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एक नए प्लाजा समझौते का आ गया है समय?

डॉलर के मूल्य में 20 फीसदी गिरावट का लक्ष्य लेकर चलना चाहिए जैसा कि नॉमिनल ब्रॉड यूएस डॉलर इंडेक्स में नजर आया।

Last Updated- April 15, 2025 | 10:31 PM IST
rupees dollar

चर्चा है कि 1985 की तर्ज पर डॉलर के अवमूल्यन के लिए समझौता हो सकता है, वहीं सच यह भी है कि बिना किसी समझौते के ही डॉलर का अवमूल्यन हो रहा है। बता रहे हैं 

डॉनल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद से अमेरिका की राजनीति में संरक्षणवाद का विचार वास्तविक रूप ले चुका है जबकि पहले इसे एक अतिरंजना माना जाता था। इससे अमेरिकी दक्षिणपंथ के अन्य विचारों को उभरने में मदद मिली है।

ऐसी ही एक धारणा यह कि एक बड़े ‘मार-अ-लागो’ समझौते को लेकर बातचीत हो सकेगी। यह समझौता अंतरराष्ट्रीय वित्तीय और मौद्रिक व्यवस्थाओं को बदल कर रख सकता है। स्टीफन मिरान ने नवंबर 2024 में ‘अ यूजर्स गाइड टु रीस्ट्रक्चरिंग द ग्लोबल ट्रेडिंग सिस्टम’ लिखा था। अब वह ट्रंप के आर्थिक सलाहकारों की परिषद के अध्यक्ष हैं। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था में डॉलर की खास भूमिका है। इसकी वजह से डॉलर का निरंतर अधिमूल्यन हो रहा है और अमेरिका का चालू खाते का घाटा लगातार बना हुआ है। 

इस तथ्य ने अमेरिका के निर्यात और रोजगार पर बुरा असर डाला है। इसलिए एक बड़े समझौते की दरकार है जहां अनेक देश साथ मिलकर काम करें और डॉलर का अवमूल्यन हो सके। डॉलर के मूल्य में 20 फीसदी गिरावट का लक्ष्य लेकर चलना चाहिए जैसा कि नॉमिनल ब्रॉड यूएस डॉलर इंडेक्स में नजर आया।

यहां 1985 के ‘प्लाजा समझौते’ की अनुगूंज सुनी जा सकती है। उस वक्त भी अमेरिका को महसूस हुआ था कि डॉलर के निरंतर अधिमूल्यन से दिक्कत पैदा हो रही है। उस समय क्या हुआ था? तत्कालीन बड़े देशों ने एक साथ आकर एक समझौता किया और फिर मुद्रा बाजार में कुछ संकेत देने और कुछ समन्वित हस्तक्षेप में लगे रहे।। इससे डॉलर की कीमतों में 40-50 फीसदी की गिरावट आई। प्राथमिक तौर पर यह गिरावट येन और जर्मन मुद्रा के संदर्भ में आई थी।

यकीनन फिलहाल परिस्थितियां 1985 जैसी नहीं हैं और ऐसे में डॉलर के अवमूल्यन से जुड़ा संभावित समझौता कई मायनों में अलग साबित होगा। हमें पूछना यह चाहिए कि टैरिफ के बाद के दौर में डॉलर का क्या स्थान है और क्या प्लाजा समझौते जैसा एक और समझौता हो सकता है?

  1. पूंजी की मजबूत आवक की बदौलत डॉलर का निरंतर अधिमूल्यन अमेरिकी संस्थानों के प्रति सम्मान की भावना पर आधारित था। अमेरिका को सुरक्षित माना जाता था क्योंकि दुनिया भर के लोग अमेरिकी संस्थानों में भरोसा रखते थे। ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के पहले 83 दिनों में दुनिया अमेरिकी संस्थानों को लेकर और अधिक शंकालु हो गई है। वह काफी हद तक उभरते बाजारों जैसा नजर आ रहा है। सबसे अहम विनिमय दर जहां हमें यह नजर आता है, वह है डॉलर/यूरो विनिमय दर। 

सामान्य तौर पर टैरिफ लागू करने से डॉलर का अधिमूल्यन होता है। परंतु इसके बजाय डॉलर में जनवरी से अब तक 9 फीसदी का अवमूल्यन देखने को मिला। अधिक व्यापक तौर पर देखें तो नॉमिनल ब्रॉड अमेरिकी डॉलर इंडेक्स में करीब 4 फीसदी की गिरावट देखने को मिली। अमेरिका के दीर्घकालिक बॉन्ड पर ब्याज दर बढ़ी है और जर्मनी के दीर्घकालिक बॉन्ड में गिरावट आई है। यह वैश्विक संकट के माहौल में अस्वाभाविक बात है जहां दुनिया भर में निजी व्यक्ति सुरक्षा के लिए अमेरिका का रुख करते रहे हैं। यानी सुरक्षित ठिकाने के रूप में अमेरिका की भूमिका कमजोर पड़ी और कुछ हद तक डॉलर अधिमूल्यन की समस्या हल हुई तथा समझौते की जरूरत कमजोर पड़ी।

