प्रगति पर समकालीन बहस में आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच चले आ रहे पुराने द्वंद्व को खारिज कर दिया गया है। सतत विकास की जरूरत को समझना आज के वैश्विक दृष्टिकोण को रेखांकित करता है। अपशिष्ट उत्पादन और उसका सही तरीके से निपटान जैसे गंभीर मुद्दे पर हम सब का ध्यान केंद्रित रहता है। आधुनिक अर्थव्यवस्था में अनचाहे उत्पाद के तौर पर लगातार बढ़ता कचरा विश्व स्तर पर दोनों कारकों पारिस्थितिकी तंत्र और लोगों के स्वास्थ्य के समक्ष गंभीर चुनौती खड़ी करता है। हालिया आंकड़े भी हालात की भयावता को प्रदर्शित करते हैं।
विश्व बैंक का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक वैश्विक स्तर पर 3.4 अरब टन तक अपशिष्ट पैदा होगा। यह मौजूदा वार्षिक स्तर 2.01 अरब टन से बहुत ज्यादा है। लगातार उभरते शहरीकरण, जनसंख्या वृद्धि और उपभोक्तावादी जीवनशैली जैसे कारक बेतहाशा कूड़ा उत्पादन के मुख्य कारण हैं। यह बड़े खतरे की निशानी है, जिस पर फौरन ध्यान दिए जाने की जरूरत है।
विश्व बैंक के अनुमान की तरह ही ‘वेस्ट वाइज सिटीज’ के तहत यूएन हैबिटैट ने भी इस दिशा में प्रकाश डाला है कि नगर निकायों से निकलने वाला ठोस कचरा वर्ष 2050 तक लगभग दोगुना हो जाएगा। इसमें यह भी कहा गया है कि लगभग 3 अरब लोग अपशिष्ट निबटान की व्यवस्थित सुविधाओं से वंचित हैं।
यूं तो हर तरह का कचरा खतरनाक है, परंतु इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से निकलने वाला कचरा वैश्विक स्तर पर बड़ी समस्या बन रहा है, क्योंकि इसमें बहुत ही खतरनाक यौगिक होते हैं। कूड़े का उचित तरीके से प्रबंधन नहीं होने के कारण वायु और जल के साथ-साथ मृदा भी प्रदूषित होती है। कचरा इसलिए भी बड़ी समस्या बनता जा रहा है कि इसके उठान के बुनियादी ढांचे का व्यापक तौर पर अभाव है और आज भी निबटान की पारंपरिक विधियां अपनाई जाती हैं।
खुली और गंदी लैंडफिल साइट पेयजल को दूषित करती हैं। इससे संक्रमण एवं बीमारियां फैलने का खतरा रहता है। इधर-उधर फैले कचरे के कारण पूरा पारिस्थितिकी तंत्र प्रदूषित होता है, जबकि औद्योगिक कचरे अथवा ई-कचरे से निकलने वाले जहरीले यौगिक शहरी निवासियों के साथ-साथ पर्यावरण को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाते हैं।
बढ़ते कचरे के कारण समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र भी इस समय अभूतपूर्व चुनौती का सामना कर रहा है। अनुमान इस बात की ओर संकेत करते हैं कि यदि कचरे में इसी गति से वृद्धि होती रही तो वर्ष 2050 तक समुद्र में प्लास्टिक का भार मछलियों से ज्यादा हो जाएगा। रिहायशी बस्तियां भी इसी समस्या से दोचार हो रही हैं। कचरा कुप्रबंधन के कारण वायु और जल दोनों प्रदूषित हो रहे हैं। नतीजतन जलवायु संकट खड़ा हो रहा है और पूरे विश्व में लोगों के स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा हो रहा है। इस पर्यावरणीय नुकसान से निपटने के लिए आर्थिक अड़चनें नहीं हैं, फिर भी निष्क्रियता इन पर हावी है।
भारत के शहरी परिदृश्य की कड़वी सच्चाई दो शहरों की कहानी कहती है: एक वैश्विक स्तर पर पहचान हासिल कर रहा है, जबकि दूसरा अपने कचरे के ढेर के नीचे दबा संघर्ष कर रहा है। बड़े शहरों में हजारों टन कचरा प्रतिदिन निकलता है, जो पहले से ही उफन रहीं लैंडफिल में पहुंचता है अथवा रिहायशी इलाकों की गलियों और नालों में भरता जाता है। निम्न मध्य वर्गीय इलाकों में हालात और भी बदतर हैं, जहां साफ-सफाई और कचरा प्रबंधन सेवाएं प्राय: एक ख्वाब ही हैं।
