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पन्नू नहीं पंजाब को ध्यान में रखकर काम करे सरकार

पंजाब पर दोबारा ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। वहां विश्वसनीय राजनीतिक ताकतों और यहां तक कि विरोधियों के साथ काम करना भी राष्ट्रीय हित में अधिक कारगर होगा।

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शेखर गुप्ता   
Last Updated- December 03, 2023 | 10:13 PM IST

यह सही है कि हालात अभी लगातार करवट ले रहे हैं लेकिन गुरपतवंत सिंह पन्नू के मामले के हवाले से भारत-अमेरिका रिश्तों के बारे में कई चीजें सुरक्षित ढंग से कही जा सकती हैं।

पहला, दोनों पक्ष नहीं चाहते हैं कि यह बात उनके नियंत्रण से बाहर निकले या भावनात्मक रूप ग्रहण करे। यही वजह है कि दोनों पक्षों ने यह सुनिश्चित किया है कि तनाव न बढ़े। इस क्रम में उन्होंने भावनाओं को दलीलों से परे रखा है।

दोनों ही एक दूसरे को राजनीतिक और कूटनीतिक गुंजाइश मुहैया करा रहे हैं। भारत ने इन आरोपों को सीधे तौर पर झूठा बताकर खारिज नहीं किया है और इन पर चिंता जताते हुए उच्चस्तरीय जांच का वादा करके अमेरिका को जरूरी गुंजाइश मुहैया कराई। वहीं अमेरिका ने कहा कि वह भारत की इस प्रतिक्रिया का स्वागत करता है और जांच एक सकारात्मक कदम है तथा उसे इसके नतीजों की प्रतीक्षा है।

तीसरा, दोनों पक्ष अब इस बात को लेकर सतर्क हैं कि उनके बीच अनिवार्य सामरिक साझेदारी, शिखर बैठकों और संयुक्त घोषणाओं के बीच वे यह समझ चुके हैं कि अपने-अपने राष्ट्रीय हितों के चलते उनकी अपनी मजबूरियां हैं और कई बार तो विरोधाभासी जरूरतें भी। यह साझेदारी चाहे जितनी गहरी हो लेकिन यह पांच देशों की फाइव आई जैसी खुफिया साझेदारी की तरह कतई नहीं है। उस लिहाज से देखें तो हम यह यकीन करना चाहेंगे कि तनाव से निजात मिल रही है।

मेरे लिए यह अनुमान लगाना उचित नहीं होगा लेकिन इसकी कोई न कोई वजह तो होगी कि हमारे युद्धाकांक्षी समाचार चैनलों ने इस मसले की अनदेखी की है जबकि आमतौर पर तो यह उनके प्राइमटाइम कार्यक्रमों के लिहाज से बहुत आकर्षक विषय था।

यह अपेक्षाकृत शांति का माहौल दोनों देशों को जरूरी कूटनीतिक राहत प्रदान करता है जो उनके रिश्तों को बचाने के लिए जरूरी है। यह गुंजाइश भारत में हमारे लिए तथा नरेंद्र मोदी सरकार के लिए अधिक मूल्यवान होनी चाहिए क्योंकि सिख कट्टरपंथ और अलगाववाद की चाहे जो भी चुनौतियां हों यह अमेरिका और कनाडा से अधिक भारत के लिए सिरदर्द है।

वहां स्वयंभू खालिस्तानी क्या कहते या करते हैं, उससे भारत में खीझ और गुस्सा उत्पन्न होता है परंतु उनमें से अगर कोई कुछ महत्त्वपूर्ण करेगा तो वह भारत की और खासतौर पर पंजाब की जमीन पर करेगा। वह भी सिख समुदाय में करेगा। उनके खिलाफ विचारों और राजनीति की लड़ाई है और उसे यहीं लड़ना होगा। भारत के लिए ब्रिटिश कोलंबिया या अमेरिका अथवा ब्रिटेन के किसी हिस्से में होने वाली खटपट से प्रभावित होना अदूरदर्शी होगा।

