प्रतीकात्मक तस्वीर
डॉनल्ड ट्रंप ने अपनी कारोबारी जंग में शेष विश्व को 90 दिन की मोहलत देकर अपना रुख स्पष्ट कर दिया है जबकि चीन के लिए टैरिफ को बढ़ाकर 145 फीसदी कर दिया है। इस पर चीन ने भी 125 फीसदी का जवाबी शुल्क लगाया है। इसे हम दो ताकतवर हाथियों की आपसी लड़ाई के रूप में भी देख सकते हैं। हमें पता है कि जब दो हाथी लड़ते हैं तो क्या होता है। घास कुचली जाती है। यहां तीन सवाल पैदा होते हैं:
1. क्या भारत घास है?
2. क्या भारत घास बनना सहन कर सकता है?
3. भारत इस जंग में पिसने से बचने के लिए क्या कर सकता है और साथ ही कैसे इसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर सकता है?
महाशक्तियों के बीच की इस कारोबारी जंग ने उन सभी देशों के लिए संभावनाएं पैदा की हैं जो किसी भी ओर झुक सकते हैं। इनमें भारत सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण है। कम से कम भारत अमेरिकी बाजार के लिए कुछ ऐसी चीजें बना सकता है जो मौजूदा टैरिफ के चलते चीन नहीं बना सकता है। ऐपल फोन इसका उदाहरण हैं लेकिन अगर हम अमेरिका को होने वाले चीनी निर्यात पर नजर डालें और 30-40 फीसदी शुल्क (145 फीसदी की दर आखिरकार कम की जाएगी) जोड़ लें तो भी अरबों की निर्यात संभावनाएं नजर आती हैं। इसी तरह अमेरिका से चीन को होने वाले निर्यात की सूची में भी ऐसी वस्तुएं हैं जिनकी भरपाई भारत कर सकता है।
आमतौर पर किसी मित्र या सहयोगी की मुश्किलों का फायदा उठाना अच्छी बात नहीं लेकिन मौजूदा दौर में ऐसा कहना सही नहीं है क्योंकि ट्रंप ने इस दौर को अजीब बना दिया है। साझेदारों के साथ उनका रिश्ता खासा अवमाननापूर्ण और दंभ से भरा रहा है। उनका कहना है कि वे (साझेदार) अक्सर उन्हें फोन करके समझौते की गुजारिश करते हैं, वे कुछ भी करने को तैयार हैं। उन्होंने कहा कि साझेदार मेरी चापलूसी करने में लगे हुए हैं। उन्होंने यह बात चीन के लिए नहीं बल्कि 75 अन्य देशों के बारे में कही थी जो उनके मित्र और साझेदार हैं। इनमें प्रमुख हैं यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और भारत।
हम लगातार कहते रहे हैं कि संकट से मिले अवसर को गंवाना नहीं चाहिए। वहीं भारत हाल के समय में ऐसे अवसरों का पूरा लाभ नहीं ले पाया है। कोविड के समय जो वादे किए गए थे वे अब भुला दिए गए हैं। सुधारवादी कृषि कानून और श्रम कानून अपनी राह भटक चुके हैं। प्रधानमंत्री ने 2021 में साफ कहा था कि सरकार रणनीतिक क्षेत्रों को छोड़कर हर जगह कारोबार को निजी क्षेत्र के हवाले कर देगी। एयर इंडिया को छोड़ दिया जाए तो निजीकरण का कोई उदाहरण हमारे सामने नहीं आया है।
