गत 31 मई को महालेखा नियंत्रक ने केंद्र सरकार के 2021-22 के बजट के प्रारंभिक आंकड़े जारी किए। ये आंकड़े न केवल कर राजस्व में वृद्धि एवं घाटे में कमी की पुष्टि करते हैं बल्कि वे यह भी दिखाते हैं कि कैसे वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सरकारी वित्त के प्रबंधन के क्षेत्र में एक और नया रिकॉर्ड बनाया। वे सरकार के व्यय रुझान में भी एक अहम दिशा परिवर्तन की ओर इशारा करते हैं।
वित्त मंत्री ने पहला रिकॉर्ड 2020-21 में दर्ज किया था जब केंद्र सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़कर सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के 9.2 प्रतिशत के बराबर हो गया था। यह आजादी के बाद किसी एक वर्ष में 4.6 फीसदी की सर्वाधिक वृद्धि थी। तब तक एक वर्ष में सबसे बड़ी वृद्धि 2008-09 में 3.45 प्रतिशत की थी। उस समय राजकोषीय घाटा 2007-08 के 2.54 फीसदी के स्वस्थ स्तर से गिरकर 5.99 प्रतिशत हो गया था। दोनों ही वर्षों में यह गिरावट दो संकटों की वजह से आई थी। पहले मौके पर ऐसा वैश्विक वित्तीय संकट की वजह से हुआ था तो दूसरी बार कोविड महामारी और आर्थिक लॉकडाउन के कारण। अपने दूसरे रिकॉर्ड में वित्त मंत्री ने केंद्र सरकार के राजकोषीय घाटे में एक वर्ष में सबसे बड़ी कमी की और यह 2020-21 के 9.2 फीसदी से घटकर 2021-22 में 6.7 फीसदी पर आ गया। 2.5 प्रतिशत अंक की यह कमी मनमोहन सिंह के उस प्रदर्शन से बेहतर थी जिसमें वह घाटे को 1990-91 के 7.61 प्रतिशत से कम करके 1991-92 में 5.39 प्रतिशत पर ले आए थे। तीन दशक के अंतराल वाले इन दो वर्षों में राजकोषीय घाटे के आंकड़ों ने सन 1991 में हुए सुधार तथा राजकोषीय अनुशासन और 2021 में लॉकडाउन के बाद आर्थिक गतिविधियों में तेजी को परिलक्षित किया। 2008-09 और 2020-21 के बीच की तुलना जानकारीपरक है। वैश्विक वित्तीय संकट के बाद वाले वर्ष में शुद्ध कर राजस्व में एक फीसदी से भी कम वृद्धि हुई। हालांकि उस बीच अर्थव्यवस्था 15 फीसदी बढ़ी थी। इस अवधि में गैर कर राजस्व में कमी आई जबकि कुल व्यय 23 प्रतिशत बढ़ा था। इसके चलते घाटे में भारी इजाफा हुआ। सन 2020-21 में मामला अलग था। गैर कर राजस्व में गिरावट आई लेकिन कर राजस्व करीब 5 फीसदी बढ़ा। जबकि इस अवधि में अर्थव्यवस्था असमायोजित रूप से 1.4 फीसदी सिकुड़ी। परंतु व्यय में 30 प्रतिशत का इजाफा हुआ जिससे घाटा बढ़कर जीडीपी के 9.2 प्रतिशत तक पहुंच गया।
राजकोषीय स्थिति बिगाड़ने वाले इन दोनों ही संकटों में कोई समानता नहीं थी। अर्थव्यवस्था पर महामारी का असर यकीनन और गंभीर था। इसके बावजूद 2020-21 में व्यय 2008-09 की तुलना में मामूली तौर पर बढ़ा। इसके विपरीत 2008-09 में राजस्व का प्रभाव 2020-21 की तुलना में अधिक था। कर संग्रह में सरकार की क्षमता भी 2020-21 में बेहतर हुई। यह भी सच है कि सीतारमण ने कोविड संकट और व्यय बढ़ाने की मांग के बीच सरकारी व्यय पर कड़ा नियंत्रण रखा। यह सब ऐसे समय पर हुआ जब वित्त मंत्री ने बढ़ी हुई पारदर्शिता का परिचय दिया था जहां बजट से इतर उधारियों को धीरे-धीरे कम करे समाप्त किया गया।
