भारत की शहरी आबादी कितनी बड़ी है? सन 2011 की जनगणना के मुताबिक शहरों में रहने वाली भारतीय आबादी 31 फीसदी थी। यह आंकड़ा शहरी इलाकों की जनगणना परिभाषा के अनुसार था। इन बसावटों में से करीब 4,000 नगर निगम की सीमा से बाहर थीं और 2011 की जनगणना के अनुसार ये शहरी आबादी का करीब 30 फीसदी थी।
जनगणना और नगर निकाय के तहत आने वाले शहरी इलाकों के बीच अंतर का एक हिस्सा शायद इस बात में निहित था कि संसाधन केंद्रित फैक्टरियां प्राकृतिक संसाधनों के स्रोतों के आसपास स्थापित की जा रही थीं। ग्रामीण इलाकों में भूमि अधिग्रहण की आसानी की वजह से भी फैक्टरियों को नगर निकायों के सीमांत इलाकों में स्थापित किया जाता है। यह तथ्य 2021-22 के सालाना औद्योगिक सर्वेक्षण और 2022-23 के सावधिक श्रम शक्ति सर्वे में भी सामने आया जो दर्शाता है कि विनिर्माण क्षेत्र के करीब 40 फीसदी कर्मचारी ग्रामीण इलाकों में हैं।
विश्लेषकों ने सैटेलाइट से बस्तियों, जमीनी परिदृश्य, रात में जलने वाली बत्तियों की तीव्रता आदि के आंकड़ों को जनगणना के आंकड़ों से मिलाकर जनगणना के अनुमानों पर प्रश्न खड़ा किया। एक हालिया अनुमान में कहा गया कि कि 2011 में शहरी आबादी कुल आबादी का 43 फीसदी थी, न कि 31 फीसदी जैसा कि जनगणना में अनुमान जताया गया।
बहरहाल इस आंकड़े में जनगणना के गैर कृषि गतिविधियों के शहरीकरण मानकों को शामिल नहीं किया गया जिसमें शहरी क्षेत्रों के 75 फीसदी पुरुष कर्मी आते हैं। इस वजह से गंगा के मैदानी इलाकों में आबादी बहुत अधिक नजर आती है- उत्तर प्रदेश में 55 फीसदी, बिहार में 74 फीसदी और पश्चिम बंगाल में 69 फीसदी। ऐसा घनी आबादी वाली बसावट के कारण हो सकता है।
जनगणना में कम अनुमान वैकल्पिक अनुमान में सुझाए गए 12 फीसदी के बराबर कम नहीं हो सकता है। अब जबकि 2011 को 13 वर्ष बीत चुके हैं जनगणना में शहरी अनुपात 140 करोड़ की कुल आबादी के करीब 37.5 फीसदी होगा। जनगणना के कम अनुमान को ध्यान में रखते हुए शहरी आबादी 55 करोड़ हो सकती है।
शहरी इलाकों के 55 करोड़ लोगों की शहरों और कस्बों के प्रबंधन और विकास में कोई खास भूमिका नहीं होती जबकि वे वहीं रहते हैं और उन्हें नगर निकायों में मताधिकार भी हासिल है। उनमें से कुछ ही लोग ऐसे हैं जिनके नगर निकाय राजकोषीय दृष्टि से स्वतंत्र हैं जो नगर निकाय की गतिविधियों को पूरा कर सकते हैं। अफसरशाहों को मुख्य प्रशासक के रूप में नियुक्त किया जाता है और वही शहरों के प्रबंधन कार्यक्रम तय करते हैं। मुंबई में कई लोग निगम आयुक्त का नाम तो बता लेंगे लेकिन बहुत कम होंगे जो शहर के महापौर का नाम बता सकें।
शहरी विकास कार्यक्रमों का निर्धारण केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा किया जाना जारी है और वहां अनिवार्य रूप से स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट या पुरानी राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन जैसी परियोजनाएं होती हैं। वे उतनी ही अधूरी हैं जितनी कि अंतरराष्ट्रीय सहायता संगठनों द्वारा तय राष्ट्रीय विकास नीति जो समग्र विकास के बजाय क्षेत्रवार पहलों पर ध्यान देती है।
जरूरत इस बात की है कि निर्णय लेने की जवाबदेही उस स्तर पर होनी चाहिए जहां इसका प्रभाव सबसे अधिक होता है। शहरी इलाकों के संदर्भ में शहरों और कस्बों के लिए प्राधिकार का समुचित स्तर नगर निकाय है।
इसके लिए प्राधिकार का प्रभावी इस्तेमाल करना होगा, नगर निकायों को वित्तीय आवश्यकताओं के लिए उच्च स्तर पर प्राधिकारों पर निर्भर नहीं होना चाहिए। नगर निकायों का संचालन मॉडल नागरिकों की संबद्धता वाला होना चाहिए। सहायकता का सिद्धांत भी इसकी आवश्यकता बताता है।
लब्बोलुआब यह कि नगर निकायों को अधिकार संपन्न बनाया जाए, उन्हें वित्तीय स्वतंत्रता प्रदान की जाए और उनके कामकाज को लोकतांत्रिक बनाया जाए। फिलहाल भारत में ये तीनों ही नजर नहीं आ रहे हैं।
शहरी क्षेत्रों के प्रबंधन के इस तरीके को कई विकसित देशों में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए न्यूयॉर्क शहर में निर्वाचित मेयर को शहर स्तर पर लिए जाने वाले निर्णयों में पूरी आजादी होती है जबकि न्यूयॉर्क राज्य के चुने हुए गवर्नर का प्रभाव सीमित होता है। क्या हम अपने बड़े शहरों को ऐसे अधिकार प्रदान कर सकते हैं?
