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खेती बाड़ी: बागवानी क्षेत्र की समस्याओं का हो निराकरण

वर्ष 1950  से बागवानी फसलों का उत्पादन 14.5  गुना बढ़ा है जबकि इसी अवधि में खाद्यान्न उत्पादन 7.2 गुना ही बढ़ पाया है।

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सुरिंदर सूद   
Last Updated- May 28, 2025 | 10:49 PM IST

बागवानी भारतीय कृषि के विकास का एक प्रमुख इंजन बन कर उभरी है। वर्ष 2011-12 से फल, सब्जियों और अन्य बागवानी फसलों की पैदावार खाद्यान्न की तुलना में लगातार अधिक रहा है। इस कृषि वर्ष (जुलाई-जून) में बागवानी फसलों की पैदावार 36.2 करोड़ टन रहने का अनुमान है, जो 3.31  करोड़ टन के अनुमानित खाद्यान्न उपज की तुलना में लगभग 10  फीसदी अधिक होगा। बागवानी फसलों का रकबा खाद्यान्न के उत्पादन क्षेत्र का मात्र एक चौथाई ही है, लेकिन  बागवानी फसलों की पैदावार में सालाना 8  फीसदी की दर से वृद्धि दर्ज हुई है। इसकी तुलना में खाद्यान्न उत्पादन की वृद्धि दर लगभग 4  फीसदी रही है। वर्ष 1950  से बागवानी फसलों का उत्पादन 14.5  गुना बढ़ा है जबकि इसी अवधि में खाद्यान्न उत्पादन 7.2 गुना ही बढ़ पाया है। बागवानी खंड में अब तक जितनी प्रगति हुई है उसमें 40  फीसदी हिस्सा लगभग पिछले दो दशकों के दौरान देखने को मिला है।

खाद्य फसलों की तुलना में बागवानी फसलें मूल रूप से अधिक उत्पादक एवं लाभकारी रही हैं। बागवानी फसलों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन लगभग 12.5 टन तक पहुंच जाता है, जो खाद्यान्न फसलों के प्रति हेक्टेयर लगभग 2.5 टन उपज का पांच गुना है। कई बागवानी फसलें,  खासकर सब्जियां कुछ सप्ताहों में ही उगाई जा सकती हैं जिससे एक साल में एक ही जमीन पर कई ऐसी फसलें ली जा सकती हैं। बागवानी फसलों की खेती अधिक लाभकारी रहने की एक वजह यह है कि फल, सब्जियों, मसालों एवं अन्य बागवानी उत्पादों का बाजार मूल्य अनाज की तुलना में अधिक होता है। पोषक तत्वों के मामलों में भी ये खाद्यान्न से आगे रहती हैं। फल एवं सब्जियों में विटामिन, खनिज और कई अन्य स्वास्थ्यवर्द्धक पोषक तत्व होते हैं जिससे इनका महत्त्व खाद्यान्न फसलों की तुलना में अधिक हो जाता है। इसे देखते हुए अगर सकल घरेलू कृषि उत्पादन (कृषि जीडीपी) मूल्य में लगभग 33  फीसदी हिस्सेदारी बागवानी की है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। हालांकि, बागवानी फसलें देश में कुल कृषि योग्य भूमि के लगभग 23  फीसदी हिस्से में ही उगाई जाती हैं।

दुनिया में चीन के बाद भारत फल और सब्जियों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। मगर आम, केला, पपीता, प्याज, अदरक और भिंडी के उत्पादन में भारत का कोई मुकाबला नहीं है। भारत आलू, हरा मटर, टमाटर, पत्ता गोभी और फूलगोभी का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। मसालों के उत्पादन में भी भारत आगे हैं और इनके कुल अंतरराष्ट्रीय कारोबार में इसकी हिस्सेदारी लगभग 25  फीसदी है।

हालांकि, कुछ बातें ऐसी हैं जो चिंता का सबब बन रही हैं। पिछले पांच वर्षों में बागवानी उत्पादों के निर्यात में 50  फीसदी की भारी बढ़ोतरी के बावजूद प्रसंस्कृत और ताजा फल एवं सब्जियों के वैश्विक व्यापार में भारत की कुल हिस्सेदारी 1  फीसदी से भी कम है। भारत में बागवानी उत्पादों की बरबादी भी काफी अधिक होती है जो 15  फीसदी से लेकर 40  फीसदी तक पहुंच जाती है। इतने भारी भरकम नुकसान के लिए जल्दी खराब होने वाले उत्पादों के प्रबंधन में खामियां जिम्मेदारी हैं।

