महत्त्वपूर्ण खनिजों और दुर्लभ मृदा तत्त्वों का महत्त्व 21वीं सदी में बहुत अधिक बढ़ गया है। इलेक्ट्रॉनिक्स, नवीकरणीय ऊर्जा, इलेक्ट्रिक वाहनों (ईवी), रक्षा, अंतरिक्ष और चिकित्सा उपकरणों में उपयोग की दृष्टि से आज ये अर्थव्यवस्था के केंद्र बिंदु में हैं। उदाहरण के लिए अंतरराष्ट्रीय नवीकरणीय ऊर्जा एजेंसी द्वारा वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस और बढ़ने से रोकने के लिए अपनाए जा रहे उपायों के तहत नवीकरणीय ऊर्जा की हिस्सेदारी वर्ष 2050 तक 91 प्रतिशत तक बढ़ानी होगी।
इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए बड़े पैमाने पर सिलिकन, चांदी, लीथियम जैसे खनिजों तथा नियोडिमियम और डिस्प्रोजियम जैसे दुर्लभ मृदा तत्त्वों की आवश्यकता होगी। इन्हें और ग्रेफाइट, मैंगनीज, कोबाल्ट और निकल जैसे खनिजों को महत्त्वपूर्ण खनिजों के रूप में रखा गया है।
महत्त्वपूर्ण खनिज अब रणनीतिक संपत्ति बन गए हैं और इन्हें भू-राजनीतिक औजार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। ये खनिज कुछ ही देशों में अधिक पाए जाते हैं और चीन का इस मामले में प्रभुत्व कायम है, जहां वैश्विक भंडारों का 50 प्रतिशत डिस्प्रोजियम, 50 प्रतिशत नियोडिमियम और 65 प्रतिशत ग्रेफाइट मौजूद है।
अफ्रीका, लातिन अमेरिका, मध्य एशिया और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ मुख्य रूप से बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) जैसी पहलों के माध्यम से चीन ने अपने खनिज प्रभुत्व की दीवार को बहुत अधिक मजबूत बना लिया है। घाना, गिनी, नाइजर, सिएरा लियोन और माली जैसे दशों में खनिज अन्वेषण तथा प्रसंस्करण में 1.3 अरब डॉलर बीआरआई निवेश कर चीन ने एक तरह से बॉक्साइट एवं लीथियम के भंडारों पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली है।
चीन विश्व की खनिज प्रसंस्करण राजधानी बन गया है और इस क्षेत्र में इसका एकाधिकार कायम है। विश्व के ग्रेफाइट (80%), डिस्प्रोजियम (100%), मैंगनीज (93%) और नियोडिमियम (88%) पर चीन का नियंत्रण है। चीन के इस औद्योगिक कौशल से उसकी प्रसंस्करण लागत काफी घट गई है। खनिजों की आपूर्ति श्रृंखला पर चीन का कब्जा और ज्यादा मजबूत हो गया है।
महत्त्वपूर्ण खनिजों की आपूर्ति श्रृंखला पर एकाधिकार से वैश्विक स्तर पर अनेक चिंताएं पैदा होती हैं। एक क्षेत्रीय विवाद के चलते चीन ने वर्ष 2010 में जापान के लिए दुर्लभ मृदा तत्त्वों का निर्यात रोक दिया था। हाल ही में जब अमेरिका ने चीन को सेमीकंडक्टर प्रौद्योगिकी की बिक्री पर प्रतिबंध लगाया तो बदले में उसने अक्टूबर 2022 में जर्मेनियम और गैलियम का निर्यात अगस्त 2023 से रोकने का ऐलान कर दिया। ये दोनों चीजें सेमीकंडक्टर विनिर्माण के लिए बहुत आवश्यक होती हैं, जिसके उत्पादन में चीन की वैश्विक हिस्सेदारी क्रमश: 60 और 80 फीसदी है।
दक्षिणी चीन सागर को लेकर चीन और अमेरिका के बीच चले आ रहे तनाव के बीच चीन ने अमेरिका को सिंथेटिक ग्रेफाइट ग्रेड का निर्यात भी रोक दिया, जो रक्षा और एरोस्पेस क्षेत्र के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। इसके उत्पादन में भी चीन अग्रणी बना हुआ है।
महत्त्वपूर्ण खनिजों और दुर्लभ मृदा तत्त्वों की कीमतों एवं आपूर्ति को संतुलित करने के लिए अन्य भू-राजनीतिक कदम उठाने की आवश्यकता है। इसमें ओपेक जैसा संगठन बनाना भी एक बेहतर कदम हो सकता है। चीन जैसे देशों के प्रभुत्व को तोड़ने के लिए अमेरिका और यूरोपियन यूनियन ने महत्त्वपूर्ण खनिजों की आपूर्ति के लिए स्थानीय स्तर पर संभावनाएं तलाशने के साथ-साथ मित्र राष्ट्रों पर डोरे डालने शुरू कर दिए हैं। हालांकि उनके लिए इस तरफ मुड़ना काफी महंगा साबित हो रहा है।
पिछले साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान महत्त्वपूर्ण खनिजों को लेकर साझेदारी का मुद्दा प्रमुख एजेंडे में शामिल था। अमेरिका ने यूरोपियन यूनियन और 13 अन्य देशों के साथ खनिज सुरक्षा साझेदारी की शुरुआत 2022 में की थी। भारत भी 2023 में इस पहल का हिस्सा बन गया।