घाटे में कमी की कहानी तो और भी दिलचस्प है। सन 1991-92 में अर्थव्यवस्था का नॉमिनल आकार 15 फीसदी से अधिक बढ़ा लेकिन सरकार का शुद्ध कर राजस्व तथा गैर कर राजस्व क्रमश: 16 प्रतिशत एवं 33 प्रतिशत बढ़ा। हालांकि व्यय में केवल 6 प्रतिशत का इजाफा होने दिया गया। ऐसे में घाटा 2.22 फीसदी कम किया जा सका।
सन 2021-22 में शुद्ध राजस्व में 28 फीसदी की वृद्धि हुई और गैर कर राजस्व में भी इजाफा हुआ लेकिन व्यय केवल 8 फीसदी बढ़ा। एक बार फिर सरकारी व्यय में तंगी दिखी। इसका परिणाम एक वर्ष में घाटे में 2.5 फीसदी की कमी के नये रिकॉर्ड के रूप में सामने आया। परंतु सुधार के वर्ष में अधिक राजस्व जुटाने की सरकार की क्षमता बेहतर हुई है और इसने भी अहम भूमिका निभायी है।
इन रिकॉर्ड से इतर सरकार के व्यय ने सीतारमण के नेतृत्व में एक नयी दिशा पकड़ ली है। इसका संबंध सरकार के वास्तविक पूंजीगत व्यय में इजाफे की प्रकृति से है। अक्सर इस बात का अहसास नहीं होता है कि सरकार का पूंजीगत व्यय सन 1990 के दशक मे काफी अधिक होता था। यहां तक कि सन 1990-91 में मधु दंडवते के बजट में भी पूंजीगत व्यय की जीडीपी में हिस्सेदारी 5.6 प्रतिशत थी। मनमोहन सिंह के पांच साल के कार्यकाल में यह जीडीपी के 4 प्रतिशत तक आई। बाद के वर्षों में इसमें और कमी आई और 2010-11 में यह 2 फीसदी रह गई।
इसके 10 वर्ष बाद तक जीडीपी में पूंजीगत व्यय की हिस्सेदारी कभी 2 फीसदी से अधिक नहीं हुई। लेकिन 2020-21 में यह 2.15 प्रतिशत हो गई। यह 2021-22 में बढ़कर 2.5 प्रतिशत हो गई और 2022-23 में इसके बढ़कर 2.91 प्रतिशत होने का अनुमान है। यह कहा जा सकता है कि 2021-22 में पूंजीगत व्यय में इजाफे में अहम आवंटन ने मदद की थी। एयर इंडिया के निजीकरण के बाद उसके ऋण निपटान के लिए 11 फीसदी पूंजीगत व्यय आवंटित किया गया था। इस बढ़ते ग्राफ को रेलवे तथा सड़कों पर उच्च व्यय के माध्यम से बरकरार रखा गया। गत पांच वर्षों में रेलवे पर सरकार का पूंजीगत व्यय जीडीपी के 0.25 प्रतिशत से दोगुना होकर 0.5 प्रतिशत हो गया है जबकि सड़कों के लिए यह 0.3 प्रतिशत से बढ़कर 0.48 प्रतिशत हुआ है।
इससे पता चलता है कि सरकार की खपत क्षमता भी बढ़ी है। अभी हाल तक इसे लेकर संदेह जताया जाता था। पूंजीगत व्यय में इस इजाफे को रेलवे और सड़क क्षेत्र की परियोजनाओं के तेज क्रियान्वयन के रूप में घटित होते हुए देखा जा सकता है। पूंजीगत व्यय में इस तेज इजाफे का अर्थव्यवस्था को काफी लाभ होगा तथा राज्यों के पूंजीगत आवंटन में इजाफा होने से इन लाभों का अधिक संतुलित क्षेत्रीय वितरण सुनिश्चित हो सकेगा।
चालू वर्ष के लिए रेलवे और सड़क क्षेत्र का पूंजीगत व्यय क्रमश: जीडीपी के 0.53 प्रतिशत और 0.73 प्रतिशत के बराबर बढ़ेगा। जीडीपी में सरकार के पूंजीगत व्यय की हिस्सेदारी अभी भी 30 वर्ष पहले हासिल छह फीसदी के स्तर के आसपास भी नहीं है। परंतु दिशा में बदलाव एक सकारात्मक घटना है और इस गति को बढ़ाने की आवश्यकता है।