आईडीबीआई बैंक का निजीकरण अब तक नहीं हो सका है। इस वर्ष के बजट में सरकारी उपक्रमों में 5 लाख करोड़ रुपये के नए निवेश की बात कही गई। मोदी सरकार ने महामारी के समय राजकोषीय हालात का सही प्रबंधन किया और कई पश्चिमी देशों की तरह मुद्रा छापने का काम नहीं किया। परंतु दुख की बात है कि उस दौरान हम अहम सुधार नहीं कर सके। सरकार ने आत्मनिर्भरता और मेक इन इंडिया के इर्दगिर्द नया आर्थिक एजेंडा पेश किया था। उत्पादन से संबद्ध प्रोत्साहन योजना यानी पीएलआई के लिए काफी आवंटन किया गया और कारोबारी सुगमता का वादा किया गया था।
पहले मामले में केवल आंशिक प्रगति हुई है। विनिर्माण ठहरा हुआ है। कुछ पीएलआई ने गति पकड़ी है, खासतौर पर आईफोन के मामले में। केवल इसकी बदौलत भारत को काफी मजबूती मिली है। ऐपल चाहे तो अपना विनिर्माण चीन से भारत स्थानांतरित कर सकता है। यह कम से कम चीन प्लस वन की रणनीति का अहम हिस्सा होगा। कारोबारी सुगमता की बात करें तो भारत की रैंकिंग में सुधार हुआ है लेकिन धीमी गति से। इस बारे में अधिक जानकारी आप उद्यमी और निवेशक मोहनदास पई को पढ़कर हासिल कर सकते हैं जो किसी भी तरह सरकार के आलोचक नहीं हैं। अगर उनके जैसा वरिष्ठ व्यक्ति इतना हताश हो सकता है तो आप कल्पना कीजिए कि नए उद्यमियों को कितनी कठिनाई होती होगी। वस्तु एवं सेवा कर मोदी के कार्यकाल का एक प्रमुख सुधार है। परंतु एमएसएमई से पूछिए कि यह प्रक्रिया कितनी अव्यवस्थित और मुकदमेबाजी से भरी हुई है?
घास की तरह कुचले जाने से बचने के लिए भारत को कोविड के दौर के सुधारों जैसी प्रक्रिया अपनानी होगी? व्यापार मुद्दा पूरी तरह विनिर्माण और कृषि जिंसों तक सीमित रहेगा। सेवा क्षेत्र जिसका अमेरिका को हमारे निर्यात में 40 फीसदी हिस्सा है, वह मायने नहीं रखता क्योंकि इसमें कोई वस्तु शामिल नहीं है यानी टैरिफ का सवाल ही नहीं।
तो भारत अब चीन से कारोबार छिनने का लाभ उठाने के लिए कितनी जल्दी नया विनिर्माण शुरू कर सकता है? इसके विपरीत अगर टैरिफ संरक्षण में काफी कमी की जाए जो कि होगी तो क्या हमारा विनिर्माण इतना मजबूत है कि बचा रह सके? सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए क्या करना चाहिए? सब्सिडी महंगी और प्रतिगामी है तथा ट्रंप इन्हें अनुचित बताते हुए जरूर खारिज कर देंगे।
अमेरिका की अर्थव्यवस्था मोटे तौर पर टैरिफ मुक्त रही है। इससे भारत को वाणिज्यिक वस्तुओं के व्यापार पर 45 अरब डॉलर का अधिशेष मिलता है। यह भी तथ्य है कि शुल्क मुक्ति के बाद भी अमेरिका से भारत को निर्यात बहुत ज्यादा नहीं रहने वाला। उसकी निर्यात बास्केट में खनिज तेल और कीमती रत्न सबसे प्रमुख हैं। मशीनरी और उपकरण, इलेक्ट्रिकल उपकरण आदि विनिर्मित वस्तुओं का निर्यात 8 अरब डॉलर से अधिक नहीं है। इसके विपरीत भारत इसके तीन गुना यानी 26.5अरब डॉलर से अधिक की इलेक्ट्रिकल वस्तुएं और औषधियां निर्यात करता है।
