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नीति नियम: सत्ता की आत्मसंतुष्टि और शेख हसीना का पराभव

हसीना को तब सत्ता से बेदखल होना पड़ा जब उन्होंने सेना पर बहुत ज्यादा दबाव डाला। संभव है कि उन्होंने पिछले एक दशक में सेना को खरीदने की कोशिश की हो।

Last Updated- August 14, 2024 | 11:12 PM IST

अब जबकि सब कुछ बीत चुका है तब लगता है कि बांग्लादेश में सत्ता से बेदखल की गईं प्रधानमंत्री शेख हसीना की पकड़ के बारे में लोगों में काफी बेफिक्री या आत्मसंतुष्टि थी। आधिकारिक विपक्षी दल बांग्लादेश नैशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की स्थिति भी बेहद खराब होने के कारण आवामी लीग अजेय ही नजर आ रही थी। बीएनपी की नेता खालिदा जिया को 2018 में 17 वर्षों के लिए जेल की सजा सुनाई गई और वह कुछ समय से बीमार चल रही हैं।

बांग्लादेश जमात-ए-इस्लामी के कई समर्पित कार्यकर्ता उसके साथ बने हुए हैं मगर उसका पिछला रिकॉर्ड और विचारधारा कारगर विपक्ष के तौर बीएनपी की विश्वसनीय विकल्प बनने की राह में आड़े आ रही थीं। संगठित राजनीतिक चुनौती के अभाव में यही लगता थी कि हसीना जब तक चाहेंगी, बांग्लादेश में सत्ता में बनी रहेंगी।

हमें पता है कि यह धारणा कितनी गलत थी। ढाका यूनिवर्सिटी के छात्रों के नेतृत्व में कई हफ्ते तक चले विरोध प्रदर्शनों के बाद दुनिया में सबसे लंबे समय तक सरकार चलाने वाली महिला शेख हसीना को पद छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। मगर इसकी वजह हसीना की सरकार और पार्टी के कुछ गलत फैसले भी थे, विशेषकर प्रदर्शनकारियों का दमन करने के लिए सड़कों पर हिंसा के इस्तेमाल का उनका प्रयास। हसीना की सरकार को बचाने के लिए की गई हिंसा में कई लोग मौत के शिकार हुए।

सरकारें भले ही तानाशाही क्यों न हों अगर वे प्रदर्शकारियों से निपटने के लिए हिंसा का सहारा नहीं लेती हैं तो उनके बने रहने की संभावना बेहतर हो जाती है। लेकिन अगर वे ऐसा कदम उठाती हैं तब उन्हें यह जरूर सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके पास बड़ी संख्या में और लंबे समय तक रहने वाला बल है और सेना का पूरा समर्थन भी हासिल है।

कीव में एक दशक पहले मैडन स्क्वैर प्रदर्शन के दौरान रूस के समर्थन वाली विक्टर यानुकोविच सरकार तब चरमराई, जब दंगे पर नियंत्रण करने वाली विशेष पुलिस के साथ झड़प में 100 से अधिक लोग मारे गए। यानुकोविच को सेना से अर्द्धसैनिक बलों के प्रति समर्थन नहीं मिला और उन्हें भागना पड़ा। उसमें और 4 जून, 1989 में अंतर साफ दिख जाता है, जब पीपल्स लिबरेशन आर्मी ने थ्येन आन मन चौक पर छात्रों को कुचलने का आदेश खुशी-खुशी मान लिया था और कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता मजबूत हो गई थी।

हसीना को तब सत्ता से बेदखल होना पड़ा जब उन्होंने सेना पर बहुत ज्यादा दबाव डाला। संभव है कि उन्होंने पिछले एक दशक में सेना को खरीदने की कोशिश की हो। लेकिन यह दोधारी तलवार है। आप सेना की वफादारी हमेशा के लिए नहीं खरीद सकते, आप कुछ समय के लिए साथ बने रहने का समझौता भर कर सकते हैं। तानाशाही सरकारों वाले देशों में सेनाओं की पहली प्राथमिकता हमेशा अपना रुतबा और विशेष अधिकार बनाए रखना होती है। इसके लिए जरूरी हुआ तो वह फायदा देने वाले का साथ भी छोड़ सकती है या उसका समर्थन करने से मुकर सकती है। सबसे कट्टर तानाशाही वाले शासनकाल में भी अंतिम ताकत सेना के ही हाथ में होती है।