एक बार जब हम शांत हो जाएंगे तो हम उस घटनाक्रम पर एक नजर डाल पाएंगे जिसने भारत और अमेरिका के रिश्तों को न्यूयॉर्क के अदालती कमरे तक पहुंचा दिया है। हमें थोड़ा ठहरकर गहरी सांस लेने और नए सिरे से आकलन करने की आवश्यकता है।

हमने शुरुआत कहां से की और यहां तक कैसे आए? क्या मैं यह सुझाव देने का साहस कर सकता हूं कि इसकी शुरुआत किसान आंदोलन से हुई। मेरा मानना है कि मोदी सरकार ने किसान आंदोलन को शुरुआत से ही गलत समझा। इसकी वजह से कई गलत कदम उठाए गए और पार्टी उसी दिन लड़ाई हार गई जिस दिन उसे तीनों कानून वापस लेने पड़े।

हम अभी भी मानते हैं कि वे कानून भारतीय किसानों की दशा सुधारने के लिए थे। खासतौर पर पंजाब के अत्यधिक उत्पादन करने वाले किसानों के लिए। मोदी सरकार ने दबाव में आकर उन कानूनों को हटाया जो एक बड़ी राष्ट्रीय क्षति थी। मैं फिर कहता हूं कि शुरुआत में विरोध प्रदर्शन को लेकर बनी गलत समझ के बाद गलतियों का एक सिलसिला शुरू हो गया।

पहला गलत पाठ यह था कि किसानों के विरोध प्रदर्शन को कट्‌टर सिख धार्मिक भावनाओं से संचालित मान लिया गया। ऐसा इस तथ्य के बावजूद हुआ कि शुरुआती दौर में विरोध का लगभग पूरा नेतृत्व वाम रुझान वाले किसान संगठनों के हाथ में था। ऐसा शायद उनके धार्मिक प्रतीकों और नारों की वजह से माना गया जबकि पंजाब में तो खेल आयोजनों में भी इन्हें देखा जा सकता है। भाजपा ने बहुत जल्दी यह नतीजा निकाल लिया कि इसके पीछे प्राथमिक प्रेरणा धार्मिक और अलगाववादी है।

यह निष्कर्ष इस तथ्य के बावजूद जारी रहा कि भाजपा सीएए-एनआरसी के विरोध प्रदर्शनों के दौर से जिन सामाजिक कार्यकर्ताओं को जानती थी और जो किसान आंदोलन में शामिल हुए वे भी वाम झुकाव रखते थे।

भाजपा पहले ही इन्हें टूलकिट वाले मान चुकी थी और इनके साथ किसी तरह की बातचीत नहीं करना चाहती थी। धार्मिक नेतृत्व कभी बातचीत के लिए उपलब्ध ही नहीं था। कारण यह कि ऐसा कोई नेतृत्व था ही नहीं।

दूसरी गलती थी यह सोचना कि ठंड या मॉनसून या गर्मी के कारण प्रदर्शनकारी जल्दी हट जाएंगे। साफ तौर पर पंजाबियों खासकर सिखों की प्रतिबद्धता को समझने में चूक हुई थी। भाजपा के पुराने नेताओं को जानना चाहिए था कि सिखों ने आपातकाल का किस तरह मुकाबला किया था, कैसे समूहों में जेल गये थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुयायियों के साथ सिख इंदिरा गांधी की जेलों में बंद सबसे बड़े समूह का हिस्सा थे।

शायद भाजपा में दिक्कत यह है कि पुराने नेता मायने नहीं रखते और मार्गदर्शक मंडल से कोई कभी मशविरा नहीं करता है। केंद्र ने हालात को हाथ से निकल जाने दिया और इंतजार किया कि थकान हावी हो लेकिन प्रदर्शनकारियों की तादाद बढ़ती गई और कंटेनरों, ट्रॉलियों तथा टेंट के सहारे दिल्ली की ओर आने वाले राजमार्ग के किनारे छोटे-छोटे शहर बसा लिए गए। इनमें से कुछ वातानुकूलित थे और इनमें टेलीविजन लगे थे।

