Categories: लेख

समाप्त हो नियामकीय पक्षपात

Published by
बीएस संवाददाता
Last Updated- December 11, 2022 | 8:46 PM IST

निवेश में विविधता पोर्टफोलियो मैनेजमेंट (निवेश सूची प्रबंधन) का एक सबसे आधारभूत सिद्धांत है। सदैव ऐसी सलाह दी जाती है कि एक ही शेयर या परिसंपत्ति वर्ग में पूरी रकम निवेश नहीं की जानी चाहिए। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए निवेशक विभिन्न स्तरों पर अपने निवेश में विविधता बनाए रखना चाहते हैं। यह विविधता निवेश के लक्ष्य, इसकी समय अवधि, विभिन्न साधनों एवं परिसंपत्तियों में निवेश की गई रकम और पोर्टफोलियो के आकार पर निर्भर करती है। निवेश के लक्ष्य के अनुसार निवेश में विविधता से लंबी अवधि के बाद अधिक प्रतिफल अर्जित करने में भी सहायता मिलती है। विभिन्न परिसंपत्तियों के अतिरिक्त निवेशक दूसरे देशों में भी निवेश करते हैं। उदाहरण के लिए भारतीय वित्तीय बाजारों में अरबों डॉलर मूल्य की रकम आती-जाती रहती है। चूंकि , भारत में पूर्ण मुद्रा परिवर्तन नहीं होता है इसलिए निवेशक विदेश में एक निश्चित सीमा तक ही निवेश कर सकते हैं।
भारत में नियामकीय ढांचे में सुधार की प्रक्रिया सतत चल रही है। इस महीने के शुरू में नैशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) के इंटरनैशनल एक्सचेंज में घरेलू निवेशकों को अमेरिका स्थित कंपनियों के शेयरों में कारोबार शुरू करने की सुविधा मिल गई। शुरू में आठ बड़ी कंपनियों के शेयरों में कारोबार की अनुमति होगी और इनकी संख्या जल्द ही बढ़कर 50 तक हो जाएगी। जो निवेशक शीर्ष अमेरिकी कंपनियों में निवेश करना चाहते हैं और जिन्हें इस क्रम में विदेशी ब्रोकरेज कंपनियों से निपटना पड़ता है उनके लिए यह सुविधाजनक हो जाएगा। यह प्रगति स्वागत योग्य है मगर बात जब म्युचुअल फंडों की आती है तो नियामकीय ढांचा पक्षपातपूर्ण लगता है। इस वर्ष के शुरू में भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने म्युचअल फंड कंपनियों को विदेशी प्रतिभूतियों में निवेश निलंबित रखने की सलाह दी थी। सेबी को आशंका थी कि कुल निवेश 7 अरब डॉलर की सीमा छू लेगा। इस सलाह के बाद विदेशी प्रतिभूतियों में निवेश करने वाले म्युुचुअल फंडों ने निवेश रोक दिया। एक म्युचुअल फंड कंपनी अपनी एक योजना के तहत अपने कोष का कुछ हिस्सा विदेशी शेयरों में निवेश करती है। कंपनी ने इस योजना की पेशकश करने का निर्णय लिया है मगर फिलहाल वह केवल घरेलू बाजार में ही निवेश करेगी। अधिकतम निवेश की सीमा बढऩे के बाद यह पोर्टफोलियो में आवश्यक बदलाव लाएगी।  यह स्थिति खेदजनक है और स्पष्ट रूप से अत्यधिक नियामकीय सक्रियता का नतीजा लगता है। यह स्पष्ट नहीं है कि क्यों उक्त सीमा की समीक्षा नहीं की गई है। ऐसा तब है जब सभी को ज्ञात है कि घरेलू निवेशक इससे प्रभावित होतेे हैं।
पिछले कई वर्षों के दौरान म्युचुअल फंड उद्योग, निवेशकों की संख्या, बाजार का आकार और वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ भारत का जुड़ाव बढ़ा है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए तत्काल समीक्षा की जरूरत है और निवेश की सीमा इस तरह तय की जानी चाहिए ताकि इसमें नियामकीय एवं आर्थिक हालत परिलक्षित हो सकें। यह समझ से परे है कि भारतीय नियामक खासकर भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) क्यों इस दिशा में कदम नहीं उठा पा रहे हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ी अनिश्चितता के बावजूद विदेशी मुद्रा भंडार अधिक होने से मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव से होने वाले वित्तीय जोखिम कम असर डालते है। विदेशी मुद्रा भंडार के मामले में भारत दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा देश है। भारत विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों द्वारा हो रही भारी बिकवाली कम करने के उपाय नहीं कर रहा है जिससे रुपये में ह्रास हो रहा है। इसका अपना एक वाजिब कारण है। आरबीआई भी सोच-समझकर लिबरलाइज्ड रेमिटेंस स्कीम (उदार संप्रेषण योजना) के तहत सीमा घटाने पर विचार नहीं कर रहा है। इन बातों के परिप्रेक्ष्य में म्युचुअल फंडों के माध्यम से विदेशी शेयरों या परिसंपत्तियों में निवेश करने वाले निवेशकों के साथ अलग व्यवहार का कोई आधार नजर नहीं आता है। अगर चिंता की वजह निवेश का स्तर है तो अलग-अलग निवेशकों के निवेश पर आसानी से निगरानी रखी जा सकती है क्योंकि म्युचुअल फंड में होने वाले सभी निवेश स्थायी खाता संख्या (पैन) से जुड़े होते हैं। अत: सेबी और आरबीआई दोनों को वर्तमान स्थिति की समीक्षा करनी चाहिए और नियामकीय पक्षपात समाप्त करना चाहिए।

First Published : March 13, 2022 | 11:25 PM IST