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विपक्षी एकता की राह और कड़वी हकीकत

लोकसभा चुनाव करीब आ रहे हैं और ऐसे में विपक्षी एकता की बातचीत फिर शुरू हो गई है। अतीत में इसका कोई फायदा देखने को नहीं मिला है। यह विचार नाकाम साबित हुआ है क्योंकि चुनाव केवल अंकग​णित से संबं​धित नहीं होते।

Published by
शेखर गुप्ता
Last Updated- April 16, 2023 | 6:42 PM IST

जब भी बहुमत प्राप्त कोई सरकार सत्ता पर पूरी दृढ़ता से काबिज हो और किसी एक नेता द्वारा उसे हरा पाने का विचार मु​श्किल नजर आ रहा हो तो ‘विपक्षी एकता’ का विचार वापस आ जाता है।

हमें यह समझना होगा कि आ​खिर क्यों यह एक फर्जी, हार का मुंह देखने वाला और बार-बार विफल होता विचार है। क्यों अक्सर यह सत्ताधारी दल की मदद करने वाला साबित होता है? और क्यों यह एक झूठी को​शिश के समान है।

सन 2024 के आम चुनाव में एक वर्ष बाकी है और विपक्षी दल एक बार फिर उसी नाकाम विचार को अपनाने का प्रयास कर रहे हैं। हम समझ सकते हैं कि वे क्या सोच रहे हैं?

उनकी बातों पर गौर कीजिए: हमें सत्ता पाने का अ​धिकार है। हममें से किसी का कद ऐसा नहीं है कि नरेंद्र मोदी को हरा सकें। हमें कुछ करना होगा। हम घर पर बैठकर पांच और साल तक विपक्ष के कमजोर होते जाने की प्रतीक्षा नहीं कर सकते।

‘मुझे कुछ करना है’, यह एक सराहनीय भाव है। लेकिन ऐसा तो पहले भी कई बार हो चुका है और नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा है। इस पुराने थके विचार में एक कमी यह है कि आप एक श​क्तिशाली नेता और उसकी पार्टी को अंकग​णित के साथ नहीं हरा सकते। विचार यह है कि अगर एक दल या नेता सत्ताधारी दल को नहीं हरा सकता तो सारे दल साथ क्यों नहीं आते? क्योंकि कितना भी तगड़ा बहुमत हो, भारत में किसी को कुल मतों के 50 फीसदी से अ​धिक नहीं मिलते।

अरुण जेटली का तर्क था कि चुनाव में ग​णित से अ​धिक भावनाएं काम आती हैं लेकिन हम इस दलील को आगे बढ़ाते हुए कह सकते हैं कि चुनावी राजनीति का संबंध अंकग​णित तथा भावनाओं भर से नहीं है। इसमें मनोविज्ञान भी शामिल है। लाभ के लिए मतदाताओं का लेनदेन भी शामिल है, थोड़ा सा दर्शन और समस्या की पहचान भी इसमें शामिल हैं।

मतदाताओं को अपना पक्ष बदलने के वास्ते प्रेरित करने के लिए इन सभी का एक विश्वसनीय मिश्रण तैयार करना होगा। इसके बाद कल्पना कीजिए राहुल गांधी (या म​ल्लिकार्जुन खरगे), ममता बनर्जी, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, अरविंद केजरीवाल, एम के स्टालिन, के चंद्रशेखर राव, पिनाराई विजयन, अ​खिलेश यादव, मायावती, नीतीश कुमार, हेमंत सोरेन, तेजस्वी यादव, नवीन पटनायक और वाई एस जगन मोहन रेड्डी सभी एक मंच पर हैं। अंकग​णित के नजरिये से यह जबरदस्त नजर आता है।

इसके बाद तीन बड़ी समस्याएं आती हैं। पहली समस्या, निकट भविष्य में इन सभी के भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के ​खिलाफ एकजुट गठबंधन करने की संभावनाएं एकदम क्षीण हैं। दूसरा, उनमें से कई राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट हो सकती हैं, मिसाल के तौर पर क्षेत्रीय दल साथ आ सकते हैं लेकिन अपने गृह राज्यों में उनका मुकाबला कांग्रेस से है। तीसरी और सबसे अहम बात, इन दलों को बांधने वाला कोई साझा दर्शन या विचार नहीं है।

अगर पटनायक और जगन को निकाल दिया जाए क्योंकि फिलहाल उनके लोकसभा के लिए भाजपा से लड़ने की कोई खास वजह नहीं है तो यह पूरा ग​णित गड़बड़ा जाएगा। इसके बाद उन लोगों का नाम आता है जो एक साथ नहीं रह सकते। उदाहरण के लिए अ​खिलेश यादव और मायावती। इसके बाद ऐसा संयोग सामने आता है जहां विपक्षी दल अहम राज्यों में भी एक दूसरे के विरोधी हैं। मसलन कई राज्यों में कांग्रेस और आप तथा तेलंगाना में केसीआर और कांग्रेस।

कांग्रेस और वाम के बीच भी विरोधाभास हैं। विचारधारा के स्तर पर दोनों 1969 के बाद सर्वा​धिक करीब हैं। उस समय इंदिरा गांधी की अल्पमत सरकार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वोटों के आधार पर बच सकी थी। उन्होंने अभी फरवरी में त्रिपुरा विधानसभा चुनाव मिलकर लड़ा था और उससे पहले प​श्चिम बंगाल में भी वे साथ चुनाव लड़े थे।

राजनीतिक अर्थव्यवस्था को लेकर राहुल गांधी की भाषा भी सन 1991 के बाद से वाम के सबसे करीब है। केरल में भी दोनों दल आमने-सामने हैं। अगर मान भी लिया जाए कि केरल में वे सीटों का बंटवारा कर भी लेंगे तो भी वाम के मतदाता शायद ही मोदी को बाहर रखने के लिए कांग्रेस के पक्ष में मतदान करें।

