स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर शुरू किया गया राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन सही दिशा में उठाया गया कदम है क्योंकि चिकित्सा आईडी और चिकित्सकीय रिकॉर्ड का डिजिटलीकरण देश की बड़ी आबादी की पहुंच स्वास्थ्य सेवाओं तक सुनिश्चित कराने की दिशा में अहम कदम है। बहरहाल, ऐसी पहल का वांछित प्रभाव केवल तभी देखने को मिलेगा जब इस क्षेत्र की दिक्कतों को भी हल किया जाएगा। नीतिगत मोर्चे पर बात करें तो राष्ट्रीय चिकित्सा बीमा कार्यक्रम और कोविड-19 महामारी को लेकर सरकार की प्रतिक्रियाओं में भिन्नता साफ नजर आती है। बीमा योजना नि:शुल्क बीमा के माध्यम से चिकित्सा सेवाओं की मांग तैयार करने पर ध्यान केंद्रित करती है जबकि क्षमता बहुत सीमित है। वहीं दूसरी ओर कोविड-19 को लेकर दी जा रही प्रतिक्रिया में अस्पतालों में बिस्तर बढ़ाना, ऑक्सीजन की उपलब्धता, व्यक्तिगत बचाव उपकरण आदि की आपूर्ति बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया गया। यह स्पष्ट नहीं है कि आखिर क्यों आपूर्ति पर आधारित हमारा दूसरा रुख बीमा नीति में नजर नहीं आता क्योंकि आपूर्ति की बाधा तो बरकरार है।
सभी सरकारी अस्पतालों में भारी भीड़ देखने को मिलती है। कई बार तो एक बेड पर एक मरीज से भी ज्यादा मरीज नजर आते हैं। आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन के अनुसार देश में प्रति 1,000 लोगों पर 0.53 अस्पताल के बिस्तर हैं। चीन में यह आंकड़ा 4.31 बिस्तर का है। इसके अलावा भारत में प्रत्येक 1,457 लोगों पर एक चिकित्सक है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार प्रति 1,000 लोगों पर एक चिकित्सक होना चाहिए। सरकारी चिकित्सकों पर निर्भर लोगों की तादाद और अधिक है। कुल मिलाकर इसमें कोई शक नहीं कि चिकित्सकों की कमी है। ऐसा माना जा सकता है कि सरकार की योजना के पीछे यह सोच है कि नि:शुल्क बीमा पेशकश से आपूर्ति सुधरेगी और खासतौर पर निजी अस्पतालों की तादाद में इजाफा होगा। परंतु कोविड का अनुभव बताता है कि निजी अस्पताल अपनी प्रतिक्रिया में पिछड़ गए, खासतौर पर गुणवत्ता के मामले में।
चाहे जो भी हो, बाजार का कायदा यही कहता है कि आपूर्ति अपनी मांग खुद बना लेती है, न कि इसका उलट होता है। यानी निजी अस्पतालों में बेड की तादाद बढ़ी है लेकिन गरीबों के लिए और पिछड़े जिलों और राज्यों में कमी बरकरार है। ऐसा इसलिए क्योंकि सरकार ने जरूरत के मुताबिक प्रतिक्रिया नहीं दी। इसके अलावा निजी स्वास्थ्य सेवा महंगी है और देश के गरीब परिवार उसका लाभ नहीं उठा सकते। उनके लिए सरकारी अस्पताल ही इकलौते विकल्प हैं। करीब दर्जन भर गरीब राज्यों में अस्पतालों के बिस्तर और चिकित्सक दोनों राष्ट्रीय औसत से काफी कम हैं। जबकि हमारा राष्ट्रीय औसत स्वयं कम है। उदाहरण के लिए बिहार में प्र्रति 1,000 की आबादी पर 0.11 बिस्तर हैं। देश में करीब छह लाख चिकित्सकों और 20 लाख चिकित्सा परिचारिकाओं की कमी है।
चिकित्सा क्षेत्र के बुनियादी ढांचे में कमतर निवेश लंबे समय से समस्या रहा है। इसके चलते हम स्वास्थ्य सूचकांकों पर पिछड़ गए। कोविड-19 को लेकर भारत की प्रतिक्रिया भी इन सीमाओं को उजागर करती है। भारत सकल घरेलू उत्पाद का करीब एक फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य पर व्यय करता है। अब जबकि नया चिकित्सा आईडी और स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम शुरू किए जा रहे हैं तो इस समस्या को दूर करने की आवश्यकता है। ऐसे में इकलौता तरीका यही है कि सरकार इस क्षेत्र में अधिकाधिक निवेश करके बुनियादी ढांचा सुधारे और चिकित्सा कर्मियों की कमी को दूर करे।