महामारी के भयावह रूप धारण कर लेने से पिछले कुछ महीने मुश्किल भरे रहे हैं। मगर भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) इन मुश्किलों से बड़ी सहजता से पार पाने में सफल रहा है। केंद्रीय बैंक ने दर में कटौती, तरलता डालने और नकदी आपूर्ति में बढ़ोतरी समेत हरसंभव तरीके से अर्थव्यवस्था को सहारा दिया है। आरबीआई ने मौद्रिक नीति के स्तर पर दो लक्ष्यों में संतुलन कायम करने की कोशिश की है। ये लक्ष्य महामारी के बीच रुपये को मजबूत नहीं होने देना और सुधार में सहयोग के लिए पर्याप्त तरलता मुहैया कराना हैं। खुशकिस्मती से दोनों ही ठीक रहे। आरबीआई व्यापार घाटे में कमी और पूंजी की बड़ी मात्रा में आवक की बदौलत डॉलर खरीदने, मुद्रा भंडार बनाने और बैंकिंग प्रणाली में नकदी डालने में सक्षम रहा। बड़ी मात्रा में अतिरिक्त नकदी से ब्याज दरों में कटौती करने में मदद मिली है। ब्याज दरों में यह कटौती मनी, कॉरपोरेट और सरकारी बॉन्ड बाजार में भी हुई है।
लेकिन अगले कुुछ महीने और मुश्किल भरे साबित हो सकते हैं। वर्ष की पहली छमाही में बाजार की चिंता को दूर करने में महज यह उम्मीद ही काफी थी कि वर्ष के उत्तराद्र्घ में आरबीआई सरकारी बॉन्डों की खरीद यानी ओपन मार्केट ऑपेरशन (ओएमओ) करेगा, जिससे सरकार को बड़े राजकोषीय घाटे की वित्तीय व्यवस्था करने में मदद मिलेगी। मगर अब इससे अपनी कथनी को करनी में तब्दील करने की उम्मीद की जा रही है।
राजकोषीय स्थिति विकट है। केंद्र सरकार का राजकोषीय घाटा वित्त वर्ष 2021 में जीडीपी के आठ फीसदी से अधिक रह सकता है, जबकि वर्ष की शुरुआत में बजट अनुमान 3.5 फीसदी था। इसने मई में पहले ही यह घोषणा कर दी थी कि उधारी बजट से 4.2 लाख करोड़ रुपये अधिक रहेगी। केंद्र सरकार हर बॉन्ड नीलामी में उससे भी थोड़ी अधिक उधारी ले रही है। वह सामान्य से अधिक ट्रेजरी बिल जारी कर रही है, जिनमें से कुछ की अवधि आगे बढ़ाई जा सकती है।
राज्यों के लिए भी बड़ी राजकोषीय समस्या रहेगी। केंद्र की तरफ से वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) क्षतिपूर्ति में कमी समेत राजस्व नुकसान को मद्देेनजर रखते हुए हमारा मानना है कि राज्यों का राजकोषीय घाटा बढ़कर जीडीपी के 4.5 फीसदी पर पहुंच जाएगा, जो बजट में 2.4 फीसदी अनुमानित था। अगर इसमें सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की उधारी को भी जोड़ देते हैं तो सार्वजनिक क्षेत्र की कुल उधारियां जीडीपी के 16 फीसदी से अधिक रह सकती हैं।
लेकिन अगर आरबीआई ओएमओ के जरिये इन बॉन्डों के एक हिस्से को खरीदकर मदद देता है तो पहले से ही अधिक बनी हुई रुपये की तरलता और बढ़ जाएगी।
इस बीच बड़ी मात्रा में डॉलर की आवक अबाधित रूप से जारी है। अगर आरबीआई यह नहीं चाहता कि रुपया तेजी से मजबूत हो तो उसे डॉलर की खरीदारी जारी रखनी होगी। उससे घरेलू तरलता में और इजाफा होगा। आरबीआई का जुलाई तक यही लक्ष्य नजर आया है कि वह रुपये को मजबूत नहीं होने देना चाहता है।
ऐसे समय जब बैंकिंग क्षेत्र में तरलता पहले ही अधिक है, तब बॉन्ड और डॉलर की खरीदारी लोगों को चौंका सकती है। लेकिन अतिरिक्त घरेलू तरलता को लेकर चिंतित होने की क्या जरूरत है?
