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विनिर्माण केंद्र बनने में आ रही गुणवत्ता की समस्या

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 11, 2022 | 3:51 PM IST

सरकार ने भारत को वैश्विक उत्पादन का प्रमुख केंद्र बनाने के लिए समय-समय पर प्रोत्साहन योजनाएं और कार्यक्रम घोषित किए। क्यों फिर भारत वैश्विक स्तर पर उत्पाद का प्रमुख केंद्र नहीं बन पाया है? हाल ही में सरकार ने उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन की योजनाएं घोषित की हैं। लेकिन क्या यह पूर्व घोषित नीतियों से बेहतर प्रदर्शन कर पाएंगी और भारत को सही मायने में वैश्विक उत्पादन का केंद्र बना पाएगी? इस सवाल का जवाब देना कुछ कारणों से जरूरी है।
पहला, बीते कुछ सालों में वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला बाधित होने और भू राजनीतिक तनाव के कारण सभी देशों के लिए चीन पर निर्भरता कम करना जरूरी हो गया है। साल 2020 की शुरुआत में जब महामारी शुरू हुई थी और चीन में लॉकडाउन लगा था तब विश्व के हर विनिर्माता पर असर पड़ा था। उस दौर में मध्यकाल की इस राजशाही वाले देश के विकल्प के तौर पर कई देश संभावित प्रमुख केंद्र के रूप में देखे गए थे। उस समय विश्व वैश्विक उत्पादन के संभावित प्रमुख केंद्र के रूप में भारत की ओर आशा भरी निगाह से देख रहा था। हालांकि इस दौड़ में मलेशिया, इंडोनेशिया, वियतनाम सहित कुछ और देश भी शामिल थे। लेकिन भारत का बड़ा वैश्विक नीतिगत निवेश आकर्षित करने के मामले में प्रदर्शन निराशाजनक रहा। हालांकि उत्पादन में इस्तेमाल होने वाले सामान और विनिर्मित उत्पाद के मामले में चीन पर भारत की निर्भरता बढ़ गई है।

दूसरा, तेजी से फलते-फूलते विनिर्माण क्षेत्र के बिना भारत में बढ़ती बेरोजगारी की समस्या का हल खोजने की उम्मीद नहीं है। सेवा क्षेत्र अपने में रोजगार के समुचित अवसर पैदा नहीं कर पाएगा। आजकल के दौर में विनिर्माण क्षेत्र में कम मानवश्रम की जरूरत होती है लेकिन फिर भी दुनियाभर में रोजगार पैदा करने में मुख्य हिस्सेदारी इस क्षेत्र की है। जब विश्लेषकों ने देश के विनिर्माण अधिनियम को दुरुस्त करने की कोशिश की तो उन्हें कई समस्याओं का सामना करना पड़ा। इसमें कुछ सर्वमान्य समस्याएं जैसे आधारभूत संरचना, लागत और कारोबार करने की सहजता, करों की उच्च दर और लगातार बदलती नीतियां उजागर हुईं। हालांकि एक प्रमुख समस्या गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया जाता है। भारत का नियामक विनिर्माताओं में गुणवत्ता को लेकर जागरूकता फैलाने में विफल रहा है। भारत में औषधि, भोजन, उपभोक्ताओं के इस्तेमाल के इलेक्ट्रॉनिक या वाहन आदि क्षेत्रों में अपेक्षाकृत कम कड़े मानदंड अपनाए गए हैं। विकसित देशों की तुलना में भारत के नियामक ने कम कड़े मानदंडों को अपना रखा है। इसमें भी सबसे खराब पहलू यह है कि कानून लागू करने वाली एजेंसियों ने अपेक्षाकृत कम मानदंडों को अपनाने में भी ढिलाई बरत रखी है। ऐसा कोई मामला याद नहीं पड़ता है कि विनिर्माण के किसी क्षेत्र ने उत्पाद को बड़े स्तर पर वापस मंगवाया हो या नियामकों ने विनिर्माण सुविधाओं की गुणवत्ता बेहतर करने के लिए कड़े कदम उठाए हों। ऐसे कदम बेहद महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों खाने और औषधि में भी नहीं उठाए गए हैं। मानदंड निर्धारित किए जाने के दौरान भारत के नियामक आमतौर पर विनिर्माताओं की समस्याओं के बारे में अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं लेकिन वे उपभोक्ताओं की आदतें बदलने के बारे में कम तवज्जो देते हैं। वाहन क्षेत्र में भारतीय निर्माता नियमित रूप से उच्च सुरक्षा के मानदंडों वाले उपकरणों का निर्यात करते हैं और इन उत्पादों को घरेलू बाजार की जगह विदेश के बाजार को मुहैया कराया जा रहा है। हालांकि भारत में बेचे जाने वाले मॉडल की तुलना में विदेशों में बेचे जाने वाले मॉडल की कीमत आमतौर पर कम होती है। इसका कारण कर और अन्य कारण होते हैं।
 

