शांघाई में करीब-करीब दो महीनों के पूर्ण लॉकडाउन के बाद इस माह के आरंभ में वहां नए सिरे से आंशिक लॉकडाउन लगा दिया गया। कोविड को लेकर शून्य-सहनशीलता की चीन की इस अत्यंत आग्रही रणनीति ने वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला (जीवीसी) के समीकरण बिगाड़ दिए हैं। यह श्रृंखला नए सिरे से आकार ले रही है और उससे जुड़े अंशभागी नए ठिकाने तलाश रहे हैं। यह प्रक्रिया यूं तो पिछले दशक से जारी है, किंतु उसकी गति लड़खड़ाती रही। पुनर्गठन की इस प्रक्रिया में भारत इससे जुड़ी इकाइयों को अभी तक खास आकर्षित नहीं कर पाया है। अब उसके समक्ष एक और अवसर दस्तक दे रहा है, जिसे गंवाना नहीं चाहिए।
जीवीसी पुनर्गठन की प्रक्रिया 2008-09 में वैश्विक वित्तीय मंदी के दौर में ही शुरू हो गई थी। फिर जापान में आए भूकंप और सुनामी के बाद 2011 में थाईलैंड में आई बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं ने इस सिलसिले को और तेजी से आगे बढ़ाया। जहां भूकंप ने सेमीकंडक्टर उत्पादन को प्रभावित किया, वहीं थाईलैंड की बाढ़ ने ऑटोमोटिव वैल्यू चेन के साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक्स एवं इलेक्ट्रिकल उपकरणों की आपूर्ति पर असर डाला। तब बड़ी कंपनियों ने पुनर्संतुलन का जोखिम उठाया। जीवीसी का क्षेत्रीयकरण या पड़ोसी देशों में छोटी दूरी की आपूर्ति श्रृंखलाएं इसमें तरजीही विकल्पों के रूप में उभरीं। किसी आकस्मिक स्थिति या एकाएक मांग में वृद्धि से ताल मिलाने के लिए निकटवर्ती उत्पादन सुविधाओं ने लचीलापन प्रदान किया।
पिछले दशक के अंत में जब अमेरिका-चीन व्यापार रिश्तों में तनाव अपने चरम पर पहुंच गया था तब बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए ‘चीन प्लस वन’ (चीन के साथ एक और देश में उत्पादन केंद्रित करना) वैकल्पिक रणनीति के रूप में उभरी। उसमें यूरोपीय संघ, मैक्सिको, ताइवान और वियतनाम जैसे देश स्पष्ट विजेता के रूप में उभरे, जहां वाहन, मशीनरी, परिवहन एवं इलेक्ट्रिकल उपकरणों जैसे क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर निवेश हुआ। मशीनरी क्षेत्र में मामूली से लाभ को छोड़ दिया जाए तो चीन से इस व्यापार पलायन पर भारत को कोई खास फायदा नहीं पहुंचा। महामारी के चलते सीमाओं की नाकाबंदी और उसके बाद यूक्रेन युद्ध ने आपूर्ति श्रृंखला संबंधी दुश्वारियों को और बढ़ा दिया है, क्योंकि इनके चलते प्रमुख खनिजों, पदार्थों और अन्य आवश्यक तत्वों की आपूर्ति में गतिरोध उत्पन्न हो गया है। जीवीसी को ज्यादा लचीला एवं व्यावहारिक बनाने के लिए अब वैकल्पिक व्यापार साझेदारों से उन प्रमुख कच्चे मालों की आसान आपूर्ति का विकल्प तलाशा जा रहा है, जो आवश्यक वस्तुओं की भरपाई कर सकें। इस संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यही आता है कि आवश्यक कच्चे माल या इनपुट के लिए उचित व्यापार साझेदार कैसे तलाए जाएं? क्या वे क्षेत्र की परिधि में ही होने चाहिए, मित्र राष्ट्रों के पड़ोस में हों या फिर देश के भीतर घरेलू आपूर्तिकर्ताओं से इसकी पूर्ति की जाए? वैश्विक स्तर पर जीवीसी को लचीलापन प्रदान करने के लिए स्थानीयकरण और क्षेत्रीयकरण जैसे दो विकल्पों को लेकर चर्चा हो रही है।
क्षेत्रीयकरण और स्थानीयकरण दोनों में ही भू-राजनीतिक जोखिम घटाने के लिए क्षमताओं-गुणवत्ता के स्तर पर समझौता किया जा सकता है। फिर भी क्षेत्रीयकरण उसमें बेहतर विकल्प है। स्थानीयकरण के अंतर्गत महत्त्वपूर्ण इनपुट पर शुल्क (टैरिफ) बढ़ाकर और उन पर प्रतिबंध जैसे संरक्षणवादी कदमों के माध्यम से घरेलू स्तर पर उत्पादित इनपुट के उत्पादन को प्रोत्साहन दिया जाता है। साथ ही घरेलू स्तर पर समग्र आपूर्ति श्रृंखला को स्थापित करने की कवायद बहुत समय लेने वाली है। इससे भी महत्त्वपूर्ण यह है कि पूरी तरह घरेलू इनपुट पर निर्भरता स्थानीय आपूर्ति श्रृंखला को ठहराव का शिकार बना देगी और बाहरी झटकों से निपटने में उसकी क्षमताएं घट जाएंगी।
