भारत सरकार भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) में अपनी पांच फीसदी हिस्सेदारी का विनिवेश कर रही है। कंपनी का नियंत्रण भारत सरकार के पास रहेगा। यह संभव है कि भारत सरकार समय के साथ इसमें कुछ और हिस्सेदारी बेचे। ऐसा प्रतीत होता है कि बिक्री की प्रक्रिया का इस्तेमाल राजमार्ग जैसी परियोजनाओं के लिए भी किया जाएगा। यदि ऐसा होता भी है तो क्या यह सब आर्थिक दृष्टि से उचित प्रतीत होता है?
एलआईसी जैसे संस्थान संभवत: कई लोगों के दिल के करीब होते हैं। बहरहाल, आर्थिक दृष्टि से इस पर नजर डालने पर कमजोरी नजर आएगी। अक्सर कहा जाता है कि कारोबार करना सरकार का काम नहींं है। कहने का तात्पर्य यह है कि भारत सरकार को प्रासंगिक कानूनों में संशोधन करने के बाद एलआईसी का निजीकरण कर देना चाहिए। उसे कंपनी पर से नियंत्रण भी त्याग देना चाहिए और नियंत्रण हिस्सेदारी को सही कीमत पर निजी क्षेत्र के किसी उचित खरीदार के हवाले कर देना चाहिए। जबकि शेष हिस्सेदारी को चरणबद्ध तरीके से निवेशकों को बेच देना चाहिए। यह सच है कि एलआईसी ने समय के साथ काफी स्थायी ढंग से वृद्धि हासिल की है। यही कारण है कि अब यह इतनी बड़ी कंपनी बन चुकी है। हालांकि इसकी तथाकथित सफलता का ज्यादातर श्रेय बीमा कारोबार पर इसके आधी सदी के एकाधिकार को दिया जाता है। परंतु वह किस्सा तो कब का समाप्त हो चुका है। पहले धीरे-धीरे बदलाव नजर आना शुरू होगा और उसके बाद एक स्तर पर तेज परिवर्तन दिखाई देने लगेगा। इसलिए अब निजीकरण करने का वक्त आ गया है।
अब इससे संबंधित पुराने अनुभवों पर एक नजर डालते हैं। सरकारी बैंकों में भी विनिवेश किया गया था लेकिन उनका निजीकरण नहीं किया गया। इसके नतीजे न तो करदाताओं के लिए अच्छे रहे और न ही अर्थव्यवस्था के लिए। दूसरी ओर जिन मामलों में हमने सही तरीके से निजीकरण किया वहां अनुभव काफी बेहतर रहा। अब एलआईसी के निजीकरण का समय आ गया है लेकिन यह पूरी कहानी नहीं है।
सरकार ने एलआईसी को पूरे भारत में कारोबार का एकाधिकार दिया था। अब जरा इस बात पर इस पर विचार कीजिए कि इसकी जगह हर राज्य सरकार की अपनी अलग एलआईसी होती और उस राज्य में उसका एकाधिकार होता। ऐसी स्थिति में उस कंपनी को होने वाला मुनाफा और बाजार पूंजीकरण राज्यों के बीच साझा होता। अब समय आ गया है कि इसमें सुधार किया जाए तथा प्रस्तावित निजीकरण से होने वाली प्राप्तियों को राज्यों के साथ साझा किया जाए। परंतु इसकी एक और वजह भी है।
यह सही है कि कारोबार करना सरकार का काम नहीं है लेकिन कुछ ऐसी सार्वजनिक वस्तुएं तथा सेवाएं प्रदान करना निश्चित रूप से सरकार का ही काम है जिन्हें मुहैया कराने में निजी क्षेत्र विफल हो जाता है- यानी जहां सही मायनों में बाजार विफलता का परिदृश्य बनता है। अब कई ऐसी सार्वजनिक वस्तुएं एवं सेवाएं हैं जिनमें सुधार और विस्तार की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि केवल भारत सरकार इसमें शामिल है बल्कि इसमें राज्यों की सरकारें भी शामिल हैं। दोनों को पैसे की आवश्यकता भी रहती है। यहां मैं तीन बुनियादी सार्वजनिक सेवाओं पर ध्यान केंद्रित करूंगा- पुलिस, न्यायपालिका और कर प्रशासन।
