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ट्रम्प के टैरिफ पर भारत को दीर्घकालीन दृष्टिकोण अपनाकर रणनीतिक खेल खेलना होगा

वे निकट भविष्य में विकास की चुनौतियाँ प्रस्तुत करते हैं, लेकिन भारत को दीर्घकालीन योजना के साथ आगे बढ़ना चाहिए। बता रहीं हैं

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सोनल वर्मा   
Last Updated- August 04, 2025 | 10:13 PM IST

भारत से आयात पर अमेरिका द्वारा 25 फीसदी शुल्क की घोषणा, साथ ही रूस से ईंधन और सुरक्षा संबंधी खरीद को लेकर जुर्माने की बात, भारत-अमेरिका व्यापार संबंधों में एक निराशाजनक बदलाव का संकेत है। यह खासतौर पर कठोर प्रतीत होता है, क्योंकि भारत उन शुरुआती देशों में से एक है जिन्होंने अमेरिका के साथ बातचीत की शुरुआत की। बातचीत के उन्नत अवस्था में होने के बावजूद, भारत को वियतनाम (20 फीसदी), इंडोनेशिया (19 फीसदी) और अन्य एशियाई प्रतिस्पर्धियों की तुलना में अधिक शुल्क का सामना करना पड़ रहा है। यह असमानता बातचीत की रणनीति और व्यापक भू-राजनीतिक गतिशीलता, दोनों पर सवाल उठाती है।

बहरहाल इस झटके को व्यापक दृष्टि से देखें तो घोषित शुल्क वृद्धि अस्थायी हो सकती है। यह एक स्थायी व्यवस्था के बजाय बातचीत के उपाय के रूप में सामने आ सकती है। अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधिमंडल अगस्त के अंत में भारत आने वाला है और इससे अंदाजा लगता है कि संवाद के रास्ते खुले हुए हैं और शुल्क दरों में कमी की संभावना बरकरार है। हालांकि अन्य देशों के साथ अमेरिकी व्यापार समझौतों से यही संदेश निकलता है कि बेहतर से बेहतर हालात में भी 15 से 20 फीसदी की शुल्क दर बरकरार रहेगी।

बेहतर शुल्क दरों को लेकर बातचीत कामयाब नहीं होने की हमें अल्पकालिक आर्थिक कीमत चुकानी होगी लेकिन इसका आकलन दीर्घकालिक चुनौतियों के आधार पर किया जाना चाहिए। ये चुनौतियां अमेरिकी मांगों के प्रति सहमत होने से उभरेंगी। उदाहरण के लिए नीतिगत लचीलेपन की क्षति, मिसाल कायम करने वाली रियायतें और घरेलू राजनीतिक परिणाम। अन्य देशों ने जहां जल्दी से मौखिक समझौते किए वहीं भारत ने अधिक विस्तृत प्रक्रिया को वरीयता दी ताकि व्यापक समझौता हो सके।

रूस से ईंधन और सैन्य खरीद पर जुर्माने की घोषणा ने जटिलता और बढ़ा दी है क्योंकि ऊर्जा और रक्षा खरीद में भारत की रणनीतिक स्वायत्तता व्यापार वार्ताओं में उलझ गई है। भारत रूसी तेल आयात पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए पश्चिम एशिया से आयात बढ़ा सकता है। वह इस क्षेत्र से एलएनजी आयात भी बढ़ा सकता है हालांकि इसकी लागत अधिक होगी। हमें रूस के साथ रिश्तों का सावधानीपूर्वक प्रबंधन करना होगा और इस दौरान अमेरिका से संवाद कायम रखते हुए ऊर्जा सुरक्षा पर भी ध्यान देना होगा।

आर्थिक प्रभाव का आकलन इन शुल्कों का आर्थिक प्रभाव उनकी अवधि और दायरे पर निर्भर करता है। इस मोर्चे पर, जुर्माने की दर सहित काफी अनिश्चितता बनी हुई है। फिलहाल धारा 232 के अंतर्गत चल रही जांचों के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र – जैसे कि औषधियां,  सेमीकंडक्टर और इलेक्ट्रॉनिक्स,  आदि जवाबी शुल्क से मुक्त हैं। इसका अर्थ यह है कि भारत की प्रभावी शुल्क दर घोषित 25 फीसदी की दर से कम है, हालांकि यह हमारी लगभग 10 फीसदी की पूर्व अपेक्षाओं से काफी अधिक है।

अगर बढ़ी हुई शुल्क दर बरकरार रही तो हमारा अनुमान है कि हमारी सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि में 0.2 फीसदी तक की कमी आएगी। अमेरिका भारत का सबसे बड़ा निर्यात केंद्र है और हम जीडीपी के 2.2 फीसदी बराबर उसे निर्यात करते हैं। कई उत्पाद श्रेणियों में अमेरिका को निर्यात भारत के वैश्विक निर्यात के 30 से 40 फीसदी तक है। यह बताता है कि अमेरिकी बाजार में प्रतिस्पर्धी बढ़त कितनी आवश्यक है।

