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संचालन के क्षेत्र में अहम है समय पर प्रतिक्रिया

खराब संचालन पर की जाने वाली टिप्पणियां अक्सर अपराधों पर केंद्रित होती हैं लेकिन आततायी प्राय: गलत इरादे नहीं दर्शाते हैं। विस्तार से बता रहे हैं आर गोपालकृष्णन

Published by
आर गोपालकृष्णन
Last Updated- January 17, 2023 | 9:32 PM IST

जब भी संचालन के स्तर पर कोई गड़बड़ी सामने आती है तो आम जनता की नजर इस बात पर जाती है कि गड़बड़ क्या हुई और इसकी प्रतिक्रिया देने में कितना वक्त लगाया गया। संचालन से जुड़ी टिप्पणियां आमतौर पर अपराधों पर केंद्रित रहती हैं और इन्हें अक्सर बहुत गंभीर प्रकृति के रूप में पेश किया जाता है। यूनाइटेड किंगडम में कैडबरी समिति की अनुशंसा, अमेरिका में सर्बेंस-ऑक्सली अधिनियम और भारत में सेबी के नियमनों के बावजूद संचालन संबंधी गड़बड़ियां होती ही रहती हैं। शायद इसके लिए कुछ ऐसे पहलू जिम्मेदार हैं जो नियमन और तर्कों से परे हैं।

आमतौर पर उल्लंघन करने वालों को गलत दृष्टि के साथ काम करने वाले षडयंत्रकारी के रूप में चित्रित किया जाता है। कुछ मामलों में यह बात सही हो सकती है लेकिन कुछ अन्य मामलों में यह बात संदेहास्पद भी होती है। कुछ वास्तव में गलत इरादे दिखाते हैं लेकिन कई उदाहरण ऐसे भी हैं जहां एक शुरुआती गलती को छिपाने की कोशिश में गलतियों का एक पूरा चक्र देखने को मिलता है। अक्सर गलत इरादे को संलिप्तता से अलग करना आसान नहीं होता है बल्कि यह काफी पेचीदा काम होता है।

सन 1999-2000 के टाटा फाइनेंस के प्रकरण में क्या दिलीप पेंडसे ने जानबूझकर गड़बड़ी की थी? कई जानकारों का मानना है कि उन्होंने अपनी महत्वाकांक्षा में एक सौदे को हद से ज्यादा आगे खींच दिया और उसके बाद उस गलती को सुधारने की कोशिश में उन्होंने एक के बाद एक कई ऐसे सौदे किए जिन्हें समझदारी भरा नहीं कहा जा सकता है। आखिरकार पूरा मामला उनके नियंत्रण से निकल गया। चाहे जो भी हो प्रतीत यही हुआ कि उन्होंने गलत इरादे से काम किया।

सन 2008 के सत्यम कंप्यूटर्स मामले और रामलिंगा राजू के बारे में भी यही बातें कही गईं। उन्हें जानने वाले इन्फोटेक पेशेवर इस बात पर जोर देते हैं कि वह कोई धोखेबाज नहीं थे। गरीबी से निकलकर समृद्धि हासिल करने की उनकी कहानी एकदम सच्ची थी। बहुत संभव है कि किसी न किसी मोड़ पर उनकी महत्वाकांक्षा उनकी पकड़ से बाहर निकल गई और वह अचल संपत्ति के ऐसे सौदे करने लगे जिन्होंने उनकी नैया डुबा दी।

2019 का कैफे कॉपी डे का प्रकरण आपको याद ही होगा जिसमें उसके संस्थापक वी जी सिद्धार्थ ने आत्महत्या कर ली थी। वह मामला भी कुछ हद तक सत्यम जैसा ही था। ऐसी तमाम दास्तान का अध्ययन करें तो यही पता चलता है कि संबंधित व्यक्ति के आसपास मौजूद लोगों ने उस व्यक्ति के व्यवहार में कुछ बदलाव तो दर्ज किया लेकिन उन्होंने उस बदलाव को कोई संकेत नहीं समझा। मैं इन्हें अग्रिम संकेत कहना पसंद करता हूं। ये ऐसे सुराग होते हैं जो किसी भी घटना के पहले नजर आते हैं। अगर तत्काल कदम उठा लिए जाएं तो मुश्किलों से बचा जा सकता है।

