पिछले पखवाड़े के अपने आलेख में मैंने लिखा था, ‘मुद्रास्फीति के स्वतः घटने के आसार कम ही हैं। इसका अर्थ है कि यदि केंद्रीय बैंक अभी सख्ती करते हैं तो बाजार धड़ाम हो जाएगा और फिर सुधार आएगा। यदि उन्होंने हिचक दिखाई तो दर्द का सिलसिला लंबा खिंचेगा।’ बहरहाल 10 जून को यह बात सामने आई कि अमेरिका में मुद्रास्फीति की दर 8.6 प्रतिशत पर पहुंचकर 40 साल में सबसे ऊंचे स्तर पर आ गई है तो इस तथ्य ने अमेरिका बाजारों के साथ-साथ भारतीय बाजारों को धराशायी कर दिया। फिर 15 जून को अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने ब्याज दरों में एकमुश्त ही 75 आधार अंकों की बढ़ोतरी की, लेकिन यह इजाफा भी बाजार में जरूरी भरोसा बहाल नहीं कर पाया कि अमेरिका में महंगाई आसानी से काबू में आने वाली है। बाजार में निरंतर गिरावट का रुख कायम है। निवेशक संभवतः यह महसूस करने लगे हैं कि उथल-पुथल भरा यह दौर लंबा खिंच सकता है।
दरअसल केंद्रीय बैंक किसी एक आंकड़े को देखकर एकाएक हड़बड़ी भरी प्रतिक्रिया नहीं देते। लेकिन वे लगातार कायम किसी रुझान या अड़ियल मुद्रास्फीति पर प्रतिक्रिया करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि फेड को मुद्रास्फीति के निरंतर जोर पकड़ने का आभास है। अपने हालिया कदम को फेड भले ही फ्रंट-लोडिंग यानी किसी कवायद का कड़ा आरंभिक दौर कहे, लेकिन अन्य तमाम पक्ष सोचते हैं कि यह आवश्यकता के अनुरूप कम है। एक मायने में यह इस बात की गारंटी है कि निकट भविष्य में दरों में बढ़ोतरी का सिलसिला जारी रहेगा और यह बढ़ोतरी खासी ऊंची भी हो सकती है। इस तथ्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि इस बढ़ोतरी के बावजूद फेडरल फंड्स दर 1.6 प्रतिशत है, जबकि मुद्रास्फीति 8.6 प्रतिशत। हमारे लिए इसके क्या निहितार्थ हैं? यह भी स्पष्ट नहीं कि ब्याज दरों में बढ़ोतरी अमेरिका में महंगाई पर लगाम लगा भी पाएगी या नहीं, खासतौर से तब जबकि यह आपूर्ति के दबाव से उपजी हो। लेकिन बढ़ती ब्याज दरों और उभरते बाजारों के बीच एक मजबूत अंतर्संबंध है।
इस परिदृश्य में आम सहमति यही है कि मुद्रास्फीति में तेजी का रुख कायम रहेगा। फेड ब्याज दरों में बढ़ोतरी करता रहेगा और उभरते बाजार दबाव में बने रहेंगे। इसके बावजूद हम आज भी स्थितियों को पर्याप्त रूप से नहीं जानते। जब ब्याज दरें शून्य प्रतिशत थीं, 5 लाख करोड़ (ट्रिलियन) डॉलर की बॉन्ड खरीद की गई थी और 7 लाख करोड़ डॉलर का राष्ट्रीय ऋण था, जो फेड और एक के बाद एक अमेरिकी सरकारों के दौर में ही जमा हुआ, तब इन कारकों के चलते मुद्रास्फीति की दर कितनी थी? महामारी के झटकों से उबरने के लिए अमेरिका ने भारी-भरकम प्रोत्साहन पैकेज जारी किया। इसके तहत प्रत्येक नागरिक को 1,200 डॉलर दिए गए, छोटे उद्यमों के लिए अत्यंत न्यून दर पर ऋण का प्रावधान किया गया और बेरोजगार नागरिकों को प्रति सप्ताह 600 डॉलर का भत्ता मिला। उसका मांग पर क्या प्रभाव पड़ेगा? चीन में लॉकडाउन और यूक्रेन के साथ रूस के युद्ध के चलते जो आपूर्ति श्रंखला बाधित हुई है, जिससे खाद्य वस्तुओं और ईंधन के दाम आसमान पर पहुंच गए, उसने महंगाई बढ़ाने में कितना योगदान दिया है? किसी के पास यहां तक कि केंद्रीय बैंकों के पास भी इसका कोई माकूल जवाब नहीं। फिर भी व्यापक रूप से यही सहमति बनती दिख रही है कि बढ़ती महंगाई और चढ़ती ब्याज दरों के चलते बाजार में गिरावट आ रही है। यहां यह अवश्य याद रहे कि मजबूत सहमतियों को भी धता बताने का बाजारों का अपना एक मिजाज है।