भारत के मामले में यह और अधिक प्रासंगिक है, जो घरेलू स्तर पर ही समूची आपूर्ति श्रृंखला बनाने के अभियान में जुटा है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत की व्यापार नीति अधिक संरक्षणवादी हुई है और यह भी एक प्रमुख कारण रहा है, जिसके चलते भारत पूर्व में जीवीसी पुनर्गठन और व्यापार पलायन के दौर का लाभ नहीं उठा पाया।
पिछले दो दशकों के दौरान जीवीसी आधारित व्यापार में मध्यवर्ती (इंटरमीडिएट) वस्तुओं-कलपुर्जों का वर्चस्व निरंतर बढ़ने पर है। कई देशों ने इसका लाभ उठाने के लिए अपनी नीतियां बदली हैं। चीन और आसियान अर्थव्यवस्थाओं को ही लें तो उन्होंने विशेष रूप से वाहन और इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र में काम आने वाले पुर्जों के व्यापार में अनुकूल शुल्क बनाए हैं। इन देशों में निर्यात-केंद्रित प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को आकर्षित करने में इसका अहम योगदान रहा है। इसके विपरीत भारत में जीवीसी-इंटेंसिव क्षेत्रों में न केवल ऊंचे शुल्क हैं, बल्कि ड्यूटी मुक्त प्रावधान भी बहुत कम हैं। यहां तक कि मुक्त व्यापार समझौतों (एफटीए) में आयात औपचारिकताओं से जुड़ी जटिलताएं भी निर्यातकों की राह कठिन करती हैं। वहीं अब ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि कुछ जिंसों का आयात करने के लिए लाइसेंस व्यवस्था शुरू हो सकती है।
चीन पर दृष्टि डालें तो आयात घटाने और आत्मनिर्भरता बढ़ाने को लेकर चीन ने बीते कुछ वर्षों में जो दांव चला वह जीवीसी सहभागिता के अत्यंत ऊंचे स्तर के बाद ही संभव हुआ। दूसरी ओर भारत को देखें तो बीते दो दशकों में यहां जीवीसी एकीकरण का स्तर कम रहा और 2012 से वह और घटने पर है। चीन, मलेशिया, वियतनाम, थाईलैंड और मैक्सिको जैसे अन्य उभरते बाजारों के उलट भारत की व्यापार नीति व्यापार बढ़ाने में जीवीसी एकीकरण के साथ ही विनिर्माण प्रतिस्पर्धा क्षमताएं बढ़ाने की महत्ता को समझने पर केंद्रित ही नहीं है। यही कारण है कि पिछले दो दशकों में जहां वैश्विक व्यापार रुझान में विनिर्माण का दबदबा रहा तो विश्व व्यापार में भारत की उपस्थिति बहुत सीमित दिखी। (व्यापक विश्लेषण आप मेरी हाल में प्रकाशित पुस्तक ‘इंडियाज ट्रेड पॉलिसी इन ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी’ में देख सकते हैं।)
निम्न एवं अनुकूल शुल्क ढांचे के अतिरिक्त व्यापार एवं निवेश समझौते भी जीवीसी-क्षेत्रीय वैल्यू चेन नेटवर्क्स के साथ जुड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भारत ने हाल में एफटीए/व्यापक व्यापार अनुबंधों पर वार्ता की गति बढ़ाई है। ये एफटीए भारत के निर्यात को बढ़ाने में भले ही मददगार हों, लेकिन इसमें संदेह है कि इससे भारत के निर्यात में विविधीकरण बढ़े और उसमें विनिर्मित वस्तुओं की हिस्सेदारी बढ़े या फिर भारतीय विनिर्माण की प्रतिस्पर्धा को नए पंख लगें। भारत खाड़ी के जिन देशों के साथ एफटीए की दिशा में कदम बढ़ा रहा है, उनका जीवीसी-आरवीसी से कोई खास जुड़ाव नहीं। इसीलिए भारत द्वारा आसियान या पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं को अनदेखा नहीं करना चाहिए। विशेषकर इन संकेतों के बीच कि अब चीन के बजाय जापान और कोरिया से अमेरिका को सीधे ही जरूरी वस्तुओं का निर्यात किया जाने लगा है। भारत ने आरसेप को भले ही ठंडे बस्ते में डाल दिया हो, लेकिन उसे आसियान, जापान और कोरिया से व्यापार बढ़ाने के रास्ते तलाशने चाहिए। साथ ही ऑस्ट्रेलिया के साथ करार को भी जल्द से व्यापक रूप में पूर्णता प्रदान करे। कुल मिलाकर सार यही है कि दीर्घकालिक विनिर्माण प्रतिस्पर्धा क्षमताएं हासिल करने के लिए जीवीसी के साथ जुड़ाव महत्त्वपूर्ण है। ऐसे में चीन की शून्य-कोविड रणनीति से जो अवसर बना है, उसे भुनाने के लिए भारत को अपनी व्यापार नीति को नए सिरे से गढ़ना चाहिए।
(लेखिका जेएनयू में अंतरराष्ट्रीय अध्ययन केंद्र में अर्थशास्त्र की प्राध्यापक हैं)