भाजपा सरकार की तीसरी नाकामी यह थी कि उसकी ओर से कोई सिख या पंजाबी वार्ताकार नहीं था। वह पुराने साझेदार शिरोमणि अकाली दल का साथ छोड़ चुकी थी और प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार से उसने कभी बात नहीं की। ऐसे में दूसरी ताकतों ने जगह बना ली। पंजाबी पॉप सितारे, विदेशी सिख सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर, ग्रेटा थनबर्ग और यहां तक मिया खलीफा ने भी ट्वीट कर दिया। इन सबको बस सुर्खियां चाहिए थीं। यही वह समय था जब निज्जर और पन्नू जैसे लोग भी शामिल हो गए।

मोदी सरकार चौतरफा नुकसान में थी। वैश्विक जनमत उसके खिलाफ हो गया। वह कितना भी कहे कि उसे पश्चिमी मीडिया या सामाजिक कार्यकर्ताओं की परवाह नहीं लेकिन वह परेशान तो होती ही रही। पंजाब में उसकी अलोकप्रियता बहुत बढ़ गई। पुराना साझेदार अकाली दल और दूर हो गया। सिख भी अधिक नाराज हो गए। आखिरकार पार्टी ने बिना शर्त सभी कानून वापस ले लिए।

किसान विजेता की तरह वापस लौटे लेकिन पंजाब का राजनीतिक संतुलन नए सिरे से तय हो गया। स्थापित दलों के प्रति नाराजगी ने आम आदमी पार्टी को सत्ता में ला दिया। अब भाजपा पंजाब में पंजाब की सबसे विश्वसनीय और लोकप्रिय राजनीतिक शक्ति के साथ निरंतर लड़ाई में उलझ गई है।

ऐसा नहीं है कि भाजपा यह नहीं जानती कि उसके पास जाट सिख नेता का न होना किस कदर नुकसान की बात है। पंजाब में सत्ता की कुंजी इन्हीं नेताओं के पास रहती है। यही कारण है कि पार्टी ने पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और पूर्व वित्त मंत्री मनप्रीत बादल जैसे नेताओं को अपने साथ जोड़ा। परंतु वे पकड़ नहीं बना सके।

इसके बाद उसने लड़ाई को विदेशों में स्थानांतरित कर दिया और निज्जर तथा पन्नू जैसे सुर्खियों की तलाश में रहने वालों से लड़ने लगी। वे समय-समय पर कुछ समस्या खड़ी करने वाले हो सकते हैं। जैसे निज्जर के मामले में कुछ हत्याएं भी करवाई गईं लेकिन ये खालिस्तान के नाम पर पंजाब में 5,000 लोगों को भी नहीं जुटा सकते।

अमृतपाल सिंह ने जरूर प्रदेश में थोड़ा खतरा पैदा किया। उसकी गिरफ्तारी के बाद विरोध या हिंसा का न होना यही दिखाता है कि वह और खालिस्तान दोनों हौव्वा भर हैं। इससे अब एक ऐसी समस्या का अंतरराष्ट्रीयकरण हो गया जिसका देश में अस्तित्व में ही नहीं है।

आवश्यकता इस बात की है कि राज्य पर ध्यान केंद्रित किया जाए। जैसा कि हम पहले भी आलेखों में कह चुके हैं पंजाब में ठहराव, हताशा और आत्मसम्मान गंवाने की भावना प्रबल और व्यापक है। मादक द्रव्य, प्रवासन, हथियारबंद माफिया और संगीत संस्कृति ने हालात को जटिल बना दिया है। पाकिस्तान समर्थित विदेशी कट्‌टरपंथी इसका लाभ ले रहे हैं।

भाजपा को यहां पहल करने की जरूरत है, भले ही पंजाबी उसे वोट न दें। विश्वसनीय राजनीतिक ताकतों के साथ काम करने की आवश्यकता है, भले ही वे विरोधी क्यों न हों। ऐसा करने से राष्ट्रीय हित सधेगा न कि विदेशी अदालतों के चक्कर काटने से।

First Published : December 3, 2023 | 10:13 PM IST