देश की आबादी के साथ तुलना करें तो हमारी पुलिस व्यवस्था का आकार कम है। इसमें सुधार करने तथा इसका विस्तार करने की जरूरत एकदम स्पष्ट है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि न्यायपालिका के बुनियादी ढांचे तथा मानव संसाधन में बहुत अधिक निवेश करने की आवश्यकता है। हम सभी इस बात से परिचित हैं कि कैसे मानव संसाधन में कमी के चलते अदालतों में मामले लंबे चलते हैं। अब कर प्रशासन की बात करते हैं।
हमारे देश में कर-जीडीपी अनुपात कम है। इसकी एक अहम वजह यह है कि सार्वजनिक प्रशासन ने ज्यादा से ज्यादा कर जुटाने के उद्देेश्य से शोध, नियोजन तथा प्रशासनिक मशीनरी में पर्याप्त निवेश नहीं किया है। बिना उच्च कर दरों तथा प्रताडऩा के कर बढ़ाना संभव ही नहीं रह गया है। उच्च कर-जीडीपी अनुपात बड़े सार्वजनिक व्यय का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। यह व्यय शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों पर किया जा सकता है। ये वस्तुएं उत्कृष्ट होती हैं और इन पर व्यय भेदभाव से रहित और उत्पादक हो सकता है।
ज्यादा और बेहतर सार्वजनिक सेवाएं अधिक से अधिक लोगों को आर्थिक गतिविधियों को अंजाम देने के लिए प्रेरित करती हैं और यह काम सुरक्षित तथा सहज तरीके से किया जाता है। इससे सकल घरेलू उत्पाद अर्थात जीडीपी में भी इजाफा होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि उक्त व्यय पर हमें सामाजिक प्रतिफल प्राप्त होता है।
एक अन्य उपमा पर विचार करते हैं, भले ही वह आंशिक रूप से लागू होती है। निजी क्षेत्र में लंबे समय के दौरान, कई निवेशकों ने टाटा स्टील में पैसा लगाया और उन निवेशकों से कम प्रतिफल हासिल किया जिन्होंने टीसीएस में निवेश किया था। हालांकि टाटा स्टील की तथाकथित भौतिक परिसंपत्तियां टीसीएस की तुलना में कहीं अधिक थीं। इसी प्रकार भारत सरकार और एक हद तक जनता भी, सार्वजनिक सेवाओं पर व्यय से अधिक लाभान्वित हो सकती है। यह लाभ राजमार्ग जैसी परियोजनाओं पर किए गए व्यय से होने वाले लाभ से अधिक हो सकता है।
वास्तव में राजमार्ग आर्थिकी के संदर्भों के अनुसार हमेशा सार्वजनिक वस्तुओं की श्रेणी में नहीं गिने जाते। अत्यधिक सहजीकरण की लागत पर एक राजमार्ग पर निजी कारोबारी नियमों के तहत टोल की वसूली कर सकता है ताकि लागत निकालने के अलावा कुछ लाभ कमा सके। सैद्धांतिक तौर पर अक्सर यहां बाजार विफलता की स्थिति नहीं बनती है। जबकि सार्वजनिक सेवाओं के मामले में ऐसा नहीं होता।
आखिर में, केवल विनिवेश करने के बजाय एलआईसी का निजीकरण करना अधिक महत्त्वपूर्ण है। बिक्री से हासिल होने वाली धनराशि का इस्तेमाल बुनियादी सार्वजनिक सेवाओं के विस्तार और उनकी स्थिति में सुधार के काम में किया जाना चाहिए। यह काम उन सेवाओं के क्षेत्र में करना जरूरी है जो उत्पादक सेवाओं की श्रेणी में आती हैं, जिन्हें केवल सरकार ही मुहैया करा सकती है तथा जो आम आदमी के लिए अधिक से अधिक उपयोगी होती हैं।
(लेखक स्वतंत्र अर्थशास्त्री एवं भारतीय सांख्यिकीय संस्थान, दिल्ली केंद्र के अतिथि प्राध्यापक हैं)