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राष्ट्र की बात: एन शब्द, सॉफ्ट पावर और कठोर सचाई

पीड़ित होने की मानसिकता अक्सर बहुत लुभाती है और हमने बीती तमाम पीढ़ियों के दौरान उसे एक पुरानी बीमारी के रूप में विकसित कर लिया है। बहरहाल इस स्थापना को लेकर कई समस्याएं भी हैं

Last Updated- May 25, 2025 | 9:49 PM IST
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नहीं, हम यहां ‘एन’ का प्रयोग न्यूक्लियर या परमाणु हथियारों के लिए नहीं कर रहे हैं। हम ऐसे सरल उदाहरणों का इस्तेमाल नहीं करते। यही वजह है कि इस आलेख में हमने ‘एन’ का इस्तेमाल नैरेटिव या आख्यान निर्माण के लिए किया है। यह एक अभिव्यक्ति इतनी घिसी-पिटी है कि मैंने इसे लगातार न्यूजरूम में प्रतिबंधित किया है, जब तक कि, निश्चित रूप से, नैरेटिव वह न हो जिसके बारे में हम बात कर रहे हैं। पहलगाम आतंकी हमले के तुरंत बाद चर्चाएं आरंभ हो गईं। दुनिया पाकिस्तान की आलोचना क्यों नहीं कर रही है? ऑपरेशन सिंदूर के साथ यह शिकायत एक शोर में बदल गई। कोई भी हमें ‘शाबाश’ क्यों नहीं कह रहा है? पश्चिमी मीडिया इसका संदिग्ध था। वे हमारे सशस्त्र बलों की कामयाबी को रेखांकित क्यों नहीं कर रहे हैं? वे ऐसा कैसे कह सकते हैं कि हमें नुकसान हुआ है?

उसके बाद डॉनल्ड ट्रंप कूद पड़े और शोर-शराबा कोलाहल में बदल गया। एक अपरिहार्य निष्कर्ष सामने आया कि कोई हमारे साथ नहीं है। भारत को अपनी लड़ाई अकेले लड़नी है। पीड़ित होने की मानसिकता यकीनन आकर्षक होती है और हमने बीती तमाम पीढ़ियों के दौरान इसे एक बीमारी के रूप में विकसित कर लिया है। हालांकि इसके साथ तथ्यात्मक दिक्कतें हैं।

पहली बात, 1965 के अलावा हम कभी अकेले नहीं रहे। 1971 में सोवियत संघ हमारा संधि से जुड़ा सहयोगी था। करगिल के दौरान, ऑपरेशन पराक्रम में और 26/11 के समय लगभग पूरा का पूरा शेष विश्व हमारे साथ था। यहां तक कि चीन भी खामोश था। वर्ष1998 में पोकरण-2 के बाद अमेरिका ने प्रतिबंध हटाने में अधिक समय नहीं लगाया, उसने भारत को रणनीतिक रूप से अहम, परमाणु हथियार संपन्न मित्र माना और कश्मीर पर कभी कोई विपरीत बात नहीं कही। वर्ष2000 में एक यात्रा के दौरान पाकिस्तान में अपने संक्षिप्त पड़ाव में बिल क्लिंटन ने कैमरे पर पाकिस्तान से कहा कि इस क्षेत्र के नक्शे की रेखाएं अब खून से नहीं खींची जा सकतीं। पाकिस्तान इस तरह अमेरिका का सहारा गंवा बैठा और चीन के संरक्षण में चला गया।

पुलवामा-बालाकोट के बाद अमेरिका ने शांति स्थापना में वह भूमिका निभाई जो भारत के अनुकूल थी। तब से अब में अंतर यह है कि 47वें राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप अपने पिछले कार्यकाल से एकदम अलग हैं। इस बार वह एक स्कूली बच्चे की तरह व्यवहार कर रहे हैं जिसे हर चीज का श्रेय चाहिए। ट्रंप पर नजर रखने वाले जानते हैं कि उन्हें अपने मित्रों और सहयोगियों तक को सार्वजनिक रूप से अपमानित करने में मजा आता है। वे उनके साझा प्रतिद्वंद्वियों को खुश करने का दिखावा भी करते हैं। उन्होंने कनाडा के मार्क कार्नी, यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदीमीर जेलेंस्की और अभी हाल में दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति सिरिल रामाफोसा का अपमान किया। इसके लिए उन्होंने व्हाट्सऐप विश्वविद्यालय के स्तर के ‘श्वेतों के नरसंहार’ के जुमले का इस्तेमाल किया।

