प्रतीकात्मक तस्वीर | फोटो क्रेडिट: Pexels
हमारे देश में बजट हरेक साल उबाऊ होता जा रहा है और वह भी इतना कि बाजार भी पसोपेश में पड़ जाता है। बजट की बातें बाजार के पल्ले ही नहीं पड़ती हैं और उसे समझ ही नहीं आता कि ऊपर जाए या गोता खाए। एक तरह से यह अच्छी बात है। लेकिन मैं भी इस बात से हैरान हूं कि बाजार बजट में अनुमान से कम राजकोषीय घाटे और अगले वित्त वर्ष के लिए इसमें और कमी के लक्ष्य को एक बड़ी सकारात्मक एवं उत्साहजनक बात क्यों नहीं मान पा रहा है।
जिस समय दुनिया की बड़ी अर्थव्यस्थाओं का दम राजकोषीय घाटे को काबू में रखने के चक्कर में फूल रहा है उस समय इन बातों को मैं बजट का बेहतर और साहसिक पहलू मानता हूं। तो क्या बाजार राजकोषीय अनुशासन से खुश नहीं होता है? मुझसे यह सवाल न पूछिए। मैं बाजार को समझने की कोशिश भी नहीं करूंगा। राजनीति को समझने का प्रयास करना ही मेरे लिए काफी है और मजेदार तथा सुरक्षित दांव भी है।
अगर थोड़ी देर के लिए राजनीति पर ही ध्यान केंद्रित करें तो बजट में सबसे साहसिक एवं सकारात्मक बयान राजनीति और सामरिक मामलों के संदर्भ में दिया गया है। बजट में परमाणु ऊर्जा अधिनियम और परमाणु क्षति के लिए नागरिक उत्तरदायित्व अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव दिया गया है। सरकार ने वर्ष 2047 तक 100 गीगावॉट (1 गीगावॉट = 1,000 मेगावॉट) परमाणु ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य रखा है, जिसके लिए यह संशोधन किया गया है। यह संशोधन अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप की वापसी के बाद आनन फानन में किए गए उपाय के तौर पर भी देखा जा सकता है।
अगर अमेरिका के राष्ट्रपति एक हाथ से देने और दूसरे हाथ से लेने में यकीन रखते हैं तो भारत उन्हें बदले में क्या देगा? भारी मात्रा में परमाणु सामग्री की खरीदारी (वेस्टिंगहाउस याद है?) यहां काफी कारगर साबित हो सकती है। मगर इसके लिए भारत को परमाणु क्षति पर नागरिक जवाबदेही अधिनियम में संशोधन करना होगा, जो संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के कार्यकाल में 2010 में पारित किया गया था। इसमें एक प्रावधान यह था कि किसी प्रकार की दुर्घटना की स्थिति में परिचालनकर्ता को आपूर्तिकर्ता के खिलाफ मुकदमा करने का अधिकार होगा। यह प्रावधान भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के दबाव में तब अधिनियम में जोड़ा गया था। असैन्य परमाणु सौदे पर विश्वास मत के दौरान शिकस्त खाने के बाद भाजपा ने संप्रग (और भारत को) स्वच्छ ऊर्जा हासिल करने से रोक दिया जो इस सौदे के जरिये हासिल किया जा सकता था।
यह कानून अपने मौजूदा स्वरूप में थोड़ा अलग है या यूं यह कह लें कि परमाणु क्षति पर पूरक मुआवजा संधि का उल्लंघन करता है। इस संधि में जवाबदेही परिचालनकर्ता के कंधे पर डाल दी गई है और आपूर्तिकर्ता किसी भी तरह की कानूनी कार्रवाई से बच गया है। परमाणु सौदे पर संसद में हार का सामना करने के बाद भाजपा 2010 में फिर हरकत में आ गई, जब भोपाल गैस त्रासदी की जिम्मेदारी पर उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद विवाद छिड़ गया। वाम और दक्षिणपंथी विचारधाराओं के लोगों ने पर्यवारणविदों के साथ मिलकर जवाबदेही कानून को कमजोर बना दिया।
अगर भाजपा उसी कानून को अब दुरुस्त करती है तो आर्थिक, पर्यावरण संबंधी और इनसे भी बढ़कर सामरिक लाभ मिलने शुरू हो जाएंगे। यह भी स्वागत योग्य कदम होगा क्योंकि मोदी सरकार असैन्य परमाणु समझौते को स्वीकार कर चुकी है, अमेरिका के साथ रिश्ते बढ़ा रही है और संप्रग सरकार के दौरान बांग्लादेश के साथ सीमा विवाद के उस हल से भी परहेज नहीं कर रही है, जिसका भाजपा ने पुरजोर विरोध किया था। अगर सब ठीक रहा तो यह देर आए दुरुस्त आए का एक और बढ़िया उदाहरण होगा। अब हमें उम्मीद करनी चाहिए कि बजट में किया गया वादा जल्द पूरा हो जाए। अगर यह ट्रंप के साथ मोदी की बैठक से पहले हो तो और अच्छी बात होगी।
