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नया राजकोषीय खाका तैयार करने का वक्त

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 10, 2022 | 2:10 AM IST

हर सरकारी बजट में प्राय: कराधान और व्यय आवंटन पर सबसे अधिक ध्यान दिया जाता है क्योंकि वे करदाताओं और गैर करदाताओं को सीधे प्रभावित करते हैं। परंतु करीब एक माह बाद पेश होने वाले 2021-22 के केंद्रीय बजट में एक और चीज पर ध्यान दिया जाएगा और वह है सरकार के राजकोषीय सुदृढ़ीकरण खाके के कानूनी ढांचे की समीक्षा की आवश्यकता।
मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में राजकोषीय जवाबदेही एवं बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम में अहम संशोधन किए थे। सन 2018 में बजट के साथ प्रस्तुत वित्त विधेयक के माध्यम से किए गए इन संशोधनों के तहत केंद्र सरकार को 2024-25 तक अपना घाटा कम करके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 40 प्रतिशत तक लाना था। संशोधनों में समग्र सरकारी कर्ज (केंद्र और राज्य) को घटाकर जीडीपी के 60 फीसदी तक लाने की बात भी कही गई और कहा गया कि किसी भी वित्त वर्ष में देश के समेकित फंड की गारंटी पर लिए गए ऋण के लिए 0.5 फीसदी की सीमा लागू होगी।
संशोधित कानून में केंद्र से कहा गया कि वह राजकोषीय घाटे को मार्च 2021 तक जीडीपी के तीन प्रतिशत तक लाए। विशेष परिस्थितियों मसलन राष्ट्रीय आपदा, किसानों के संकट या ढांचागत नीतिगत बदलाव की स्थिति में 0.5 फीसदी की रियायत दी गई। इससे अधिक की रियायत की कोई गुंजाइश नहीं दी गई। यह भी कहा गया कि यदि यह विचलन आता है तो सरकार को संसद में बताना होगा कि ऐसा क्यों हुआ।
आगामी बजट में राजकोषीय सृदृढ़ीकरण के ढांचे की समीक्षा पांच कारणों से उत्पन्न होती है। पहला, सन 2019-20 में सरकार के राजकोषीय प्रदर्शन के आरंभिक आंकड़े बताते हैं यह विचलन 0.5 फीसदी की तय सीमा से काफी अधिक रहा। यह सच है कि संशोधित अनुमान में जीडीपी के 3.8 फीसदी के बराबर घाटा दिखाया जबकि तय अनुमान 3.3 फीसदी था लेकिन प्रारंभिक वास्तविक आंकड़े बताते हैं कि घाटा जीडीपी के 4.6 फीसदी रहा। यानी संशोधित एफआरबीएम अधिनियम के लक्ष्य से बहुत अधिक।
चिंता की बात यह है कि 2020-21 में सुदृढ़ीकरण की योजना को और अधिक चोट पहुंचेगी। जीडीपी के 3.5 फीसदी के लक्षित राजकोषीय घाटे का विस्तार तय है। यदि मान लिया जाए कि अर्थव्यवस्था में 5 फीसदी की गिरावट आती है और कुल ऋण को 12 लाख करोड़ रुपये तक सीमित रखा जाता है तो भी राजकोषीय घाटा जीडीपी के 6.2 फीसदी से कम नहीं होगा। जबकि स्वतंत्र विश्लेषकों का अनुमान है कि यह जीडीपी के 7 से 9 फीसदी के बीच रहेगा। जाहिर है 2020-21 में विचलन पिछले साल से अधिक होगा।
दूसरा कारण, वित्त मंत्रालय के प्रभारियों को पता चल चुका है कि संशोधित एफआरबीएम अधिनियम के तहत मध्यम अवधि के राजकोषीय सुदृढ़ीकरण लक्ष्य हासिल करना भी लगभग असंभव है। सन 2020-21 में लक्ष्य हासिल करने में चूक के बाद गत फरवरी में मध्यम अवधि के राजकोषीय नीति वक्तव्य में कहा गया था कि सरकार को मध्यम अवधि में राजकोषीय सुदृढ़ीकरण की राह पर लौटना होगा। इसके लिए 2021-22 में जीडीपी के 3.3 फीसदी और सन 2022-23 में 3.1 फीसदी का लक्ष्य रखा गया। सार्वजनिक वित्त पर बढ़ते दबाव को देखते हुए इन लक्ष्यों को संशोधित करना होगा। नए वर्ष के बजट में हकीकत के करीब खाका पेश करना होगा। लेकिन क्या मौजूदा राजकोषीय सुदृढ़ीकरण खाके के बीच ऐसा करना संभव होगा?
