किशोर महबूबानी के बारे में आपने शायद ही सुना हो, लेकिन बौध्दिक हलकों में उनका नाम काफी इज्जत के साथ लिया जाता है।
वैसे, उन्हें देख लगता भी नहीं कि यह शख्स कोई बौध्दिक शख्स होगा। पूर्व और पश्चिम के बीच दोस्ती की जबरदस्त वकालत करने वाले इस इंसान का रवैया भी काफी मुलायम और दोस्ताना है।
भारतीय दिलों को जीतने के लिए केवल एक थीम की जरूरत होती है। इसलिए तो पश्चिम के बुध्दिजीवी बैकफुट पर हैं। ऐसा कर शायद वह उन्हें अपने साथ मिलना चाहते हैं। उनकी यह कोशिश भी काफी वाजिब है। आखिर किशोर महबूबानी कोई छोटा-मोटा नाम थोड़े ही है। उन्हें सितंबर 2005 में ही फॉरेन पॉलिसी और प्रॉस्पेक्ट मैगजीनों ने दुनिया के टॉप 100 बुध्दिजीवियों में से एक चुना है।
वैसे, कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो उन्हें पूरब का बदमाश मानते हैं। वहीं बाकी उन्हें उनके तर्कओं के लिए पूजती है। कूटनीतिज्ञ से अकादमिक प्रशासक बने किशोर एक समय संयुक्त राष्ट्र में सिंगापुर के स्थायी प्रतिनिधि भी रह चुके हैं। इसके बाद उन्होंने जिम्मेदारी संभाली सिंगापुर के नामी-गिरामी संस्था ली कुआन ई इंस्टीटयूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी के डीन की। उनकी किताबें भी इसी थीम को प्रदर्शित करते हैं।
इस बात को पीटर सेलर्स की किताब ‘द पार्टी’ की एक लाइन से साफ तौर पर समझा जा सकता है। वह लाइन थी कि,’हम भारतीय यह नहीं सोचते कि हम कौन हैं। हम जानते हैं कि हम कौन हैं।’ यहां ‘भारतीय’ की जगह ‘पूरब के लोग’ रख दीजिए और इसमें थोड़ी सी बौध्दिकता मिला दीजिए, आपको महबूबानी का बेसिक थीम मिल जाएगा। यहीं से आपको मिलनी शुरू होती पश्चिम के टूट की बौध्दिक, दार्शनिक और ऐतिहासिक गवाही।
किशोर महबूबानी ने अपनी नई किताब के संदर्भ में बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि, ‘पश्चिम को जरूरत है एक वेकअप कॉल की। आधुनिक समाज की दिक्कतों को हल करते-करते वह आज खुद एक मुसीबत बन चुका है।’ महबूबनी ने पश्चिम के इस टूट और स्वार्थी भावना के लिए पश्चिम की बहुस्तरीय व्यवस्था को दोषी ठहाया है। उन्होंने इसके लिए मिसाल दी है, वर्ल्ड बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की।
उनके मुताबिक 3.5 अरब एशियाइयों का भविष्य तो यह संस्थाएं ही तय करती हैं, लेकिन उनकी कमान किसी यूरोपीय या अमेरिकी के हाथ में रहती है। ऐसा क्यों? क्यों ब्रिटेन के विदेश मंत्री डेविड मिलीबैंड ग्वांतानामो बे जेल के मुद्दे पर अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश का साथ देते हैं? क्यों अमेरिका और यूरोपीय देश बर्मा और जिम्बावे में लोकतंत्र बहाली के मुद्दे पर खुलकर बोलते हैं, जबकि सऊदी अरब का नाम सुनते ही खामोश हो जाते हैं। महबूबानी की दुनिया में ऐसे हजारों सवाल हैं।