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तकनीकी तंत्र: वास्तविकता और बड़े दावों में कितना मेल?

वैश्विक मानकों के लिहाज से डिजिटल इंडिया का 4जी नेटवर्क उम्मीद के अनुरूप काम नहीं कर रहा है। दूरसंचार ढांचे में यह खामी एक स्थानीय समस्या का हिस्सा है।

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देवांशु दत्ता   
Last Updated- July 10, 2024 | 9:22 PM IST

मोबाइल पर टी20 क्रिकेट विश्व कप और यूरो फुटबॉल टूर्नामेंट देखना मेरे लिए शिक्षाप्रद (educational) रहा है। मैं उत्तर भारत और पश्चिम बंगाल का भ्रमण करता रहा हूं और इस दौरान अक्सर मैं 4जी नेटवर्क का इस्तेमाल करता हूं। मगर 4जी नेटवर्क कुछ स्थानों पर ठीक-ठाक तो कहीं-कहीं सिरदर्द साबित हुआ है, जिससे मोबाइल पर वीडियो देखना या सीधा प्रसारण देखना किसी चुनौती से कम नहीं रहा है।

मैं कई दूरसंचार सेवा प्रदाताओं की सेवाओं (सिम कार्ड, इंटरनेट) का इस्तेमाल करता हूं और मोबाइल, लैपटॉप रखता हूं मगर कुछ ही जगह ऐसी मिली हैं जहां तीनों निजी सेवा प्रदाता तेज इंटरनेट और स्थिर संपर्क मुहैया करा पाते हैं। वीपीएन का इस्तेमाल कर निःशुल्क यूरो देखना तो मजाक ही लगता है क्योंकि यह (वीपीएन) पूरी तरह अब तक कारगर नहीं हो पाया है।

ऑनलाइन माध्यम से खेल प्रतियोगिताएं देखने के अलावा मेरा एक और शौक रहा है ब्लिट्ज चेस खेलना जिसके लिए तेज इंटरनेट या नेटवर्क की जरूरत होती है। मगर कमजोर नेटवर्क यहां भी आड़े आ जाता है और मैं बुलेट (60 सेकंड/गेम) बिल्कुल नहीं खेल पाता हूं। जब कभी मुझे जूम/गूगल मीट/टीम पर कॉल से जुड़ना पड़े तो वीडियो बंद करके रखना पड़ता है।

वैश्विक मानकों के लिहाज से डिजिटल इंडिया का 4जी नेटवर्क उम्मीद के अनुरूप काम नहीं कर रहा है। दूरसंचार ढांचे में यह खामी एक स्थानीय समस्या का हिस्सा है और वह है बड़े-बड़े दावे करना जहां वास्तविकता बढ़ा-चढ़ा कर किए गए दावों से कोसों दूर दिखती है।

भारत हवाई अड्डा संपर्क को लेकर भी बड़ी-बड़ी बातें करता है मगर टर्मिनल की छत गिर जाती है। भारत सड़क तंत्रों के भी उम्दा होने का दावा करता है, मगर उद्घाटन के कुछ महीने बाद ही पुल ढह जाते हैं और सड़कों पर दरारें दिखने लगती हैं।

भारत में कई नई रेलगाड़ियां भी चलाई जा रही हैं, मगर वे अपने पुराने संस्करणों की तुलना में कम रफ्तार से चलती हैं और तकनीकी रूप से मजबूत सुरक्षा तंत्र भी दुर्घटनाएं नहीं रोक पा रहे हैं। अधिक राजस्व अर्जित करने के चक्कर में रेलवे ने निचले दर्जे के डिब्बों की संख्या भी कम कर दी है, जिससे रेलगाड़ियों में भयंकर भीड़ देखी जा रही है।

शेयर बाजार और स्टार्टअप खंड में उछाल एक ऐसी अर्थव्यवस्था में बड़े निवेश लाने में सफल रही है जिसके बारे में कहा जा रहा है कि यह तेजी गति से आगे बढ़ रही है। मगर मुझे अचरज होता है कि इसमें कितनी सच्चाई है, कितना दिखावा है और इनमें कितना निवेश वैकल्पिक निवेश के साधनों की कमी पर निर्भर है।

नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर (GST) के साथ शुरू हुई नीतियों में बदलाव से अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का आकार सिकुड़ गया है। यह बात सूक्ष्म, लघु एवं मझोले क्षेत्र में खासकर दिखी है जहां रोजगार उपलब्ध कराने लायक पर्याप्त उत्पादन गतिविधियां संचालित नहीं हो पा रही हैं।

