राष्ट्रीय कंपनी लॉ पंचाट (एनसीएलटी) ने दीवान हाउसिंग फाइनैंस कॉर्पोरेशन लिमिटेड (डीएचएफएल) के कर्जदाताओं को कंपनी के पूर्व प्रवर्तक कपिल वधावन की पेशकश पर विचार करने को कहा है जो बेतुका प्रतीत होता है। यह अनपेक्षित बदलाव उस समय आया है जब कर्जदाताओं की समिति और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) महीनों पहले ही डीएचएफएल को अधिग्रहीत करने के पीरामल समूह के प्रस्ताव को मंजूरी दे चुके हैं। वधावन इस समय धन शोधन और बैंकों के फंड के बेजा इस्तेमाल के आरोपों में जेल में हैं। उन्होंने पहले यह पेशकश की थी कि वह एक विशिष्ट अवधि में कर्जदाताओं को 91,158 करोड़ रुपये का बकाया मूलधन चुका देंगे। पीरामल समूह की योजना के अनुसार कर्जदाता 35,250 करोड़ रुपये वापस पा सकेंगे। इसकी तुलना में वधावन की पेशकश यकीनन आकर्षक नजर आएगी। बहरहाल, ऐसी कई वजह हैं जिनके चलते कर्जदाताओं और बैंकिंग नियामक को इस मसले पर रुख कड़ा रखना चाहिए।
डीएचएफएल का मामला नवंबर 2019 में एनसीएलटी गया था क्योंकि वह अपने कर्ज चुकाने में नाकाम रही थी। बाद में जांच से पता चला कि उसके बही खातों में 15,000 करोड़ रुपये का अंतर था। वधावन की पेशकश के बावजूद कर्जदारों ने पीरामल समूह को चुना। इससे पहले तीन अन्य कंपनियों के बीच जमकर बोली लगी। इस परिदृश्य में एनसीएलटी को पूर्व प्रवर्तक की याचिका खारिज कर अंतिम निस्तारण में अनावश्यक देर नहीं होने देनी चाहिए थी। ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) की धारा 29ए पुराने प्रवर्तकों को निस्तारण प्रक्रिया में हिस्सा लेने से रोकती है। यही कारण है कि एनसीएलटी के अहमदाबाद पीठ ने एस्सार स्टील के प्रवर्तक रुइया परिवार की निस्तारण की पेशकश को खारिज कर दिया था। इस निर्णय ने आर्सेलरमित्तल के कंपनी का अधिग्रहण करने की राह आसान की। कंपनी अधिनियम प्रवर्तकों को यह अधिकार देता है कि कर्जदाताओं के साथ समझौते की व्यवस्था कर सकें लेकिन इसके लिए निस्तारण प्रक्रिया से बाहर होना होगा। इस मामले में यह कदम उठाने की कोई वजह नहीं है। इसके अलावा डीएचएफएल को एनसीएलटी के पास आरबीआई ने भेजा था, ऐसे में निस्तारण प्रक्रिया में देरियों और प्रक्रिया को उलटने के व्यापक प्रभाव के बारे में विचार करना होगा।
वित्तीय कदाचार के आरोपित व्यक्ति को कंपनी वापस देने का विचार तत्काल खारिज होना चाहिए। इससे आईबीसी की प्रक्रिया को स्थायी क्षति पहुंच सकती है। कंपनी अधिनियम के प्रस्तावों का इस्तेमाल शायद अपवाद स्थितियों में होना चाहिए ताकि नकदीकरण से बचा जा सके। प्रवर्तकों की सदिच्छा के बावजूद कंपनियां डिफॉल्ट हो सकती हैं। यदि कर्जदाता तयशुदा नियमन के अधीन प्रवर्तकों के साथ संबद्धता के लिए तैयार हों तो एनसीएलटी जाने से बचा जा सकता है। परंतु डीएचएफएल पर यह बात लागू नहीं होती। आरबीआई नहीं चाहेगा कि ऐसी छवि बने जिसमें बैंकों को धोखा देना और डिफॉल्ट करने वाली गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों का नियंत्रण हासिल करना आसान है। इससे वित्तीय स्थिरता को जोखिम हो सकता है। इसी प्रकार कर्जदाता समिति नहीं चाहेगी कि किसी ऐसी बात को प्रोत्साहन दिया जाए जो दीर्घावधि में उसके हितों के खिलाफ हो। उन्हें मौजूदा निस्तारण प्रक्रिया के साथ आगे बढऩा चाहिए। यदि एनसीएलटी इसे स्वीकार नहीं करता तो कर्जदाता समिति को अपील पंचाट का रुख करना चाहिए।
इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय अतीत में कह चुका है कि कर्जदाता समिति के वाणिज्यिक निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए। आईबीसी हाल के वर्षों के सबसे बड़े सुधारों में से एक है। उससे आशा की जाती है कि वह तनावग्रस्त परिसंपत्ति का निस्तारण करे जिससे समग्र उत्पादकता में सुधार हो और ऋण की संस्कृति बेहतर हो। निस्तारण में देरी से यह उद्देेश्य पीछे छूट सकता है। ऐसे में सभी अंशधारकों के लिए यह आवश्यक है कि वे यह सुनिश्चित करें कि प्रक्रिया में अनावश्यक देरी न हो। डीएचएफएल मामले में इस विचलन से बचा जाना चाहिए था।