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जल संबंधी असुरक्षा मिटाने के लिए समग्र प्रयास जरूरी

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 11, 2022 | 9:28 PM IST

खाद्य असुरक्षा दूर करने की दिशा में कुछ महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई लेकिन जल असुरक्षा के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती है। जल संकट लगातार गहरा होता जा रहा है। नवीकरणीय संसाधन होने के बावजूद पानी कई जगहों पर दुर्लभ हो चुका है।
सरकारी थिंकटैंक नैशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया (नीति) आयोग के मुताबिक करीब 60 करोड़ लोग (आबादी का लगभग आधा हिस्सा) पानी के अत्यधिक संकट से गुजर रहा है। पानी की प्रति व्यक्ति वार्षिक उपलब्धता सन 1950 के दशक के 5,178 घन मीटर से घटकर 1,441 घन मीटर रह गई है। यह 1,700 घन मीटर की जल संकट की सीमा से नीचे है। लगातार गहरे होते जल संकट की चिंता को प्रकट करते हुए ही 2019 की आर्थिक समीक्षा में कहा गया था कि सन 2050 तक भारत जल संकट का वैश्विक केंद्र बन सकता है।
विडंबना ही है कि ऐसा तब है जबकि भारत में होने वाली औसत वर्षा उसकी जरूरतों के हिसाब से पर्याप्त है। देश में औसतन करीब 120 सेंटीमीटर वर्षा और हिमपात होता है जो 100 सेंटीमीटर के वैश्विक औसत से अधिक है। बहरहाल, इस पानी का बड़ा हिस्सा बेकार बहकर समुद्र में मिल जाता है या वाष्पित हो जाता है। वर्षा जल का बहुत थोड़ा हिस्सा सतह पर मौजूद जलाशयों तथा भूजल के रूप में संरक्षित हो पाता है। इससे भी बुरी बात यह है कि इस उपलब्ध जल का भी समझदारीपूर्वक इस्तेमाल नहीं हो पाता।
भारत में सबसे अधिक पानी की खपत खेती के काम में होती है। हमारा 80 प्रतिशत से अधिक पानी खेतों में लगता है। दुख की बात है कि यही वह क्षेत्र है जो संसाधनों के मामले में सबसे अधिक गैर किफायती माना जाता है। खेतों में अक्सर जरूरत से अधिक पानी फिजूल इस्तेमाल कर लिया जाता है। अनुमान बताते हैं कि औसतन कुल इस्तेमाल किए जाने वाले पानी में 30 से 40 फीसदी पानी ही फसलों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। शेष पानी या तो पौधों की जड़ों से दूर दूसरी परतों में चला जाता है या फिर वाष्पित हो जाता है। चूंकि सिंचाई की जरूरतों का बड़ा हिस्सा भूजल से पूरा होता है इसलिए यह संसाधन भी तेजी से समाप्त हो रहा है। खासतौर पर पंजाब, हरियाणा, आंध्र प्रदेश और कुछ अन्य जगहों में ऐसा हो रहा है। इन क्षेत्रों में हर वर्ष जितना पानी रीचार्ज नहीं होता उससे अधिक निकाल लिया जाता है। यही कारण है कि यहां जल स्तर लगातार नीचे जा रहा है और कई इलाकों में तो अत्यंत गहराई में भी जल निकाल पाना मुश्किल हो गया है। सब्सिडी, खासतौर पर पंप आदि चलाने के लिए रियायती या नि:शुल्क बिजली मिलने की वजह से भी भूजल का बेजा इस्तेमाल हो रहा है।