अरमांडो इआनुची की फिल्म ‘द डेथ ऑफ स्टालिन’ इतिहास को सही दिखाने का दावा नहीं करती मगर फिल्म में दिखाई गई यह बात निश्चित रूप से सच है कि तानाशाह स्टालिन की मौत के बाद उसके मुख्य जासूस लावरेंटी बेरिया के नेतृत्व वाले स्टालिनवादी गुट को सत्ता से हटाने के लिए मार्शल जॉर्जी झुकोव का समर्थन आवश्यक था।

इसी वजह से शेख हसीना प्रकरण के बाद बांग्लादेश के कदमों पर गौर किया जाना चाहिए ताकि यह समझा जा सके कि सेना कितनी ताकतवर हो जाती है कि वह अगली सरकार भी बना देती है। मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार बेहतर परिस्थितियों में भी 2000 के दशक जैसी सरकारों की तरह ही काम करेगी जो ‘सामान्य’ राजनीति बहाल करने, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने तक सत्ता में बनी रहीं। इसके बाद जो भी सत्ता संभालेगा, उसके पास यह ताकत हो सकती है कि वह सेना को उसकी बैरकों में वापस भेज दे। इसके बावजूद उन्हें सैन्य नेतृत्व के साथ सहमति बनानी होगी, जिसमें सेना के व्यावसायिक हितों की रक्षा करना भी शामिल है।

पाकिस्तान और मिस्र की तरह बांग्लादेश में भी नेताओं ने मध्यम और वरिष्ठ स्तर के सैन्य अधिकारियों को अपने पाले में बनाए रखने के लिए सेना को असैन्य अर्थव्यवस्था में दखल देने की इजाजत दे दी है। ऐसा करने से शुरू में तो लगता है कि सेना का साथ मिल जाएगा, लेकिन लंबे समय तक ऐसा करने से देश में अस्थिरता बढ़ती है। शेख हसीना इस बात को अब समझ चुकी हैं क्योंकि उन्हें भी सत्ता से हटाया जा चुका है।

हम सभी को उम्मीद है कि हालात अच्छे होंगे और यूनुस का भी मानना है कि वह शायद इस लक्ष्य को हासिल भी कर सकते हैं। लेकिन, निष्पक्ष होकर देखा जाए तो बांग्लादेश की राजनीति के लक्षण अच्छे नहीं हैं। सेना शायद सत्ता पाने की बहुत इच्छा नहीं रखती हो, लेकिन उसे ऐसा महसूस हो सकता है कि अपने हितों की रक्षा के लिए ऐसा करना बेहद जरूरी है। सेना उस सूरत में भी ऐसा कर सकती है, जब उसे लगे कि कोई दूसरा विकल्प अराजकता और निरंतर अव्यवस्था बढ़ा सकता है या राजनीतिक इस्लामवाद का उभार हो सकता है जैसा मिस्र में अब्दल फतल अल-सीसी के शासन में हुआ।

भारत और अमेरिका निस्संदेह इस नाटकीय घटनाक्रम के सबसे आत्मसंतुष्ट पात्र रहे हैं। भारत की पड़ोसी देशों से जुड़ी नीति बहुत अच्छी नहीं रही है जिसके कारण जमीनी या समुद्री सीमा से लगे लगभग सभी पड़ोसी देशों से इसकी दूरी बढ़ी है। किंतु यह पिछले कुछ वर्षों में इस पर विचार करने को भी तैयार नहीं दिखा कि शेख हसीना को बिना शर्त समर्थन उसे अलग-थलग कर रहा है। जहां तक अमेरिका की बात है, उसके पास पिछले दो वर्षों से ढाका में अमेरिका के एक ऐसे राजदूत रहे हैं जिन्होंने अवामी लीग सरकार का अमेरिका के प्रति अविश्वास ही बढ़ाया है और विपक्ष में जिम्मेदार शासन या उदार मूल्यों के प्रति सम्मान के बीज बोने में भी कोई योगदान नहीं दिया।

तानाशाह और उनके समर्थक कभी भी आत्मसंतुष्ट या लापरवाह नहीं हो सकते। जनता किसी भी समय उन्हें उखाड़ फेंकने के लिए खड़ी हो सकती है और अगर सेना का साथ मिल जाए तो वह सफल भी हो सकती है।

First Published - August 14, 2024 | 11:12 PM IST

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