दुनिया अभी भी नौटंकी करने वाले ट्रंप और प्रशासन संभालने वाले ट्रंप में अंतर करना सीख रही है। जब भी आप ट्रंप के ट्वीट्स में बढ़ाचढ़ाकर कही गई बातों से नाराज हों तो आप मार्को रुबियो, जेडी वेंस, तुलसी गैबार्ड, काश पटेल और अन्य लोगों के ट्वीट्स पढ़िए। यहां तक कि भारत और पाकिस्तान को संबोधित रुबियो के बयान भी बारीक होते हैं। पाकिस्तान को सलाह दी गई कि वह भारत के साथ सहयोग करे और भारत को सलाह दी गई कि वह अपनी जमीन पर सक्रिय आतंकियों के विरुद्ध कार्रवाई करे। भारत और क्या चाहता है? गोली मारने का लाइसेंस?

आत्मदया से ग्रस्त और पीड़ित दिखना दरअसल पराजित होने से भी बुरा है क्योंकि यह आपको हताश करता है। हाल के दिनों में सुनी गई सबसे मूर्खतापूर्ण बात यह है कि पश्चिम (पढ़ें अमेरिका) ने भारत को पाकिस्तान की बराबरी पर रख दिया है। सुनिए, क्या किसी ने आपसे कहा कि आप कश्मीर मुद्दे पर बातचीत में शामिल होकर मध्यस्थता की पेशकश कीजिए? यहां तक कि ट्रंप का बड़बोलापन भी युद्ध विराम तक भी है। भारत द्वारा जम्मू-कश्मीर का संवैधानिक दर्जा बदले करीब छह वर्ष हो चुके हैं।

किसी मित्र शक्ति ने आपत्ति नहीं की। यह भी नहीं कहा कि दर्जा वापस बदला जाए। तुर्किये हमारे लिए मायने नहीं रखता और अजरबैजान तो बिल्कुल भी नहीं। जहां तक इस्लामिक सहयोग संगठन की बात है तो किसी मुस्लिम देश के पास इस लगभग निष्क्रिय संगठन के लिए समय नहीं है। ताजा दौर में भी इंडोनेशिया, बहरीन और मिस्र जैसे महत्त्वपूर्ण इस्लामिक देशों ने यह सुनिश्चित किया कि भारत की आलोचना बहुत कम हो।

हकीकत यह है कि मित्रहीन होने से दूर आज भारत विश्व में जिस स्थिति में है वैसी बेहतरीन हैसियत उसकी शीतयुद्ध के बाद कभी नहीं रही। यह विडंबना ही है कि तमाम दोस्तों के बीच भी भारत एकला चलो रे की नीति पर चल रहा है। साथ ही यह जी20 वाले दौर से एक जबरदस्त वापसी है जब भारत को दुनिया का उभरता सितारा माना जाता था और नरेंद्र मोदी को ऐसा नेता जिसका हर कोई सम्मान कर रहा था।

ऐसे में क्या बदलाव आया है इसे लेकर हमारी समझ इस बात पर निर्भर करती है कि हमारी अपेक्षाएं क्या हैं? हम अमेरिका को सहयोगी देश कहने से बचे। हमने जोर दिया कि क्वाड को सुरक्षा गठजोड़ नहीं कहा जाए (हालांकि ट्रंप ने मोदी की मौजूदगी में ऐसा कहा), हमने यूक्रेन के बाद बार-बार यूरोप की आलोचना की। हमने रणनीतिक स्वायत्तता की बात की जिसने भारत की मदद की है। ऐसे में वर्तमान में हम अपने दोस्तों से क्या अपेक्षा कर सकते हैं? कि वे पाकिस्तान के विरुद्ध हमारे साथ आएं? क्या हमने ऐसा किया? हकीकत तो यह है कि कई अमेरिकियों ने अपने ट्वीट और वक्तव्यों में भारत को साझेदार बताया।