अनुमानों का बाजार
जटिल वृहद आर्थिक परिघटनाओं का सटीक अनुमान लगाने को लेकर हम लगातार नाकाम होते आए हैं और कभी उस अनुभव से सीख लेते भी नहीं दिखते। दो साल पहले जब महामारी ने दस्तक दी थी तो आर्थिक तबाही को लेकर आम सहमति थी। लोगों की आवाजाही बंद हो गई थी। देशों के बीच वस्तुओं का व्यापार पूरी तरह बंद हो गया था। माना गया कि उत्पादन घटेगा। बेरोजगारी आसमान पर पहुंच जाएगी और इन सभी परिस्थितियों के परिणामस्वरूप मंदी को टाला नहीं जा सकेगा। यह एक सामान्य आम सहमति थी और निराशाजनक रूप से यह गलत थी। क्या अभी भी आप लोगों को ब्रिक्स के बारे में चर्चा करते हुए सुनते हैं? अब यह यदा-कदा ही चर्चा में आता है, जब इसके सम्मेलन आयोजित होते हैं। इसके उलट 2003 में ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका को नई आर्थिक महाशक्तियों के तौर पर प्रचारित किया गया। इस कसौटी पर केवल चीन ही खरा उतर पाया है। वर्ष 2007 में पूरा विश्व तेल की चरम पर पहुंची कीमतों के रुझान की गिरफ्त में था। तेल को लेकर वह धारणा भी ध्वस्त ही हुई। किसी भी अन्य जिंस की भांति तेल भी मांग एवं आपूर्ति के अनुसार उठता-गिरता है। वर्ष 2008 की वैश्विक वित्तीय मंदी के बाद 2009-10 में डबल-डिप मंदी को अपरिहार्य मान लिया गया, लेकिन ऐसा कुछ भी घटित नहीं हुआ।
वर्ष 2008 के वित्तीय संकट के बाद जब फेड ने लंबे समय तक ब्याज दरों को अत्यंत न्यून स्तर पर बनाए रखा तो दुनिया के सबसे बड़े हेज फंड के संस्थापक रे डालियो ने हाइपर इन्फलेशन यानी बेलगाम मुद्रास्फीति की आशंका जताई। इसकी पड़ताल के लिए उनकी टीम ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मन अर्थव्यवस्था और बाजारों का अध्ययन किया, जब यह यूरोपीय देश हाइपर इनफ्लेशन का शिकार था। वर्ष 2011 में पुर्तगाल, आयरलैंड, इटली, ग्रीस और स्पेन (पिग्स देश) सभी दिवालिया होने के कगार पर थे। असल में ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसी तर्ज पर हम यही कह सकते हैं कि मुद्रास्फीति के बारे में मौजूदा सहमति भी गलत साबित होगी या नहीं, लेकिन ऐसी सहमति का स्वरूप जितना व्यापक होता है, उसके झुठलाने के आसार उतने ही ज्यादा बढ़ जाते हैं।
इस बीच हमारे जीवन में तमाम उतार-चढ़ाव के साथ वृहद आर्थिक स्थितियां उभरती रहेंगी। गत सप्ताह तेल एवं प्राकृतिक गैस की कीमतों में भारी गिरावट आई, जिससे इस सप्ताह धारणा मजबूत होती दिखाई दे सकती है। धारा के बीच पतवार चलाते हुए राहत के ऐसे कई दौर दस्तक दे सकते हैं। यदि केंद्रीय बैंक को लगा कि मांग में भारी गिरावट आ रही है तो शायद वह दरों को बढ़ाने की गति पर विराम लगा दे, जिससे शेयरों की कीमतें फिर शबाब पर होंगी। कुल मिलाकर शेयर बाजार अक्सर आर्थिक स्थितियों में वास्तविक सुधार को सलामी देते हैं या ऐसे संकेत करते हैं, जबकि आर्थिक आंकड़े असल में अतीत को प्रतिबिंबित करते हैं। ऐसे में सहमति जनित अनुमानों के बजाय बाजारों के मन की बात सुनना कहीं अधिक उपयोगी होगा, जिसे उन्होंने महामारी के दौर में भी मुखरता से व्यक्त किया था।
(लेखक मनीलाइफ के संपादक हैं)