निर्यात श्रृंखला के छोटे और मझोले उपक्रम खासतौर पर मुश्किल में हैं। ये कारोबार अक्सर सीमित कार्यशील पूंजी के साथ काम करते हैं और बहुत कम मार्जिन पर भी। ऐसे में इन्हें अतिरिक्त लागत वहन करने के लिए जूझना पड़ सकता है। इसका असर रोजगार खासकर कपड़ा एवं वस्त्र, रत्न एवं आभूषण आदि के क्षेत्र में पड़ेगा जहां छोटे और मझोले उपक्रमों की अहम भूमिका है। भारत समुद्री खाद्य उत्पाद क्षेत्र में भी अपनी प्रतिस्पर्धी बढ़त गंवा सकता है। इस क्षेत्र में उसने अमेरिका में अहम बाजार हिस्सेदारी तैयार की है। औषधि और इलेक्ट्रॉनिक्स आदि पर जवाबी शुल्क नहीं लगाया गया है लेकिन बाद में धारा 232 के तहत क्षेत्रवार शुल्क लागू होने पर उन्हें       अधिक दिक्कतों का सामना करना होगा।

भारत निकट भविष्य में किसी संभावित व्यापार बदलाव के लाभ से भी वंचित रह जाएगा। दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों के  संगठन (आसियान) की अधिकांश अर्थव्यवस्थाओं ने लगभग 20 फीसदी की शुल्क दर पर बातचीत निपटाई है, जिसका अर्थ है कि भारत का सापेक्ष टैरिफ लाभ उतना महत्त्वपूर्ण नहीं होगा, जितना पहले माना जा रहा था।

बहरहाल इसके चलते इस तथ्य की अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि भारत वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में दीर्घकालिक  रूप से आकर्षक है। चीन प्लस वन की व्यापक रणनीति भारत के पक्ष में है। इसके पीछे शुल्क दर से इतर कई कारक हैं। हाल ही में इलेक्ट्रॉनिक्स तथा अन्य क्षेत्रों में  जो निवेश हुआ है वह बताता है कि कंपनियां विविधता लाना चाहती हैं और इसके लिए टैरिफ के बजाय भारत की ढांचागत बढ़त वजह है। इलेक्ट्रॉनिक्स असेंबली, कपड़ा एवं परिधान तथा खिलौना आदि क्षेत्र बताते हैं कि वैश्विक मूल्य श्रृंखला से भारत का एकीकरण जारी रह सकता है।

भारत की नीतिगत रणनीति कारोबारी चुनौतियों के प्रति भारत की नीतिगत प्रतिक्रिया बहुआयामी और सावधानीपूर्वक नपी तुली होनी चाहिए। व्यापार के मोर्चे पर, भारत को विशिष्ट मुद्दों पर लचीलापन दिखाते हुए बातचीत के प्रति अपने रणनीतिक दृष्टिकोण को बनाए रखना चाहिए। घरेलू राजनीतिक कारणों से कृषि और डेरी क्षेत्र संवेदनशील बने हुए हैं, लेकिन वाहन जैसे अन्य क्षेत्रों में या अमेरिकी खरीद बढ़ाकर समझौता करने की गुंजाइश है।

मध्यम अवधि में निर्यात विविधता और अहम हो जाएगी। हाल में ब्रिटेन के साथ हुआ मुक्त व्यापार समझौता और यूरोपीय संघ, न्यूजीलैंड तथा अन्य देशों के साथ मौजूदा वार्ता सही दिशा में उठाया गया कदम है। इन प्रयासों को गति देने की आवश्यकता है ताकि किसी एक बाजार पर निर्भरता कम की जा सके। यह हमारे लिए अवसर है कि हम ढांचागत सुधारों को गति दे सकें।

वार्ताओं को तेज करने के अलावा सरकार को प्रभावित निर्यातकों खासकर छोटे और मझोले उपक्रमों पर भी ध्यान देना चाहिए। इसके लिए ब्याज दर सब्सिडी और निर्यात प्रोत्साहन बढ़ाने पर विचार किया जा सकता है। बैंकिंग क्षेत्र भी इन क्षेत्रों को पर्याप्त कार्यशील पूंजी मुहैया कराकर मदद कर सकता है। मौद्रिक नीति की भी इस प्रभाव को कम करने में अहम भूमिका होगी। मुद्रा का अवमूल्यन अगर जारी रहा तो वह आयातित मुद्रास्फीति को बढ़ा सकता है। वित्त वर्ष 26 में मुद्रास्फीति के घटकर 2.8 फीसदी हो जाने की उम्मीद है जो रिजर्व बैंक के 3.7 फीसदी के अनुमान और 4 फीसदी के लक्ष्य से कम है। इसका अर्थ यह है कि रिजर्व बैंक का दरों में कटौती का चक्र समाप्त नहीं हुआ है। ऐसा उसके द्वारा अपने रुख को तटस्थ कर लेने के बावजूद है।

लब्बोलुआब यह है कि कुल मिलाकर अमेरिकी शुल्क वृद्धि निकट भविष्य में चुनौतीपूर्ण है लेकिन देश की नीतिगत प्रतिक्रिया को अधिक रणनीतिक होना चाहिए। शतरंज की तरह व्यापार वार्ताओं में भी कई बार हमें लंबी अवधि की बेहतरी के लिए अल्पकाल में अस्थायी कमजोरी को स्वीकार करना पड़ता है।

(लेखिका नोमूरा की मुख्य अर्थशास्त्री हैं)

First Published : August 4, 2025 | 10:02 PM IST