परमाणु ऊर्जा अधिनियम में संशोधन के बाद परमाणु ऊर्जा उत्पादन बिजली मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में आ सकता है। मोदी सरकार इन संशोधनों को लागू करने में सफल रही तो उसे देश के भीतर राजनीति में भी लाभ मिलेगा। आंध्र प्रदेश में 6,600 मेगावॉट क्षमता वाले परमाणु संयंत्र के लिए 2,067 एकड़ भूमि पहले ही उपलब्ध कराई जा चुकी है।
एक बार फिर बजट के परंपरागत पहलुओं की ओर लौटते हैं। एक के बाद एक उबाऊ दिखने वाले बजट में निरंतरता जरूर दिखी है और निरंतरता अच्छी बात होती है। बजट में न तो बड़े कदम उठाए गए हैं और ही नीतियों में बड़े बदलाव किए गए हैं। उठाए भी क्यों जाते, बजट सरकार के सालाना आय-व्यय का लेखा-जोखा ही तो होता है। एक समय था जब बजट में राजनीतिक अर्थव्यवस्था खासकर आर्थिक सुधारों पर सरकार के बदलते विचारों का जिक्र हुआ करता था मगर वह दौर कुछ समय पहले ही खत्म हो गया। इसके पीछे दो कारण गिनाए जा सकते हैं।
पहला कारण, राजनीतिक अर्थव्यवस्था की कमान अब राजनीतिक नेतृत्व (यानी नरेंद्र मोदी) के हाथ में आ गई है। दूसरा कारण यह है कि बजट में होने वाली घोषणाओं से लोगों का विश्वास उठता जा रहा है। पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम में एक बार कहा था कि आवंटन या नतीजे जो भी नाम दिया जाए वे बजट से लगाई उम्मीदों के साथ खिलवाड़ ही करते हैं। पिछले 11 वर्षों में सुधारों से संबंधित जो महत्त्वपूर्ण घोषणाएं हुईं वे किसी बजट में नहीं बल्कि महामारी के दौरान समाचार माध्यमों के जरिये सीधे बता दी गईं। इनमें कृषि सुधार कानूनों से लेकर श्रम सुधार तक सभी अपनी राह से भटक चुके हैं। नए कृषि सुधार कानून वापस ले लिए गए हैं और श्रम सुधार व्यवस्थागत (मैं अफसरशाही के बजाय इसे यही कहना पसंद करता हूं) जाल में उलझकर रह गए हैं।
वे लोग जो एक के बाद एक कई सुधारों के ऐलान से काफी उत्साहित थे, उनकी सराहना कर रहे थे और उन्हें संकट के दौरान उठाए गए समझदारी भरा कदम कहने से नहीं थक रहे थे वे अब हतोत्साहित एवं ठगा महसूस कर रहे हैं। भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था एक बार अपने मूल स्वरूप में लौट आई है। मुझे यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं होगी कि कांग्रेस ने समाजवाद को केंद्र में रखकर अर्थव्यवस्था का जो ढांचा आगे बढ़ाया था अब उसी की झलक दोबारा दिखने लगी है।
मध्य वर्ग के करदाताओं को दी गई कर राहत इस बजट की सबसे प्रमुख बात रही है। बजट में उन लोगों को करों के बोझ से राहत दी गई है, जिनकी सालाना आय 12 लाख रुपये तक है। मगर यह 2019 में अमेरिका में संघीय कर ढांचे में बदलाव के जरिये कंपनी कर में की गई कटौती से काफी अलग है, जिसका उद्देश्य उद्यमों में जोश भर कर उन्हें निवेश करने के लिए उत्साहित करना था।
निजीकरण पर बजट खामोश रहा है और इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। पिछले कुछ महीनों में प्रधानमंत्री दावा करते रहे हैं कि पिछले प्रधानमंत्रियों की तुलना में उनके कार्यकाल में सार्वजनिक उपक्रमों का प्रदर्शन बेहतर रहा है। पिछले एक सप्ताह से मोदी कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) के नारों ‘समावेशी विकास और आम आदमी’ का राग अलाप रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द जोड़ दिए थे। अब इन दोनों शब्दों को भाजपा और कांग्रेस समेत लगभग सभी दलों का समर्थन मिल चुका है। कम से कम इन दोनों में से एक समाजवाद का पालन तो सही मायनों में पूरी शिद्दत के साथ किया जाता रहेगा।