यही कारण है कि 2024 के लोक सभा चुनाव में बेरोजगारी एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरी और इसने धर्म और जाति-संप्रदाय से जुड़े मुद्दों को भी पीछे छोड़ दिया। नोटबंदी और जीएसटी से अर्थव्यवस्था अधिक औपचारिक हो गई है और मुझे संदेह है कि अनौपचारिक अर्थव्यवस्था पर जितना बताया जा रहा है, असर कहीं उससे अधिक तो नहीं हुआ है।

नवंबर 2016 से पहले अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा औपचारिक अर्थव्यवस्था में लगभग 35-40 फीसदी था। मुझे नहीं मालूम कि अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का आकार पता करने के लिए हाल में कोई गंभीर प्रयास हुआ है या नहीं। मगर मुझे ऐसा लगता है कि औपचारिक अर्थव्यवस्था की तुलना में इसका आकार काफी छोटा है।

नोटबंदी से छोटे कारोबारों को तगड़ा नुकसान पहुंचा था और उसके बाद 2017 के मध्य में जीएसटी लागू होने से उन कारोबारों पर भी चोट पड़ी, जो कागजी प्रक्रिया ठीक ढंग से पूरी नहीं कर पाए। कोविड महामारी और उसे रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन के कारण अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का आकार और कम हो गया।

जो कारोबार एवं व्यवसाय जीएसटी का हिस्सा बन सकते थे वे बन गए और औपचारिक अर्थव्यवस्था में आ गए। इससे औपचारिक सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के आंकड़े में उछाल आई, वहीं असंगठित कारोबारों के बंद होने का असर बेरोजगारी के आंकड़ों, ग्रामीण क्षेत्र में संकट और ‘के’ आकृति वाले सुधार (असंतुलित सुधार) के रूप में दिखा है।

आम लोगों की बचत सिस्टमैटिक इन्वेस्टमेंट प्लान (SIP) के जरिये शेयर बाजार में पहुंच रही है। इसका कारण यह है कि जो लोग पहले छोटे कारोबार शुरू करने पर विचार कर रहे थे, उन्हें अब संभावनाएं नहीं दिख रही हैं। यह एक व्यावहारिक अनुमान है जो मोटे आकलन के साथ फिट बैठ रहा है।

अगर आप विश्व कप, यूरो कप या टी20 विश्व कप देख रहे हैं तो इनके बीच आ रहे विज्ञापनों पर भी आपका ध्यान जाता ही होगा। विज्ञापनों को देखकर भी एक नए रुझान का पता चल रहा है। व्यक्तिगत देखभाल (पर्सनल केयर) से जुड़े उत्पादों के विज्ञापन अधिक आ रहे हैं। महिलाओं की व्यक्तिगत जरूरतों के उत्पाद, टॉयलेट क्लीनर, शेविंग किट, कॉन्डम आदि उत्पादों के विज्ञापन अक्सर देखे जा सकते हैं।

टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं (एसी, फ्रिज आदि) के विज्ञापन आने कम हो गए हैं। मोबाइल के विज्ञापन भी अधिक नहीं दिख रहे हैं जबकि भारत दुनिया में मोबाइल बनाने वाला बड़ा बाजार माना जाता है। कार, वित्त-तकनीक या नवाचार से जुड़ी सेवाओं से जुड़े विज्ञापन भी नजर नहीं आ रहे हैं। म्युचुअल फंड या क्रेडिट कार्ड एवं बैंकिंग सेवा प्रदाताओं के इक्के-दुक्के विज्ञापन नजर आते हैं।

विज्ञापन अर्थव्यवस्था से जुड़े रहे हैं। पहले स्पोर्ट्स चैनलों पर मोबाइल, फिनटेक, कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स, वाहन, क्रिप्टो एवं ई-कॉमर्स/क्विक कॉमर्स सेवाओं के विज्ञापनों की भरमार रहती थी। मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानना है कि विज्ञापनों में विविधता हमारे उपभोग में आने वाले बदलाव को परिलक्षित करती है। सभी स्टार्टअप और महंगी वस्तुओं के उपभोग कहां पीछे छूट गए?

ये सभी बातें रुझान एवं अवलोकन पर आधारित हैं, मगर ये एक ऐसी अर्थव्यवस्था की तस्वीर पेश करती हैं जहां बढ़-चढ़ कर किए जाने वाले दावों और वास्तविकता में कुछ अंतर दिखाई देता है। क्या यह अंतर बढ़ेगा या कम होगा?

First Published : July 10, 2024 | 9:22 PM IST