इसके अलावा फल एवं सब्जियों के मूल्य वर्द्धन एवं उनकी गुणवत्ता अधिक समय तक बनाए रखने के लिए प्रसंस्करण कार्य भी पर्याप्त स्तर पर नहीं हो रहे हैं। बागवानी उत्पादों का 4 फीसदी से भी कम हिस्सा मूल्य वर्द्धन के लिए प्रसंस्करण संयंत्रों में भेजा जाता है। प्रसंस्करण संयंत्रों में बागवानी उत्पाद व्यावसायिक रूप से बेचे जाने वाले, जल्दी खराब नहीं होने वाले और महंगे पदार्थों जैसे जैम, प्यूरी और फ्रोजन या डीहाइड्रेटेड फलों एवं सब्जियों में तब्दील कर दिए जाते हैं। बागवानी उत्पादों का केवल एक छोटा हिस्सा ही घर-परिवारों एवं गैर-संगठित क्षेत्रों में परंपरागत व्यंजनों जैसे अचार, मुरब्बा आदि तैयार करने में इस्तेमाल होता है।

दिलचस्प बात तो यह है कि बागवानी क्षेत्र में जितनी भी प्रगति हुई है उसमें सरकार से मिलने वाले सहयोग का बड़ा हाथ नहीं रहा है। बागवानी फसलों को सरकार से उस तरह के सहयोग नहीं मिलते जो खाद्य फसलों को दिए जाते हैं। बागवानी को बढ़ावा देने के लिए सरकार प्रायोजित योजनाएं एवं संस्थान जरूर मौजूद हैं मगर कोपरा छोड़कर कोई भी बागवानी उत्पादन न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के अंतर्गत नहीं आता। लोगों के बीच बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने वाले व्यंजन जैसे टमाटर, प्याज और आलू (जो टॉप के नाम से जाने जाते हैं) के लिए बाजार समर्थन का कोई प्रावधान नहीं है। इन उत्पादों की कीमतों में भारी-उतार चढ़ाव दिखते हैं। ऐसे कई मौके सामने आए हैं जब किसान भारी पैदावार के कारण कीमतों में आई जबरदस्त गिरावट के बाद अपने उत्पाद खेतों में छोड़ या उन्हें सड़कों पर फेंक देते हैं।

बागवानी क्षेत्र में जितनी परेशानियां नजर आ रही हैं उनके लिए खेत-बागान से फसलें लेने के बाद कुप्रबंधन, उत्पाद-प्रबंधन ढांचे में कमी (जैसे रेफ्रिजरेटेड स्टोरेज और परिवहन सुविधाएं) और खेत-बागान से लेकर उपभोक्ताओं तक वृहद मूल्य श्रृंखला का अभाव जिम्मेदार हैं। दूसरी तरफ, माल ढुलाई की संपूर्ण व्यवस्था भी अपर्याप्त है जिससे जल्द खराब होने वाली बागवानी फसलों को काफी नुकसान हो जाता है। इसके अलावा उपलब्ध रेफ्रिजरेटेड वेयरहाउसिंग क्षमता इतनी कम है कि बड़ी मात्रा में उत्पाद सुरक्षित नहीं रखे जा सकते। कोल्ड स्टोरेज की सुविधाओं की भी कमी है और देश के कुछ ही राज्यों में इनका विशेष इंतजाम है। देश में उपलब्ध रेफ्रिजरेटेड स्टोरेज कुल क्षमता का आधा हिस्सा केवल चार राज्यों उत्तर प्रदेश, पंजाब, गुजरात और पश्चिम बंगाल में है।

बागवानी उत्पादों के निर्यातकों को भी कई बड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है जिनमें गैर-शुल्क व्यापार बाधाएं भी शामिल हैं। गैर-शुल्क व्यापार बाधाओं में मनमाने तरीके से तय खाद्य सुरक्षा मानक और स्वच्छता एवं पादप-स्वास्थ्य से जुड़ी कड़ी शर्तें आती हैं। कीटनाशकों के अवशेष मौजूद रहने, कीटनाशक एवं रोगाणुओं की उपस्थिति और गुणवत्ता संबंधी चिंता के कारण निर्यात किए गए उत्पाद अक्सर गंतव्य पर पहुंच कर लौटा दिए जाते हैं। यूरोपीय संघ के देशों में में यह वाकया अधिक दिखता है। तेजी से उभरते बागवानी क्षेत्र के उत्पादन एवं इसकी वृद्धि को बरकरार रखने के लिए इन समस्याओं एवं बाधाओं का निवारण जरूरी है।

First Published : May 28, 2025 | 10:28 PM IST