सतह पर उपलब्ध जल से सिंचाई (नहर से सिंचाई) के मामलों में भी पानी का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल मोटे तौर पर इसलिए होता है कि पानी का मूल्य अन्य संसाधनों की तरह नहीं है। नहर से होने वाली सिंचाई आजादी के पहले सरकार के लिए राजस्व का जरिया थी लेकिन अब यह राजकोष पर बोझ बन चुकी है। राजनीतिक कारणों से कई राज्यों में दशकों से पानी की दरों में कोई बदलाव नहीं हुआ है। यहां तक कि जो दरें निर्धारित हैं उनका संग्रह भी समुचित तरीके से नहीं हो पाता।  जबकि 1987 में आई राष्ट्रीय जल नीति में साफतौर पर इस बात को रेखांकित कर दिया गया था कि पानी की कीमतों को तार्किक बनाया जाए। नीति में कहा गया था कि पानी की कीमत इस तरह निर्धारित की जानी चाहिए कि इस संसाधन के दुर्लभ होने का संदेश उपयोगकर्ताओं तक पहुंचे और वे पानी के किफायती इस्तेमाल के लिए प्रेरित हों। नीति में कहा गया कि शुल्क इतना होना चाहिए जिसकी मदद से सालाना परिचालन और रखरखाव शुल्क तथा सिंचाई के कामों की तयशुदा लागत वसूली जा सके। सन 2002 में राष्ट्रीय जल नीति के उन्नत संस्करण में भी  ऐसे ही बिंदु उठाए गए।
सिंचाई के पानी के लिए उपयुक्त शुल्क वसूलने की प्रमुख वजहें यही हैं कि पानी के किफायती इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा सके, जल संरक्षण किया जा सके तथा संभावित उपयोगकर्ताओं के बीच इसका समान वितरण किया जा सके। अध्ययन दिखाते हैं कि खेती के काम में अगर पानी के इस्तेमाल में 10 फीसदी भी किफायत बरती जाए तो इतना पानी बचाया जा सकता है जिससे 1.4 करोड़ हेक्टेयर अतिरिक्त खेतों की सिंचाई की जा सकती है। जरूरत इस बात की है कि सिंचाई के चैनलों में सुधार किया जाए, कम पानी का इस्तेमाल करने वाली तकनीक अपनाई जाएं और पानी का इस्तेमाल करने वालों को वितरण में शामिल करके जल प्रबंधन में सुधार किया जाए। पानी के इस्तेमाल को किफायती बनाने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि ड्रिप और स्प्रिंकलर जैसी सिंचाई की आधुनिक प्रणालियां इस्तेमाल की जाएं। इन तकनीक को अपनाकर 60 से 70 फीसदी पानी बचाया जा सकता है। हकीकत में सूक्ष्म सिंचाई वाले इलाकों में फसल उत्पादन भी अपेक्षाकृत बेहतर होता है। सरकार द्वारा प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के माध्यम से मोर क्रॉप पर ड्रॉप (हर बूंद से ज्यादा उपज) की अवधारणा को उचित ही बढ़ावा दिया जा रहा है। सरकार सूक्ष्म सिंचाई उपकरणों पर भी काफी सब्सिडी प्रदान कर रही है। परंतु देश के कुल 6.8 करोड़ हेक्टेयर से अधिक रकबे में से बमुश्किल 55 लाख हेक्टेयर रकबा ही इस तकनीक से सिंचित होता है। फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री (फिक्की) द्वारा समर्थित एक अध्ययन में पाया गया कि ड्रिप इरिगेशन से पानी के इस्तेमाल में 85 से 90 फीसदी किफायत आती है। इसके अलावा यह बिजली और ईंधन की खपत को कम करने तथा उर्वरकों के इस्तेमाल को कम करने में भी मदद करता है।
ऐसे में यह स्पष्ट है कि भारत बुनियादी रूप से पानी की कमी वाला देश नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि उसका जल संकट दूर नहीं किया जा सकता है। अगर कमी है तो केवल समुचित प्रबंधन और उपलब्ध पानी के समझदारीपूर्वक इस्तेमाल की। इन पहलुओं पर समग्रता से विचार करना होगा।

First Published : February 2, 2022 | 11:23 PM IST