पहला लक्ष्य है शहरी शासन को लोकतांत्रिक बनाना। निर्वाचित राज्य सरकार के पास उन शहरों के राजनीतिक अधिकार होते हैं जिन पर अक्सर अफसरशाहों का शासन होता है। बहरहाल, एक निर्वाचित नगर निकाय तभी प्रभावी हो सकता है जब वह उच्च स्तर से कम प्रभावित हो।
राजकोषीय स्वतंत्रता अहम है। सन 1992 में 73वें और 74वें संविधान संशोधनों की मदद से शासन के तीसरे स्तर को संवैधानिक दर्जा दिया गया यानी शहरी और ग्रामीण स्थानीय सरकारों को। संविधान के अनुच्छेद 280 में संशोधन करके वित्त आयोग के कार्यक्षेत्र का विस्तार किया गया ताकि अतिरिक्त फंड को एक राज्य के समावेशी फंड में स्थानांतरित किया जा सके और पंचायतों तथा स्थानीय निकायों की जरूरत को अनुदान से पूरा किया जा सके। यह प्रक्रिया 10वें वित्त आयोग से आरंभ हुई। तेरहवें वित्त आयोग ने अनुदानों को अपेक्षाकृत शर्त रहित बनाया और पंद्रहवें वित्त आयोग ने बांटे जाने योग्य कर पूल में तीसरे स्तर की सरकार की हिस्सेदारी को बढ़ाकर तीन फीसदी कर दिया।
क्या हम संविधान में और संशोधन करके एक करोड़ से अधिक आबादी वाले शहरों को एक अलग श्रेणी में डाल सकते हैं जिन्हें उस कर पूल में से अधिक हिस्सा मिले, बजाय कि राज्यों को हस्तांतरित राशि के हिस्से के? क्या उन्हें राष्ट्रीय शहर घोषित करना चाहिए? यह बात ध्यान रहे कि वस्तु एवं सेवा कर ने शहरों से मनोरंजन कर और प्रवेश शुल्क वसूलने का अधिकार छीन लिया।
वे संपत्ति कर लगा सकते हैं और तीसरी श्रेणी के शहरों को अपने संपत्ति कर में उल्लेखनीय इजाफा करना पड़ सकता है क्योंकि विकसित देशों से तुलना करें तो वर्तमान में वह काफी कम है। शहरों के विस्तार की वास्तविकता को देखते हुए एक और प्रशासनिक विकास की जरूरत है ताकि दिल्ली जैसे शहरी परिसर में फरीदाबाद, गाजियाबाद, नोएडा, गुरुग्राम और बहादुरगढ़ तथा मुंबई के साथ नवी मुंबई, भिवंडी तथा कल्याण में नगर निकायों के बीच प्रभावी सहयोग सुनिश्चित किया जा सके। इन्हें तथा ऐसे ही अन्य समूहों को साथ लाने की आवश्यकता है।
शहरी शासन को सशक्त बनाना न केवल शहर के लिए जरूरी है बल्कि राष्ट्रीय विकास के लिए भी आवश्यक है जिसका भविष्य तकनीकी विकास, निर्यात आधारित वृद्धि, डिजिटल सेवा विस्तार और कई अन्य ऐसी पहलों पर निर्भर है जिनके लिए बेहतर प्रबंधन वाले शहरी क्षेत्रों की आवश्यकता होगी जो उच्च कौशल वाले लोगों और अग्रसोची उपक्रमों को आकर्षित कर सकें।
इसमें न केवल स्थानीय लॉजिस्टिक्स और बुनियादी ढांचे को शामिल करने के लिए बल्कि क्षेत्रीय और राष्ट्रीय जरूरतों के साथ उनका एकीकरण करने के लिए नगर निकाय विकास योजना को नया स्वरूप प्रदान करने की आवश्यकता होगी। इसमें राष्ट्रीय वृद्धि योजना को शामिल करना होगा, खासतौर पर राष्ट्रीय जलवायु प्रबंधन रणनीति में।
इसमें शहरों में हरभरा क्षेत्र तैयार करना, उच्च तापमान से निपटने के इंतजाम करना और जलवायु अनिश्चितता से निपटना तथा समुद्री जल स्तर में इजाफे तथा तूफानों से पार पाने जैसी बातें शामिल होंगी। सबसे बढ़कर रहवासियों की सेवा करने वाली क्षेत्रीय संस्था के रूप में इसे उन बातों पर ध्यान देना होगा जिनके चलते ग्रामीण रहवासी शहरों की ओर आते हैं। इसमें काम के अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य और संस्कृति से जुड़ी बेहतर सेवाएं शामिल हैं।
जैसे-जैसे हमारी अर्थव्यवस्था का विकास होगा, अधिक से अधिक भारतीय शहरों में रहने लगेंगे। ऐसे में शहरों को सशक्त बनाना हमारी दीर्घकालिक विकास नीति का अहम हिस्सा होना चाहिए।