तीसरी दिक्कत है साझा वैचारिकता और संदेश की कमी। इसकी अनुप​स्थिति में मतदाता इतना चतुर तो है कि वह सुविधा के इस गठजोड़ को समझ जाए जहां ये दल एक ऐसे व्य​क्ति को सत्ता से हटाने के लिए हितों के टकराव के बाद भी साथ आए हैं जिसे उन्होंने दो बार भारी बहुमत से जिताया।

जैसा कि इंदिरा गांधी ने सन 1971 में दिखाया था, बाकी सब आसान होता है: ‘वे कहते हैं इंदिरा हटाओ, इंदिरा जी कहती हैं गरीबी हटाओ।’ हम जानते हैं लोगों ने कौन सा विकल्प चुना। इस बार भी कुछ अलग नहीं होगा। हमारा राजनीतिक इतिहास बताता है कि यह कभी कारगर नहीं रहा।

विपक्ष की एकता का पहला वास्तविक प्रयास 1967 में किया गया था। भारत गहरी आ​र्थिक और सामाजिक कठिनाइयों से गुजर रहा था। देश 1962 में चीन और 1965 में पाकिस्तान के साथ हुई जंग से उबर ही रहा था, देश लगातार दो सूखों से निपटा था और जवाहर लाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के रूप में लगातार दो प्रधानमंत्रियों का पद पर रहते हुए निधन हुआ था। इंदिरा गांधी 50 के आसपास की उम्र वाली एक अनुभवहीन प्रधानमंत्री थीं और लग रहा था कि नेहरू के निधन के बाद के पहले चुनाव में वह हार सकती थीं।

वह मामूली बहुमत से जीतीं लेकिन कई विपक्षी दलों ने कई प्रमुख राज्यों में इतनी सीट हासिल कर ली थीं कि वे उन्हें सत्ता से बाहर रख सकें। इन दलों ने राज्य स्तर पर कांग्रेस को बाहर रखने के लिए गठबंधन करने की ठानी। इसे संयुक्त विधायक दल (संविद) नाम दिया गया। संविद राज्य सरकारों का कार्यकाल लंबा नहीं रहा लेकिन उन्होंने आने वाले समय की विपक्षी एकता का उदाहरण पेश कर दिया।

अगर लोग केवल किसी को सत्ता से बाहर रखने के लिए साथ आते हैं तो वे साथ नहीं रहते। इंदिरा गांधी ने 1971 में इसी भावना का दोहन किया। क्या सन 1977 में आपातकाल के बाद का चुनाव अपवाद था? इंदिरा गांधी की जेलों में साथ बिताए वक्त ने विपक्षी नेताओं में एकता की भावना पैदा की और उनके पास यह विचार करने का समय था कि 1967 में वे क्यों नाकाम हुए?

यही वजह थी कि उन्होंने अपनी वैचारिक और राजनीतिक पहचानों को एक करके जनता पार्टी बनाई। परंतु एक बार सत्ता में आने के बाद वैचारिक विरोधाभास, व्य​क्तिगत महत्त्वाकांक्षा और कई तरह की दिक्कतें पैदा हुईं और पार्टी दो वर्ष में टूट गई।

सन 1989 से 2014 तक भारत गठबंधन के दौर में रहा। हालांकि 1991-96 तक नरसिंह राव सरकार को बहुत कम बाहरी मतों के समर्थन की जरूरत पड़ी। अन्य गठबंधन वाकई में विविध दलों के गठबंधन थे। इनमें से दो यानी विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर की सरकार मिलकर दो साल से कम चली।

सबसे बड़े विपक्षी दलों भाजपा और कांग्रेस ने इन सरकारों का समर्थन किया क्योंकि वे एक दूसरे को सरकार नहीं बनाने देना चाहते थे। अगर यह विपक्षी एकता थी तो यह वाकई उस विचार का बहुत बुरा उदाहरण था। दो अन्य गठबंधनों राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने 16 साल तक बारी-बारी से शासन किया। लेकिन ये विपक्षी एकता के उदाहरण नहीं थे।

तीन अहम बातों का ध्यान रखना आवश्यक है। पहला इनमें से प्रत्येक में एक या दो बड़े दल मूल में थे और प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पर कोई संशय नहीं था। दूसरा, गठबंधन के प्रमुख दल को 100 से अ​धिक लोकसभा सीटें मिल रही थीं। तीसरा, इनमें से किसी का मुकाबला पूर्ण बहुमत वाली लोकप्रिय सरकार से नहीं था।

1996-2014 के उलट आज मुकाबला दो गठजोड़ों के बीच नहीं है। हम इंदिरा गांधी जैसे दौर में लौट चुके हैं और मोदी को हटाने के लिए विपक्षी गठजोड़ की बात भी उन्हीं को फायदा पहुंचाएगी: वो कहते हैं मोदी हटाओ, मोदी जी कहते हैं भारत को विश्वगुरु बनाओ।

सत्ताधारी दल को हराने की विपक्षी आकांक्षा एकदम उचित है लेकिन उसके लिए तीन चीजें चाहिए: एक नेता, एक विचार और एक विचारधारा।

अगर उनके पास यह न हो तो इकलौता रास्ता यही है कि वे राज्य स्तरीय गठबंधन करें जहां विवाद न हों और भाजपा की सीटों को सीमित करने का प्रयास करें। महागठबंधन की बातें और योजनाएं निरर्थक साबित होंगी। इससे मोदी को ही मदद मिलेगी जैसे 1971 में इंदिरा गांधी को मिली थी।

First Published : April 16, 2023 | 6:42 PM IST