भारत ने 2070 तक नेट जीरो उत्सर्जन का महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया है। ऐसे में उसे उत्सर्जन कम करने वाले अधिक उपाय अपनाने होंगे। चूंकि भारत इन खनिजों विशेषकर कोबाल्ट, निकल एवं लीथियम के 100 प्रतिशत, तांबा एवं इसके तत्त्वों के 93 प्रतिशत आयात पर निर्भर है।
केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और ओडिशा में भारी खनिज प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। अंडमान सागर और लक्षद्वीप सागर के साथ पॉलिमेटालिक फेरोमैंगनीज नोडल्स और क्रस्ट के भी पर्याप्त भंडार मौजूद हैं। भारत के पास 21 करोड़ टन ग्रेफाइट और 66.5 करोड़ टन इल्मेनाइट एवं रुटाइल के भंडार मौजूद हैं, परंतु इनका उत्पादन बहुत कम हो रहा है। इसमें भी ज्यादातर का कच्चे माल के रूप में ही निर्यात कर दिया जाता है।
थोक खनिजों पर सरकार का अधिक जोर होने के चलते बहुत से महत्त्वपूर्ण खनिज ऐसे हैं, जिन पर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा। खनिजों की जितनी भी खोजें हो रही हैं, वे केवल सरकारी क्षेत्र की कंपनियां ही कर रही हैं, इस कारण इस क्षेत्र में निवेश भी नहीं आ रहा।
वैसे सरकार द्वारा हाल के दिनों में उठाए गए कदम काफी आशाजनक प्रतीत होते हैं। सरकार ने 30 खनिजों को महत्त्वपूर्ण खनिजों के रूप में चिह्नित करते हुए उनके अन्वेषण का काम अपने हाथ में ले लिया है।
सरकार ने वर्ष 2019 में इस क्षेत्र में 100 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत दे दी थी। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने गहराई में दबे खनिजों के अन्वेषण के लिए लगभग 250 परियोजनाएं शुरू की हैं। संबंधित कानून में पिछले साल किए गए संशोधन के बाद नीलामी के जरिये इस क्षेत्र में निजी क्षेत्र की कंपनियों के रास्ते खुल गए हैं।
पूर्व में जिन खनिजों को परमाणु की श्रेणी में रखा गया था, उन्हें पुन: वर्गीकृत किया गया है, ताकि खनन में निजी क्षेत्र की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके। नवंबर 2023 में शुरू की गई तीन लीथियम ब्लॉकों और दुर्लभ मृदा धातुओं की नीलामी पूरी हो चुकी है।
अपतटीय ब्लॉक भी नीलामी के लिए रखे गए हैं, जिससे नए अवसरों के द्वार खुलेंगे तथा स्टार्टअप दुनिया ने इस चुनौती से सफलतापूर्वक निपटने के लिए नई उन्नत तकनीक अपनानी शुरू कर दी हैं। ऑटोमोटिव, अंतरिक्ष, रक्षा, सेमीकंडक्टर एवं नवीकरणीय ऊर्जा के लिए कुछ खास खनिजों के भंडारण निरक्षण के दायरे में है।
भारत दूसरे देशों के साथ समझौते कर रहा है। खानजी बिदेश इंडिया ने सभी पांच ब्लॉकों में लीथियम अन्वेषण के लिए अर्जेंटीना के साथ हाथ मिलाया है। साथ ही ऑस्ट्रेलिया में लीथियम और कोबाल्ट ब्लॉको के लिए बातचीत चल रही है।
अफ्रीका के भरोसेमंद साथी समझे जाने वाले भारत को वहां प्रसंस्करण एवं सज्जीकरण सुविधाओं में निवेश करना चाहिए, ताकि स्थानीय अर्थव्यवस्था और द्विपक्षीय संबंध और अधिक मजबूत हों। अंतरराष्ट्रीय पहलों का फायदा उठाते हुए सरकार को निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी से इस क्षेत्र का ज्यादा से ज्यादा दोहन करना चाहिए। अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत को अपनी खनिज प्रसंस्करण सुविधाओं का विस्तार करना चाहिए।
भारत को इस मामले में इंडोनेशिया की सफलता से कुछ सबक सीखना चाहिए, जो निकल खनन के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर अग्रणी बन कर उभरा है। आज घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे माल तक उसकी पहुंच है।
तेल परिशोधन की तरह ही भारत लीथियम शोधन और महत्त्वपूर्ण खनिजों को लेकर उभरने वाली अड़चनों को दूर करने के मामले में अग्रणी देश बन सकता है। इस लक्ष्य को हासिल करने, वैश्विक जरूरतों को पूरा करने एवं पर्याप्त रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए प्रोत्साहन आधारित योजना (पीएलआई) लागू की जानी चाहिए।
(लेखक आईआईटी कानपुर में विजिटिंग प्रोफेसर एवं भारत के पूर्व रक्षा सचिव हैं)