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ट्रंप के टैरिफ ने भारत की रूस-चीन नीति पर उठाए सवाल, क्या गलत थे हमारे आकलन?

यूरोप, जापान, कनाडा और खासकर चीन चाहे जितना डरें; भारत ट्रंप के कार्यकाल के लिए तैयार था। बता रहे हैं मिहिर शर्मा

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मिहिर एस शर्मा   
Last Updated- August 19, 2025 | 9:56 PM IST

भारत में कई ऐसे लोग हैं जो चाहेंगे कि हम यह भूल जाएं कि गत वर्ष डॉनल्ड ट्रंप के दोबारा अमेरिका का राष्ट्रपति चुने जाने पर वे कितने खुश और उत्साहित थे। शेष विश्व भले ही उनके धैर्य की कमी, उनकी अजीब आर्थिक सोच और अमेरिका के मित्रों के साथ संबंध खराब करने के उनके विचारों को लेकर चिंतित रहा हो, लेकिन भारत में हमें ये लोग कुछ और ही बता रहे थे। हमें भरोसा था कि हम ट्रंप के युग में आगे निकलेंगे। शायद हमें लगा था कि हमें ऐसे नेताओं से निपटना आता है जिनकी आर्थिक नीतियां समस्याग्रस्त होती हैं?

शायद हमने यह कल्पना की थी कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों को लेकर उनकी नैतिकता-विहीन सोच हमारे जैसी ही है? या फिर शायद हमें बस यह यकीन था कि जो लोग उन्हीं लोगों को नापसंद करते हैं जिन्हें हम करते हैं – जैसे उदारवादी वगैरह – वो अंतरराष्ट्रीय मामलों में ‘हमारी तरफ’ ही होंगे, डेमोक्रेट्स की तुलना में कहीं ज़्यादा। यूरोप, जापान, कनाडा और खासकर चीनचाहे जितना डरें; भारत ट्रंप के कार्यकाल के लिए तैयार था।

अब हमें ठीक-ठीक पता चल चुका है कि उस आत्मविश्वास की कीमत क्या थी। भारत शायद इस व्यापारिक अस्थिरता के दौर से इस तरह उबर पाए कि अमेरिका की ओर से मिलने वाली टैरिफ दरें और छूट सूची कुछ भारतीय निर्यातकों को टिके रहने का मौका दे सके। लेकिन इस समय यह संभावना कम ही है कि हम उतनी सहजता से उबर पाएंगे जितना अमेरिका के पुराने सहयोगी (जैसे ब्रिटेन) या हमारे दक्षिण-पूर्व एशिया के पड़ोसी और समकक्ष देश, जिन्होंने 19 या 20 फीसदी की टैरिफ दरों के साथ हालात का सर्वश्रेष्ठ तरीके से इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। भारतीय अधिकारी फिलहाल यह सोच रहे हैं कि हमारे लिए टैरिफ दरों को 50 फीसदी से घटाकर 25 फीसदी तक कैसे लाया जाए।

दुर्भाग्यवश, वही कुछ अविश्वसनीय आवाज़ें जिन्होंने पहले ट्रंप के नज़रिये में भारत की स्थिति को लेकर अत्यधिक आशावादी रुख अपनाया था, अब सबसे जोर से यह कह रही हैं कि ट्रंप की टिप्पणियां अपमानजनक, साम्राज्यवादी और असहनीय हैं। ट्रंप की कोई भी आलोचना संभवतः सटीक और न्यायसंगत ही होगी। लेकिन, जैसा कि यूरोप से लेकर उत्तर-पूर्वी एशिया तक के नेताओं ने समझ लिया है, वह आलोचना अब अप्रासंगिक हो चुकी है। निश्चित रूप से उन्हें अपने प्रिय जुनून के प्रति कुछ रियायतें देनी होंगी, खासकर व्यापार के मामले में। दुनिया जैसी है वैसी ही रहेगी, और ट्रंप जैसे हैं वैसे ही रहेंगे — बाकी हम सबको उनके इर्द-गिर्द काम करना होगा और उन्हें जितना संभव हो नजरअंदाज़ करना होगा, उनके उकसावे पर प्रतिक्रिया देने की आवश्यकता नहीं है।

ऐसा लगता है कि हममें से कुछ (जिनमें से कई वही हैं जिन्होंने ट्रंप के पद संभालने का स्वागत किया था) अब यह मान चुके हैं कि उनके बयानों का मतलब यह है कि हमारे राष्ट्रीय हितों, बल्कि हमारी सभ्यतागत गरिमा की रक्षा के लिए हमें अपना रुख मजबूती से रूस की ओर मोड़ देना चाहिए। यह सोच कुछ अरब डॉलर सालाना की तेल बचत हासिल करने की कोशिश में अमेरिका और पश्चिम से होने वाले कई अरब डॉलर के व्यापार को दरकिनार कर देती है।

यह तर्क दिया जाता है कि फ्रांस से लेकर इंडोनेशिया तक के देश राष्ट्रपति ट्रंप के उकसावे को नजरअंदाज कर सकते हैं और अमेरिका से निपटने का कोई रास्ता निकाल सकते हैं, लेकिन भारत को ऐसा नहीं करना चाहिए। यह सही है कि अगर देशों को कुछ दर्द बरदाश्त करना पड़े तो वे ऐसा कर सकते हैं। अगर यह वैसे ही मौकों में से एक मौका है तो बात अलग है।

याद रहे कि परमाणु परीक्षणों के बाद भारत को अपने दीर्घकालिक हितों के बचाव के लिए कुछ हद तक निजीकरण करना पड़ा था। बहरहाल, जो प्रवृत्तियां ट्रंप के दोबारा आगमन को लेकर अत्यधिक उत्साहित थीं, वही अब कहीं हमें अलगाव के रास्ते पर तो नहीं ले जा रही हैं। हमने बीते कुछ सालों का जिस तरह प्रबंधन किया है, उसे देखने का एक और तरीका है। हमने तय किया कि यूक्रेन पर रूसी हमले से हमारा कोई लेनादेना नहीं है और हम कुछ सस्ता तेल खरीदकर यह समझने लगे कि इससे हम कैसे कुछ पैसे बचा सकते हैं।

अधिकारियों का अनुमान था कि ‘राष्ट्रीय हित’ में लिया गया यह निर्णय कभी भी किसी ऐसे कदम की ओर नहीं ले जाएगा जो भारत जैसे महत्त्वपूर्ण और अपरिहार्य राष्ट्र को वास्तव में असुविधा में डाल सके। लेकिन अब जब पश्चिमी देशों के नेता द्वारा ऐसे असुविधाजनक कदम उठाए जा चुके हैं, या कम से कम गंभीर धमकी दी जा चुकी है, तो हमारे सामने दो विकल्प हैं: या तो हम स्वीकार करें कि 2023 में हमारे राष्ट्रीय हित के आकलन गलत थे, या फिर हम और अधिक अड़ जाएं और यह जोर दें कि राष्ट्रीय हित की रक्षा के लिए हमें अपने करीबी मित्र रूस का रुख करना चाहिए और चीन में अपने विश्वसनीय सहयोगियों को भी गले लगाना चाहिए। आपको कौन सा तरीका ज़्यादा तर्कसंगत और राष्ट्रीय हित के अनुकूल लगता है?

First Published : August 19, 2025 | 9:49 PM IST