पी चिदंबरम, यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह, प्रणव मुखर्जी और अरुण जेटली के बीच कौन सी बात एकसमान थी? इन सभी लोगों के देश का वित्तमंत्री रहने के अलावा एक अन्य चीज भी सबमें समान है। इन लोगों का मानना रहा है कि बजट भाषण का पहला खंड संसद में पूरी तरह पढऩे की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए। इनमें से कुछ यह बात मुझसे कह भी चुके हैं।
ये सारे लोग इस बात पर सहमत रहे हैं कि बजट भाषण के पहले खंड के 10 फीसदी हिस्से को भी पढऩे से यह संकेत दिया जा सकता है कि सरकार कल्याण एवं निवेश गतिविधियों को बढ़ावा देने को लेकर वाकई में गंभीर है। और इस खंड के बाकी हिस्से को केवल सदन के पटल पर रख देना चाहिए। मैंने उन लोगों से पूछा था कि ऐसा मत होने के बावजूद उन्होंने बजट भाषण पढ़ते समय ऐसा किया क्यों नहीं? इसके जवाब में उन्होंने ‘संभ्रांत तबके के सामाजिक दायित्वों’ का हवाला दिया। ऐसा लगता है कि उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी अपने-अपने मंत्रालयों के बारे में इस भाषण में दर्ज जानकारियों को पढ़े जाते हुए देखना चाहते हैं। लेकिन यह पूरी तरह गैरजरूरी है। यहां पर हमें यह बात भी ध्यान रखनी होगी कि पिछले छह वर्षों में लंबा बजट भाषण पढ़ते समय दो वित्त मंत्री लगभग बेसुध होने की स्थिति में पहुंच गए थे।
मेरा मानना है कि इस बात को ही ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह आदेश जारी कर देना चाहिए कि बजट भाषण का पहला खंड सदन के पटल पर रखा जाएगा, न कि पूरा पढ़ा जाएगा। ऐसे आदेश के लिए अब भी बहुत देर नहीं हुई है। प्रधानमंत्री महोदय, आपसे मेरा यही अनुरोध है कि ऐसा आदेश जारी कर दें। कुछ उसी तरह जैसे कि आपने अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाया था। बात यह है कि बजट भाषण का पहला खंड तमाम निरर्थक मंत्रालयों को किए जाने वाले महत्त्वहीन आवंटनों का एक बड़े पुलिंदे से अधिक कुछ नहीं रह गया है। हालांकि आवंटन के बारे में जानकारी जरूर सार्वजनिक की जानी चाहिए और उसे ट्विटर, फेसबुक या लिंक्डइन जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर पोस्ट कर बताया जा सकता है।
नकारात्मक बाह्यता
यह भी सच है कि सभी अच्छे फैसलों में भी कोई-न-कोई एक खराब पहलू जरूर होता है। और बजट भाषण के इस पहलू के बारे में भी यही बात लागू होती है।
पुरानी व्यवस्था में बजट को शाम 5.30 बजे पेश किया जाता था। भाषण की लंबाई के चलते इसे पूरा होने में वक्त लगता था और यह काम 6.45 या 7.15 बजे तक ही पूरा हो पाता था। भाषण और उससे जुड़े कागजात को शाम 8 बजे तक समाचारपत्रों के दफ्तरों तक पहुंचना होता था ताकि आधी रात में छपने वाले अखबारी संस्करण में बजट से जुड़ी खबरें विधिवत प्रकाशित की जा सकें। इस तरह वास्तव में मुश्किल स्थिति रहती थी और वक्त का दबाव बना रहता था। लेकिन मोदी सरकार के आने के बाद बजट भाषण का वक्त बदलकर सुबह में किया जा चुका है और इससे वक्त का दबाव भी नहीं रह गया है। ऐसी स्थिति में बजट भाषण का पहला खंड छोटा होने के बजाय पहले से अधिक लंबा एवं मोटा होता गया है।
हालांकि इस नई व्यवस्था में वक्त के दबाव की जगह पैसे के दबाव ने ले ली है। जब आवंटित करने के लिए अधिक राशि ही नहीं रहती है तो फिर लंबा एवं थकाऊ भाषण पढऩे का क्या औचित्य है? कम बजट राशि होने से उसके आवंटन की मोटी-मोटी जानकारी 30 मिनट के भाषण में भी दी जा सकती है, उसके लिए 150 मिनट लंबे भाषण की कोई जरूरत नहीं है। इस तरह मुझे लगता है कि वक्त की तरह फंड की कमी भी अब पहले खंड को संक्षिप्त रखने के लिए एक कारक हो गई है। एक अच्छे बजट की जान उसकी संक्षिप्तता होती है।
माकूल वक्त
इस बदलाव को लागू करने के लिए आगामी बजट भाषण एकदम माकूल मौका हो सकता है। इसका एक निर्विवाद एवं अकाट्य कारण है और वह यह है कि सरकार के पास आवंटित करने के लिए रकम ही नहीं दिख रही है।
सच तो यह है कि मौजूदा परिदृश्य में बजट भाषण के पहले खंड का स्वरूप ही पूरी तरह अलग हो जाना चाहिए। इसमें उन कटौतियों का जिक्र होना चाहिए जो सभी तरह के फालतू आवंटनों पर लागू किए गए हैं और आखिर में किसी भी हालत में दिए नहीं जाते हैं।
इस काम के लिए व्यय सचिव को मनचाही संख्या में लाल पेंसिल दी जा सकती हैं। मुझे लगता है कि सरकार कम-से-कम इतना बोझ तो उठा ही सकती है।
अगर प्रधानमंत्री अपने स्वभाव के उलट पहले खंड को संक्षिप्त रखने के बारे में पुराने उद्धरण मांगते हैं तो उन्हें वे तमाम भाषण दिखाए जा सकते हैं जिनका पहला खंड 30 मिनट के भीतर ही पढ़ लिया गया था। उन्हें यह भी बताया जाना चाहिए कि बजट भाषण में पहला खंड चार दशक पहले ही जोड़ा गया था जिसका मकसद यह था कि सरकार बढ़चढ़कर अपनी बातें रख सके। लेकिन बदलते वक्त के साथ यह पूरी तरह गैरजरूरी हो चुका है।
अब समय आ गया है कि बजट भाषण की लंबाई कम की जाए क्योंकि इससे कोई भी उपयोगी उद्देश्य पूरा नहीं होता है।
