संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन संधि पर दो हफ्ते तक चले 27वें सम्मेलन (कॉप 27) का समापन हो चुका है। जैसी अपेक्षा थी, यह सम्मेलन कुछ ज्यादा लंबा चल गया और इसमें शामिल प्रतिनिधि रविवार की शाम को ‘क्रियान्वयन योजना’ पर राजी हुए। सम्मेलन मिस्र के खूबसूरत शहर शर्म अल शेख में हुआ और क्रियान्वयन योजना का नाम उसी पर यानी शर्म अल शेख क्रियान्वयन योजना रखा गया। लेकिन यह योजना जलवायु परिवर्तन विरोधी एजेंडे को उतना आगे नहीं बढ़ाती है, जितनी अपेक्षा इससे की जा रही थी। इसमें बड़ी और नई बात ‘लॉस ऐंड डैमेज’ है। इसमें इस सिद्धांत पर सहमति बनी कि जिन पर जलवायु परिवर्तन की सबसे अधिक मार पड़ी है, वे मदद के भी हकदार हैं।
अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने ‘लॉस ऐंड डैमेज’ का सिद्धांत तब स्वीकार किया, जब छोटे द्वीपीय देश और सबसे कम विकसित देश पिछले तीन दशक से इसके लिए मांग करते आ रहे थे। मगर धन किसे मिलेगा और कौन देगा, इसकी योजना कॉप 27 ने कॉप 28 पर टाल दी है। इस प्रस्ताव पर अमेरिका और कुछ अन्य धनी देशों के हस्ताक्षर इसी शर्त पर होंगे कि रकम देने वालों में विकसित देशों के अलावा अन्य देश भी शामिल होंगे। दूसरे शब्दों में अमेरिका ने साफ कहा है कि चीन और खाड़ी से कच्चे तेल का निर्यात करने वाले बड़े देश भी इसमें योगदान करें।
भारत के लिए यह सीधे नुकसान की बात है। सबसे पहली बात, भारत जलवायु परिवर्तन के सबसे बड़े शिकार देशों में है मगर यह मानने की अब कोई वजह नहीं है कि भारत को ‘लॉस ऐंड डैमेज’ के तहत मुआवजे का हकदार कहा जाएगा। भारत की अर्थव्यवस्था इतनी बड़ी है कि उसे इस जमात में रखा ही नहीं जा सकता।
दूसरा, इस बात का पूरा डर है कि इस तरह के मुआवजे के बदले जलवायु या विकास के लिए मिलने वाला दूसरा धन कम कर दिया जाएगा, जिसका एक हिस्सा भारत को भी मिलता है। समझौते में कहा गया है कि वित्तीय सहायता की मौजूदा व्यवस्था का इस्तेमाल लॉस ऐंड डैमेज भुगतान के लिए किया जा सकता है और इससे भारत को मिलने वाला धन कम होने का डर है।
फिर अगर हस्ताक्षर हो जाते तो भारत को शर्म अल शेख संधि से क्या हासिल होता? इस संधि में जाते समय सरकार की एक प्राथमिकता अर्थव्यवस्थाओं, जीवन शैलियों और बुनियादी ढांचे को इस तरह बदलना थी, जिससे मनुष्य को जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभाव से बचाया जा सके। इस एजेंडे पर ज्यादा आगे तो नहीं बढ़ा जा सका किंतु आशा के कुछ संकेत जरूर मिले।
अनुकूलन या बदलाव क्या है और इसके लक्ष्य कैसे मापे जाएंगे, इसकी स्पष्ट परिभाषा गढ़ने के प्रयास किए गए। निजी वित्तीय सहायता का इस्तेमाल इसी अनुकूलन या बदलाव के लिए करना महत्त्वपूर्ण पहला कदम है, जो शायद बढ़ा दिया गया है। भारत की दूसरी बड़ी योजना यह थी कि कोयले का इस्तेमाल घटाने की पिछले जलवायु सम्मेलन की अपील के दायरे में तेल और गैस को भी लाया जाए ताकि कोयले का पहले जैसा इस्तेमाल जारी रहे।
इस मोर्चे पर अच्छी खबर भी है और बुरी खबर भी। बुरी खबर यह है कि भारत गैस और तेल को इस दायरे में नहीं ला पाया क्योंकि खाड़ी देशों और रूस जैसे जीवाश्म ईंधन उत्पादकों की ओर से कड़ी आपत्ति के कारण इसे रोक दिया गया। उदाहरण के लिए सऊदी देशों ने सार्वजनिक तौर पर कहा कि उन्हें जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में तेल और गैस का इस्तेमाल कम करने की भी जरूरत नहीं लगती।
पर्यवेक्षकों ने कहा कि जलवायु परिवर्तन सम्मेलन की अध्यक्षता मिस्र को मिलने से तेल एवं गैस उत्पादकों को अपनी बात आगे रखने का भरपूर मौका मिल गया। इसका स्पष्ट कारण यह है कि मिस्र वित्तीय सहायता के लिए सऊदी अरब पर निर्भर है। कतर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने इसी साल की शुरुआत में मिस्र सरकार को कुल 22 अरब डॉलर की सहायता देने का वायदा किया था।
अच्छी खबर यह है कि ठीक-ठाक संख्या में देश इस रुख पर सैद्धांतिक रूप से सहमत हो गए, जिनमें यूरोपीय संघ भी शामिल है। इसलिए भारत को अड़ंगा लगाने वाला देश नहीं माना गया। पिछले जलवायु सम्मेलन की तुलना में यह सुखद बदलाव है और इससे पता लगता है कि भारत का रुख और तरीका कितना नया तथा रचनात्मक है।