इसी तरह औषधि क्षेत्र में भारत जेनेरिक दवाओें के निर्माण का बड़ा केंद्र बनने का प्रयास कर रहा है। अमेरिका और अन्य देशों को औषधि निर्यात करने वाली इकाइयां आमतौर पर संबंधित देश के कड़े मानदंडों का पालन करती हैं। इन्हें अपनी अपनी विनिर्माण इकाइयों का निरीक्षण भी कराना होता है। भारत के दवा निर्माताओं को अमेरिका में दवाओं का निर्यात करने के लिए अपनी विनिर्माण संचालन इकाइयों का ‘यूएस एफडीए’ से निरीक्षण कराना होता है। निरीक्षण पास होने के बाद ही अमेरिका को दवाई निर्यात की जा सकती है। हालांकि इसी दवाई को भारत में बनाने और बेचने के लिए कम नियामक जांच और फैक्टरी में कम गुणवत्ता नियंत्रणों की जरूरत होती है।
 

कम गुणवत्ता मानदंडों को अपनाने के लिए आमतौर पर यह तर्क दिया जाता है कि उच्च मानदंडों को अपनाने से लागत कहीं ज्यादा बढ़ जाएगी। यह पूरी तरह भ्रामक तर्क है। आमतौर पर उच्च गुणवत्ता मानदंडों के बजाए करों और आधारभूत मुद्दों के कारण लागत बढ़ती है। असलियत में देखा जाए तो बड़े निर्यातक बनने वाले ज्यादातर देशों ने गुणवत्ता मानदंडों को अपनाकर अपने उत्पाद की लागत घटाई है। क्यों फिर हमारे देश की सरकार और विनिर्माता गुणवत्ता के उच्च मानदंडों पर ध्यान नहीं केंद्रित करते हैं? क्यों चीन मानवश्रम की लागत अधिक होने के बावजूद ज्यादातर क्षेत्रों में भारत से कम लागत पर उत्पाद तैयार कर लेता है? जापान की गुणवत्ता क्रांति से वैश्विक विनिर्माण समुदाय प्रभावित हुआ था। कई देशों के साथ भारत ने भी खुशी-खुशी ‘टीक्यूएम से काइजन से सिक्स सिग्मा’ अपना लिया। ये कारोबार को बेहतर करने के तरीके हैं। इन तरीकों को 20वीं सदी में जापान और अमेरिका के विनिर्माण उद्योगों में जोरशोर से अपनाया गया था। वैसे कई भारतीय विनिर्माता उच्च गुणवत्ता मानदंडों को अपनाने के पर्यायवाची बन गए हैं। भारत ने वाहन आदि कई क्षेत्रों में बेहतरीन प्रदर्शन किया है। मैं इसका कारण 1990 के दशक में शुरू किए गए आर्थिक उदारीकरण को मानता हूं। इससे पहले भारत के विनिर्माता गुणवत्ता को लेकर अधिक चिंतित नहीं थे। भारत में जब आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ था तब भारत के उपभोक्ताओं की उम्मीदें और विकसित देशों के बाजार में मांग को लेकर खासा अंतर था। विकसित देशों का मध्यम वर्ग जिस उच्च गुणवत्ता वाले सामान से परहेज करता था, उसी सामान को भारत के मध्यम वर्ग ने सहर्ष स्वीकार किया और उससे भी अधिक बेहतर किस्म के सामान की इच्छा जताई। (भारत के अमीर लोगों की मांग अंतरराष्ट्रीय गुणवत्ता वाला सामान रहा है और जब भी वे जरूरी समझते हैं, विदेश जाकर खरीदारी करते रहे हैं। ) विकसित देशों के बाजार के सभी क्षेत्रों के लिए सरकार गुणवत्ता मानदंड का ‘बेंचमार्क’ निर्धारित करने की पहल कर सकती है। यह कभी सोचा नहीं गया कि देश को विनिर्माण का प्रमुख केंद्र बनाने के लिए गुणवत्ता बेहद जरूरी है। देश को विनिर्माण का केंद्र बनाने के लिए कई मुद्दों पर ध्यान दिया गया लेकिन गुणवत्ता को पूरी तरह नजरंदाज कर दिया गया। मेरे विचार से यह बड़ी गलती थी, इसने वैश्विक विनिर्माण का केंद्र बनने के अपने लक्ष्य को दूर किया है।
 

(लेखक बिज़नेस टुडे और बिज़नेस वर्ल्ड के पूर्व संपादक और संपादकीय परामर्श संस्था प्रोजैक व्यू के संस्थापक हैं)

First Published : September 7, 2022 | 9:35 PM IST