भारत इसके अलावा अमेरिका से कृषि वस्तुएं खरीदता है। ट्रंप इसमें इजाफा चाहते हैं। यह सीधे तौर पर अमेरिकी किसानों से जुड़ा मामला है। भारत में खेती से उगाई जाने वाली हर चीज, पेकन नट्स से लेकर खाद्य तेल तक, पर काफी अधिक टैरिफ लगाया जाता है। मछली, मांस और डेरी पर इतना अधिक कर लगाया जाता है कि अमेरिकी निर्यात असंभव है।
अमेरिका व्यापार प्रतिनिधि की विभिन्न देशों के प्रतिबंधात्मक व्यवहार संबंधी रिपोर्ट के भारत वाले हिस्से पर नजर डालिए। आप पाएंगे कि कृषि उत्पादों के लिए भारत जिस गैर जीएमओ प्रमाण पत्र की मांग करता है या ऐसे दुग्ध उत्पादों की मांग करता है जो शाकाहारी अमेरिकी गायों के दूध से बने हों, उन्हें गैर टैरिफ प्रतिबंधों में शामिल किया जाता है।
ट्रंप के लिए कृषि महत्त्वपूर्ण है और अगर कोई सोचता है कि वह मशीनरी, बॉयलर, इलेक्ट्रॉनिक्स और रत्नों आदि पर शुल्क कम करके तथा कृषि को परे रखकर बच निकलेगा तो वह गलत है। यह बात बार-बार कही जाती है कि भारत और अमेरिका महत्त्वपूर्ण साझेदार हैं और मोदी तथा ट्रंप के बीच खास रिश्ता है। परंतु ट्रंप यह भी कह सकते हैं कि उनके दोस्त थोड़ी समझदारी दिखाते हुए उनकी मदद क्यों नहीं कर सकते जबकि वह हाथी यानी चीन से निपट रहे हैं।
यह कुछ कड़े फैसले लेने का वक्त है। गैर कृषि वस्तुओं पर शुल्क कम करना आसान है। परंतु भारत की पारंपरिक असुरक्षा की भावना और स्वदेशी/आरएसएस तथा वाम बौद्धिकता के दबाव को देखते हुए क्या भारत डेरी और मांस आयात के लिए दरवाजे खोलेगा? एक जल्दबाजी का और असहज करने वाला प्रश्न है: क्या हम अपनी बढ़ती जरूरतों के मुताबिक पर्याप्त दूध और दुग्ध उत्पाद या मांस तैयार करते हैं? यह सबसे जटिल हिस्सा होगा।
जैव प्रौद्योगिकी और आधुनिक बीजों को लेकर षडयंत्र सिद्धांत पेश करने वालों ने देश के कृषि क्षेत्र को पीछे धकेला है। इस बात ने हमें कपास निर्यातक से आयातक बना दिया। मोदी सरकार अब जीन संवर्धित बीजों को लेकर हिचकिचाती नहीं है और यह बात सर्वोच्च न्यायालय में दिल्ली विश्वविद्यालय के मेक इन इंडिया सरसों को लेकर उसके रुख से जाहिर है।
समय आ गया है कि भारत विनिर्माण संरक्षणवाद से बचे और कृषि को लेकर ऐतिहासिक हिचकिचाहट से दूरी बनाकर एक नई आर्थिक स्वतंत्रता की ओर बढ़े। पहला कदम होगा स्टील समेत देश के उद्योग को प्रतिस्पर्धी बनाना। दूसरा कदम होगा कृषि सुधारों की वापसी और अधिशेष उत्पादन कर रहे देश के किसानों को गेहूं और चावल की खेती से बाहर निकालना। इसके लिए राजनीतिक कौशल और साहस की आवश्यकता होगी। केवल इस पैमाने पर होने वाले सुधार ही भारत को उसके हितों की रक्षा करने तथा उन्हें बढ़ाने में मदद करेंगे। यह ऐसा अवसर है जो एक पीढ़ी को एक ही बार मिलता है। दो हाथी (महाशक्तियां) जिनमें एक आपका सबसे अच्छा दोस्त और दूसरा सबसे बड़ा शत्रु है, आपस में जूझ रहे हैं। आप जो चाहें वह बनना चुन सकते हैं लेकिन घास तो कतई नहीं।