तीसरा, केंद्र सरकार के कुल कर्ज को 2024-25 तक जीडीपी के 40 फीसदी तक कम करना काफी कठिन लक्ष्य है। इसलिए क्योंकि अभी कर्ज बहुत ज्यादा है और चालू वर्ष में सरकारी उधारी भी काफी अधिक रही है। अतिरिक्त उधारी की भी जरूरत होगी। सन 2018-19 में जब एफआरबीएम अधिनियम में संशोधन हुआ तब केंद्र सरकार का कुल कर्ज जीडीपी के 48.4 फीसदी के बराबर था। सन 2019-20 में लक्ष्य था इसे कम करके 48 फीसदी पर लाना लेकिन वर्ष 50.3 फीसदी कर्ज के साथ समाप्त हुआ।
सन 2020-21 के बजट में केंद्र का कर्ज का स्तर कम करके 50.1 फीसदी पर लाना था लेकिन चूंकि राजस्व घाटे के तय लक्ष्य से दोगुना होने का अनुमान है इसलिए जाहिर है मार्च 2021 तक राजकोषीय घाटे में भी इजाफा होगा। जाहिर है 2021-22 और 2022-23 के लिए तय जीडीपी के क्रमश: 48 और 45.5 फीसदी लक्ष्य को हासिल करना भी मुश्किल है। आगामी बजट में कर्ज को लेकर संशोधित लक्ष्य तय करने होंगे जो पहले से अधिक हों।
गत फरवरी में सरकार ने राजस्व संग्रह में इजाफे के अनुमान पर यह आशा की थी कि कर्ज में कमी आएगी। मध्यम अवधि के राजकोषीय नीति दस्तावेज में कहा गया था, ‘राजकोषीय घाटे में कमी के साथ निजी निवेश और पूंजी की आवक की गुंजाइश बढ़ेगी। मुद्रास्फीति का कम स्तर भी सरकार को मध्यम अवधि में लाभ पहुंचाएगा क्योंकि नई उधारी की लागत कम होगी और ब्याज भुगतान कम होगा।’ आज के बदले परिदृश्य में ये अनुमान बेमानी हैं।
चौथा, सरकार यदि समावेशी फंड की गारंटी पर कोई ऋण देती है तो उसे अधिक सतर्क रहने की जरूरत है। सन 2018-19 में ऐसी गारंटी जीडीपी के 0.4 फीसदी से अधिक थी जबकि इसके लिए 0.5 फीसदी तक की अनुमति है। यह सहज स्तर है लेकिन सरकारी वित्त पर पड़ रहे दबाव और अधिक गारंटी की बढ़ती मांग को देखें तो 2020-21 में 0.5 फीसदी की सीमा टूट सकती है।
आखिर में संशोधित एफआरबीएम अधिनियम एक नई चुनौती पेश करता है जो सन 2020-21 में भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति में सुधार से उपजती दिखती है। कानून कहता है कि यदि किसी तिमाही में पिछली चार तिमाहियों के औसत से तीन फीसदी तक की वृद्धि होती है तो राजकोषीय घाटे में जीडीपी के 0.25 फीसदी के बराबर कमी आनी चाहिए। अगले वर्ष घाटे में ऐसी कमी की स्थिति बनेगी। यह तय है कि सन 2021-22 में तिमाही वृद्धि आसानी से सन 2020-21 की औसत तिमाही वृद्धि को पार कर जाएगी, वह भी तीन फीसदी से अधिक अंकों से।
सवाल यह है कि सरकार के पास एफआरबीएम अधिनियम में एक और संशोधन करने तथा नए लक्ष्य तय करने के सिवा क्या विकल्प है? यह अपेक्षा करना उचित होगा कि 2003 के एफआरबीएम अधिनियम में पूरी तरह तरह बदलाव किया जाए और नए लक्ष्य तय किए जाएं जो हकीकत के करीब हों और अर्थव्यवस्था की जरूरत के मुताबिक हों। शायद राजकोषीय परिषद के गठन से इस दिशा में मदद मिल सके। इसकी मांग कई हलकों से उठती रही है। यह अलग बहस का विषय है कि केंद्र को किस प्रकार की परिषद गठित करनी चाहिए।

First Published : January 3, 2021 | 11:24 PM IST