यह दोधारी तलवार साबित हो सकती है। किसी अप्रत्याशित झटके के बाद अर्थव्यवस्था को सहारा देने और उबारने के लिए पर्याप्त तरलता आवश्यक है। लेकिन ज्यादा तरलता से महंगाई और अधिक व्यापार घाटे जैसे समष्टि आर्थिक असंतुलनों को बढ़ा सकते हैं। इससे उस सुधार को ही चोट पहुंच सकती है, जिसे तरलता से मदद मिलनी थी।
असल में महंगाई की अनदेखी नहीं की जा सकती है। यह अगस्त में 6.7 फीसदी रही। इस तरह यह 2 से 6 फीसदी की लक्षित सीमा को पार कर गई। महंगाई कई महीनों से इसी दायरे में बनी हुई थी। खाद्य, ईंधन और अन्य कोर श्रेणियों में महंगाई का दबाव व्यापक है।
संक्षेप में कहें तो आरबीआई की चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। इसे न केवल विनिमय दरों और घरेलू तरलता पर बीते महीनों की तरह नजर बनाए रखनी होगी बल्कि अब उसे राजकोषीय वित्त पोषण में भी भूमिका निभानी होगी। केंद्रीय बैंक को ऐसा उस समय करना होगा, जब महंगाई सहजता के स्तर से ऊपर नजर आ रही है।
क्या आरबीआई इस काम को संभाल लेगा? वह ऐसा तभी कर पाएगा, जब वह विभिन्न उद्देश्यों (रुपये, महंगाई और बॉन्ड प्रतिफल) में से हरेक के लिए थोड़ा-थोड़ा काम करके उनके बीच बेहतर संतुलन कायम करेगा।
लेकिन क्या उससे आरबीआई के सामने पुरानी ‘असंभव तिकड़ी’- निश्चित विनिमय दर, पूंजी खाता परिवर्तनीयता और मौद्रिक नीति स्वतंत्रता की समस्या पैदा नहीं होगी, जिसमें तीन में से केवल दो पर ही एक साथ काम करना संभव है?
आरबीआई कैसे रुपये को बहुत अधिक मजबूत होने से रोक सकता है, बड़ी मात्रा में पूंजी की आवक को मंजूरी दे सकता है और फिर भी तरलता ढीली रखने के लिए मौद्रिक नीति की गुंजाइश रख सकता है?
ऐतिहासिक रूप से और वैश्विक स्तर पर यह असंभव साबित हुआ है। इसकी मुख्य वजह यह है। माना कि कोई केंद्रीय बैंक डॉलर की बड़ी मात्रा में आवक के समय विनिमय दर को मजबूत होने से रोकने के लिए डॉलर खरीद रहा है। उससे घरेलू तरलता अतिरिक्त हो जाएगी। इससे महंगाई बढ़ सकती है। किसी चीज को तो छोडऩा होगा।
इसलिए आरबीआई सभी चीजों को कैसे संभालेगा? हमारा मानना है कि तीन चीजें इसे संभव बना सकती हैं। पहला, जब तक बैंक उधारी कमजोर बनी रहती है, तब तक अतिरिक्त तरलता वास्तविक अर्थव्यवस्था में नहीं जाएगी और इससे महंगाई को बल मिलेगा। दूसरा, अनुकूल आधार प्रभाव, बाजार में नई फसल आने और आपूर्ति शृंखला बहाल होने से वर्ष 2020 के अंत तक खाद्य महंगाई घट सकती है।
तीसरा, प्रसार में मौजूद मुद्रा तेजी से बढ़ रही है और अगर आगे भी ऐसा ही रुझान रहा तो आरबीआई को डॉलर या बॉन्ड खरीदकर बैंकिंग क्षेत्र की तरलता की भरपाई करनी होगी।
हालांकि इसमें कई जोखिम हैं। पहला, ऋण वृद्धि कम होने के बावजूद मुद्रा आपूर्ति की वृद्धि ऊंची है। ऋण वृद्धि में मामूली बढ़ोतरी से मुद्रा आपूर्ति अव्यवहार्य स्तर पर पहुंच सकती है। दूसरा, खाद्य महंगाई में गिरावट के आसार हैं, लेकिन मूल महंगाई आश्चर्यजनक ऊंचे स्तर पर बनी हुई है।
कुल मिलाकर हमारा मानना है कि आरबीआई अपने विभिन्न लक्ष्यों में संतुलन साधकर स्थितियों को संभाल लेगा। लेकिन उसे चौकस रहना होगा और उसे अहम बदलावों पर नजर रखनी होगी।
संभवतया सबसे बड़ी चुनौती उस समय आएगी, जब महामारी का खतरा कम हो जाएगा, आर्थिक गतिविधियां बढ़ेंगी और दुनिया भर में केंद्रीय बैंक तरलता की निकासी शुरू करेंगे। उस समय आरबीआई को त्वरित कदम उठाने होंगे और अतिरिक्त तरलता निकालनी होगी ताकि महंगाई न बढ़े और इससे सुधार को भी चोट न पहुंचे। आरबीआई के लिए कुशल योजना बनाना संभवतया सबसे बड़ी चुनौती होगी। लेकिन यह भविष्य की समस्या होगी।
(लेखिका एचएसबीसी सिक्योरिटीज ऐंड कैपिटल मार्केट्स (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड में चीफ इंडिया इकॉनमिस्ट हैं।)