सन 2019 में गौतम थापर और उनकी कंपनी सीजी पॉवर ऐंड इंडस्ट्रियल सिस्टम्स लिमिटेड का मामला सामने आया था। पेशेवर संचालन वाली और उच्च क्षमता के साथ काम करने वाली उस कंपनी को क्रॉम्पटन ग्रीव्स के नाम से जाना जाता था। थापर ने क्रॉम्पटन को कई कंपनियों में बांट दिया और उन्हें अवांता समूह के तहत एकजुट कर दिया।

सीजी पॉवर के बोर्ड में मुखर स्वतंत्र निदेशक शामिल थे। बोर्ड हमेशा सतर्क रहता था और निदेशकों ने कंपनी के भविष्य को सुनिश्चित करने में अपना समय दिया था। सन 2019 में स्वतंत्र निदेशकों ने पाया कि कंपनी के एबिटा यानी ब्याज, कर आदि को हटाने के बाद बचे कामकाजी मुनाफे में तो सुधार हो रहा है लेकिन वह कर पूर्व लाभ तथा नकदी प्रवाह में नजर नहीं आ रहा है। उन्होंने इसे पूर्व संकेत की तरह लिया।

स्वतंत्र निदेशकों की जोखिम और अंकेक्षण समिति इसके विस्तार में गई और उन्हें एक के बाद एक तमाम आश्चर्य देखने को मिले। उनकी सतर्कता और पेशेवर रुख के बावजूद उन्हें पहले कभी इन चीजों का पता नहीं चला था। इस बीच सार्वजनिक रूप से यही हुआ कि कंपनी के शेयरों की कीमत कुछ माह पहले की तुलना में 70 फीसदी कम हो गई।

यहां एक दूसरे से संबद्ध पक्षों का एक जाल सा था जिसका अर्थ था आपस में जुड़ी अनुषंगी कंपनियां। इन कंपनियों के बीच ऋण के काफी लेनदेन हुए थे। किसी भी सूचीबद्ध कंपनी के बोर्ड में स्वतंत्र निदेशक कभी लेनदेन के बारे में उतना नहीं जान पाएगा जितना उनका प्रबंधन जानता है। यह हकीकत है। इसके बावजूद स्वतंत्र निदेशकों से उम्मीद की जाती है कि वे निगरानी करें। इकलौता तरीका है माहौल को भांपना और समय रहते संकेतों को पकड़ना।

जोखिम और अंकेक्षण समिति का सामना आपस में संबद्ध कंपनियों के बीच ढेर सारे लेनदेन से हुआ और इनके बारे में परिचालन प्रबंधन ने कुछ सतही दलीलें पेश कीं। ये दलीलें स्वतंत्र निदेशकों की समझ में नहीं आईं और उन्होंने आगे पड़ताल की। 13 घंटे की बैठक जो सुबह चार बजे तक चली, उसके बाद सामने आए तथ्य ने उन्हें चौंका दिया: पता चला कि कंपनी तथा समूह की कुल देनदारी को क्रमश: 1,990 करोड़ तथा 2,800 करोड़ रुपये तक कम करके बताया गया है। संबद्ध कंपनियों का बकाया भी 131 करोड़ रुपये नहीं बल्कि 2,657 करोड़ रुपये था। ऐसे तमाम अन्य अवैध लेनदेन सामने आए जिनका कंपनी की वित्तीय स्थिति पर काफी बुरा असर पड़ा।

बोर्ड ने जल्दी ही बैठक करके अपनी चिंताएं सार्वजनिक कर दीं। प्रवर्तक-चेयरमैन को पद से हटा दिया गया और विधि पूर्वक चीजों को ठीक करने की प्रक्रिया आरंभ हुई। अब कंपनी एक नए जिम्मेदार स्वामित्व के साथ चल रही है। कई मामले ऐसे भी हैं जहां शुरुआती संकेत मिलते हैं लेकिन उनकी अनदेखी कर दी जाती है। कई भारतीय कारोबारी समूहों की दो अहम दिक्कत हैं: ढेर सारी अनुषंगी कंपनियों का होना तथा संबद्ध पक्ष के लेनदेन।

मैं पहले भी लिख चुका हूं कि बोर्ड निदेशकों को स्वस्थ तरीके से शंका करनी चाहिए और अग्रिम संकेतों पर नजर रखनी चाहिए। दुर्भाग्यवश ऐसा कोई नियम नहीं है जिसके आधार पर अग्रिम संकेत का निर्धारण हो सके। बोर्ड की सतर्कता और उसके अहसास की अहम भूमिका है। संकेतों के आधार पर काम करना आवश्यक है। ऐसे में संकेतों की अनदेखी करना समझदारी नहीं है।

First Published : January 17, 2023 | 9:32 PM IST