभावी प​श्चिमी नजरिये से आगे बढ़ते हुए भारत को उच्च गुणवत्तापूर्ण जलवायु अनुसंधान क्षेत्र में निवेश बढ़ाना होगा। नोबेल विजेता समेत कई विशेषज्ञ उत्सर्जन को ग्लोबल वार्मिंग से जोड़ने और इसे लेकर दहशत पैदा करने वाले नजरिये से सहमत नहीं हैं।
  4. व्यावहारिक जलवायु रणनीतियां विकसित करने और उन्हें अपनाने एवं हरित ऊर्जा की तरफ यथार्थवादी परिवर्तन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए तकनीक-प्रेमी विशेषज्ञों की सेवाएं ली जानी चाहिए।

विकास की जरूरतों एवं जलवायु लक्ष्यों के बीच संतुलन बनाते हुए भारत को अपने रास्ते पर चलना होगा। इस दिशा में आने वाली वास्तविक अड़चनों को पहचान कर उन्हें समय रहते दूर करने से ही व्यावहारिक परिणाम हासिल होंगे।

(लेखक जलवायु परिवर्तन, प्रौद्योगिकी और व्यापार मुद्दों पर केंद्रित शोध समूह ‘ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनि​शिएटिव’ के संस्थापक हैं)

First Published : December 15, 2023 | 8:24 AM IST