इन बस्तियों के पास कचरे के बड़े-बड़े ढेर कठोर वास्तविकता है। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक भारत में प्रति वर्ष लगभग 6.2 करोड़ टन कचरा उत्पन्न होता है। इसमें करीब 4.3 करोड़ टन कचरा संग्रहित कर लिया जाता है, जबकि शेष 3.1 करोड़ टन लैंडफिल में डाला जाता है। शहरों का विस्तार बहुत तेजी से हो रहा है और बदलती जीवनशैली खपत पैटर्न को प्रभावित कर रही है। इस कारण ऐसा अनुमान है कि नगरों में इस दशक के अंत तक ठोस कचरा उत्पादन 16.5 करोड़ टन बढ़ सकता है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की ठोस कचरा प्रबंधन नियम 2016 के कार्यान्वयन पर वार्षिक रिपोर्ट (2020-21) के अनुसार देश में प्रतिदिन 160,038.9 टन ठोस कचरा उत्पन्न होता है, जिसमें से 152,749.5 टन अथवा 95.4 प्रतिशत प्रतिदिन सफलतापूर्वक संग्रहित कर लिया जाता है। कुल संग्रहित अपशिष्ट में 79,956.3 टन यानी लगभग आधे को संसाधित कर लिया जाता है और शेष 29,427.2 टन अथवा 18.4 प्रतिशत लैंडफिल में डाला जाता है।
इस बीच प्रति दिन निकलने वाला 50,655.4 टन यानी कुल उत्पन्न कचरे का 31.7 प्रतिशत इधर-उधर बिखरा रहता है यानी उसका उठान ही नहीं होता। रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि वर्ष 2015-16 और 2020-21 के बीच छह वर्षों में प्रति व्यक्ति अपशिष्ट उत्पादन में मामूली गिरावट आई है। वर्ष 2020-21 में 119.7 ग्राम प्रति व्यक्ति ठोस कचरा प्रति दिन निकला था। राज्य स्तर पर इस सूची में दिल्ली शीर्ष पर रहा। विशेष यह कि छत्तीसगढ़ में 100 प्रतिशत ठोस कचरे का प्रबंधन अथवा निपटान किया जाता है।
लगातार बढ़ते कूड़े को लेकर हालात भयावह होने के बावजूद कचरा उत्पादन और प्रबंधन की तरफ वैश्विक स्तर पर उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा, जितना आवश्यक है। इस चुनौती से निपटने की पहल अक्सर वित्तीय अड़चनों और आपसी सामंजस्य की कमी से ग्रस्त दिखाई देती हैं। लेकिन कभी गहरे पैठ बना चुकी ‘आर्थिक विकास पर्यावरण की कीमत पर होना चाहिए’ की धारणा अब पुरानी और बिल्कुल गलत साबित हो रही है।
इस समस्या का समाधान तो रिसाइक्लिंग (पुनर्चक्रण) और चक्रीय अर्थव्यवस्था सिद्धांत अपनाने समेत टिकाऊ अपशिष्ट प्रबंधन में ही निहित है। इससे पर्यावरण की सुरक्षा के साथ-साथ आर्थिक लाभ भी होंगे। टिकाऊ अपशिष्ट प्रबंधन के मामले में कुछ देश बेहतर काम कर रहे हैं, जिन्होंने शेष दुनिया के लिए मानक स्थापित किए हैं। स्वीडन का नवीकरणीय वेस्ट टू एनर्जी यानी कूड़े से ऊर्जा कार्यक्रम वहां लैंडफिल साइट को कम करने में काफी कारगर साबित हुआ है।
इसी प्रकार जर्मनी का मजबूत पुनर्चक्रण बुनियादी ढांचा इस बात का उदाहरण है कि कैसे चक्रीय आर्थिक सिद्धांत अपनाकर कचरे को कम किया जा सकता है। टिकाऊ अपशिष्ट प्रबंधन में समाज के सभी क्षेत्रों से सहयोग किए जाने की आवश्यकता है। सरकारी नीतियां ऐसी हों जो कचरा निपटान की टिकाऊ उपायों को प्रोत्साहित करें। हरित प्रौद्योगिकी और चक्रीय मॉडल व्यवसाय केंद्रित होना चाहिए। आम लोगों को भी उपभोग और अपशिष्ट निपटान के लिए अधिक ईमानदार दृष्टिकोण अपनाना होगा।
(कपूर इंस्टीट्यूट फॉर कंपीटिटिवनेस, इंडिया में चेयर और स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी में व्याख्याता हैं। देवरॉय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन हैं। लेख में जेसिका दुग्गल का सहयोग)