  1. आज ऐसा कौन है जो इस तरह की परियोजना में साझेदार बनना चाहेगा? सन 1985 में दो अहम साझेदार थे जर्मनी (तत्कालीन पश्चिमी जर्मनी) और जापान। दोनों देश अपने इतिहास के लिए अमेरिका के शुक्रगुजार हैं। अमेरिका ने 1945 में अल्पावधि के कब्जे के बाद जर्मनी और जापान में संवैधानिक व्यवस्था स्थापित की और दोनों देश कामयाबी की राह पर आगे बढ़े। दोनों देश 1985 में पश्चिमी गठबंधन का हिस्सा थे। भविष्य के किसी भी समझौते में चीन की अहम भूमिका होगी जिसका अमेरिका के प्रति कोई झुकाव नहीं है। चीन की अर्थव्यवस्था मुश्किल दौर से गुजर रही है और उसके लिए ऐसे किसी आर्थिक तनाव को झेल पाना मुश्किल होगा जैसा जापान और जर्मनी ने 1985 में प्लाजा समझौते के समय किया था।
  2. सन 1985 में वैश्विक मुद्रा बाजार की गहराई सीमित थी और पहली दुनिया के देशों के लिए बाजार से छेड़छाड़ करना संभव था। 2025 तक डॉलर-यूरो जैसी मुद्राओं के लिए वैश्विक मुद्रा बाजारों की तरलता इस हद पहुंच गई थी कि केंद्रीय बैंक का हस्तक्षेप व्यावहारिक नहीं रह गया है। उस समय केंद्रीय बैंकों के पास मनमाने कदमों की गुंजाइश थी और मौद्रिक नीति में भी बड़ी गलतियां होती थीं। बाद के वर्षों में विकसित देशों के मौद्रिक नीति ढांचे में सुधार हुआ। अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने 1993 से मुद्रा व्यापार नहीं किया है। हर जगह मुद्रास्फीति को लक्षित किया जा रहा है और इससे केंद्रीय बैंकों के विवेकाधीन अधिकार कम हो रहे हैं। मुद्रास्फीति लक्ष्य को बनाए रखने के लिए केंद्रीय बैंक द्वारा किया गया मुद्रा व्यापार प्रतिसंतुलन कार्रवाई को प्रारंभ करता है।
  3. सन 1985 में रोनाल्ड रीगन के नेतृत्व वाले अमेरिका में पुरानी शैली की उन्नत अर्थव्यवस्था संबंधी क्षमताएं और विदेश नीति थी। आज की अमेरिकी संघीय सरकार के पास ये दोनों नहीं हैं। ऐसे में जब वादों से मुकरने और नीतिगत लक्ष्यों को बार-बार पलटने का इतिहास हो तो मोलतोल मुश्किल होता है।
  4. सन 1985 में प्लाजा समझौते की बातचीत की राह में यह खतरा था कि अमेरिका में संरक्षणवादी भावना थी, जिसे रोकना आवश्यक था। इससे ऐसे हालात बने जहां सभी पक्षों को एक साथ लाया जा सकता था। आज अमेरिका ने टैरिफ लगाया है और पश्चिमी गठजोड़ से पीछे हट गया है। उसने चीन को नाराज किया है। इन हालात में जी7 प्लस चीन समझौते की व्यवस्था को कायम करने के लिए अत्यधिक कुशल कूटनीति की आवश्यकता होगी। खासतौर पर तब जबकि आठ में से दो देशों में लोकलुभावनवादी, राष्ट्रवादी नेता सत्ता में हों।
  1. यहां व्यापक डॉलर सूचकांक में 20 फीसदी गिरावट का जो लक्ष्य तय किया गया है उससे अमेरिकी क्रय शक्ति और मुद्रास्फीति में तीव्र गिरावट के साथ रोजगार और निर्यात में वृद्धि के होगी। यह स्पष्ट नहीं है इसे आम कामगार वर्गों का पर्याप्त राजनीतिक समर्थन मिलेगा या नहीं क्योंकि उनकी खरीद अधिक महंगी हो जाती है।

इन छह वजहों को एक साथ रखकर देखें तो हमें लगता है ‘मार-अ-लागो समिट’ ट्रंप के लिए प्रचार का एक बढ़िया साधन हाे सकता है। इससे फर्क पड़ता नहीं नजर आता। इसके बजाय हमें आज की विश्व अर्थव्यवस्था में सबसे दिलचस्प घटना पर अपनी नजरें केंद्रित रखनी चाहिए: डॉलर सुरक्षित ठिकाने की अपनी हैसियत से किस हद तक पीछे हट रहा है, इसे डॉलर/यूरो दर और अमेरिका की 30 वर्षीय बॉन्ड ब्याज दर से मापा जा सकता है। 

 (लेखक क्रमश: एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता, और आदित्य बिड़ला ग्रुप में मुख्य अर्थशास्त्री हैं)

First Published - April 15, 2025 | 10:22 PM IST

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