दोबारा एन-शब्द पर आते हैं। हम अजीब लोग हैं, बल्कि हम तो सत्ता प्रतिष्ठान से भी ज्यादा अजीब हैं, जो पश्चिमी मीडिया, गैर-सरकारी संगठनों, थिंक टैंक, बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदों को तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं। हम यह मानते हैं कि वे सभी हमारे प्रति पूर्वग्रह रखते हैं। वे भारत के उभार को नहीं सह सकते। उनका हमारे लिए कोई महत्त्व नहीं है। हमें बिना परवाह किए आगे बढ़ना चाहिए। ऐसे में हम उनकी आलोचना और सवालों को इतनी तरजीह देते क्यों हैं?

बीते वर्षों में हमारे प्रतिष्ठान ने पश्चिमी मीडिया के साथ संपर्क घटाया है। खासकर उनके साथ जो भारत में हैं। उनमें से अधिकांश को वीजा की दिक्कतों का सामना करना पड़ा है और उन्हें भारत-विरोधी माना गया है। उसके बाद भी हम शिकायत करते हैं कि वैश्विक मानस हमारे खिलाफ है और हम सांसदों को जनता के धन से विदेश भेज रहे हैं ताकि इस नुकसान को कम किया जा सके। हमें पहले यह तय करना होगा कि दुनिया की राय हमारे लिए मायने रखती है या नहीं।

वैश्विक राय महज शिखर बैठकों या ऑपरेशन सिंदूर जैसी घटनाओं से नहीं आकार लेती। यह कुछ जटिल कारकों का मिश्रण होती है जिसमें किसी देश की सॉफ्ट पावर शामिल है। जब पाकिस्तान के इंटर सर्विसेज पब्लिक रिलेशंस के महानिदेशक ने कहा कि भारतीय मीडिया भी अपनी सरकार के दावों पर सवाल उठा रहा है तो विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने यह कहकर सही जवाब दिया कि लोकतंत्र ऐसे ही काम करता है और भला पाकिस्तान यह सब कैसे जानेगा? क्या इसके साथ ये बातें सही बैठती हैं कि उन्हें उनकी बेटी के विचारों के कारण निशाने पर लिया गया या फिर अशोक विश्वविद्यालय के प्रोफसर को ऐसी फेसबुक पोस्ट के कारण गिरफ्तार किया गया जिसे समझने के लिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय को भी तीन वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों की मदद लेनी पड़ी कि वे समझाएं कि उसमें आपत्तिजनक क्या है?

अली खान महमूदाबाद (उक्त प्रोफेसर) का मामला न्यूयॉर्क टाइम्स तक में छपा। परंतु हमारे कमांडोनुमा मजाक बन गए समाचार चैनल किसी निजी लड़ाई की खबरें देते रहे जहां नौसेना ने कराची पर, सेना ने इस्लामाबाद पर और वायु सेना ने बीच की तमाम जगहों पर कब्जा कर लिया। यह इतना शर्मनाक हो गया था कि आखिरकार सरकार को उन्हें चुप कराना पड़ा कि वे हवाई हमले वाले सायरन का इस्तेमाल अपने पार्श्व संगीत में न करें। इन सभी बातों ने भारत को क्षति पहुंचाई है और देश की साफ्ट पावर को कमजोर किया। इस नैरेटिव वाले एन-शब्द को सही करने के लिए हमें यहां से शुरुआत करनी होगी। इस बीच हमें उम्मीद है कि हमारे सांसद कुछ हासिल करके लौटें।

First Published - May 25, 2025 | 9:49 PM IST

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