अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के आर्थिक और राजनीतिक विचार दुनिया को अस्थिर कर रहे हैं। विश्व अर्थव्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था में अमेरिका के महत्त्व को देखते हुए यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि चार साल में दुनिया कैसी नजर आएगी। यह भी संभव है कि ट्रंप के विचार उनके कार्यकाल के बाद भी प्रभावी रहें।
चाहे जो भी हो दुनिया को निकट भविष्य में उथल-पुथल से जूझना होगा। विभिन्न देशों को अपने हितों की रक्षा के लिए बातचीत और बदलावों के वास्ते तैयार रहना होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस सप्ताह होने वाली अमेरिका यात्रा भारत को शुरुआती अवसर मुहैया करा रही है ताकि वह अमेरिका के नए प्रशासन के समक्ष अपना रुख स्पष्ट कर सके।
दोनों नेताओं के बीच बैठक उस समय हो रही है जब अन्य बातों के अलावा अमेरिका ने कहीं से भी स्टील आयात पर 25 फीसदी शुल्क लगा दिया है। इससे पहले ट्रंप ने चीन पर 10 फीसदी शुल्क लगाया था और मेक्सिको तथा कनाडा पर शुल्क लगाने की धमकी दी थी।
व्यापार के संदर्भ में भारत का रुख स्पष्ट करने के पहले यह समझना आवश्यक होगा कि नया अमेरिकी प्रशासन क्या हासिल करना चाहता है। जैसा कुछ टीकाकारों ने स्पष्ट किया है इसके मोटे तौर पर दो लक्ष्य हैं। पहला, जैसा ट्रंप ने स्वयं कहा है वह व्यापार को संतुलित करना चाहते हैं। अमेरिका का चालू खाते का घाटा (सीएडी) 2024 की तीसरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 4.2 फीसदी के बराबर रहा जो इससे पिछली तिमाही के 3.8 फीसदी से अधिक था।
दूसरा लक्ष्य है राजस्व बढ़ाना ताकि कर में भारी भरकम कटौती की भरपाई की जा सके। यकीनन लक्ष्य और साधन व्यापक आर्थिक सहमति के साथ तालमेल वाले नहीं हैं। शुल्क दरों का बोझ अंतत: अमेरिकी परिवारों पर ही पड़ेगा और अमेरिका के व्यापार घाटे की वृहद आर्थिक वजहें भी मौजूद हैं। बहरहाल, ऐसी वजहें ट्रंप को प्रभावित करती नहीं दिखतीं।
अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान की सोच हाल ही में रॉबर्ट ई लाइटहाइजर ने स्पष्ट की जो ट्रंप के पहले कार्यकाल में अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि थे और जिन्होंने ‘नो ट्रेड इज फ्री: चेंजिंग कोर्स, टेकिंग ऑन चाइना, ऐंड हेल्पिंग अमेरिकाज वर्कर्स (2023)’ पुस्तक लिखी है। उन्होंने द न्यूयॉर्क टाइम्स में एक आलेख लिखा। उसका मुख्य तर्क यह है कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार व्यवस्था अमेरिका तथा कई अन्य देशों के हितों के खिलाफ रही है।
वह कहते हैं कि चीन जिसने 2024 में एक लाख करोड़ डॉलर से अधिक का व्यापार अधिशेष हासिल किया, उसने इस प्रणाली को ध्वस्त किया है। ऐसे तमाम तरीके हैं जिनकी मदद से देश व्यवस्था को अपने पक्ष में इस्तेमाल कर सकते हैं। मुद्रा के साथ छेड़छाड़ भी उसमें से एक है। लाइटहाइजर कहते हैं कि लोकतांत्रिक देशों को साथ आकर एक नई कारोबारी व्यवस्था कायम करनी चाहिए। भारत को व्यापक सोच और नीतिगत ढांचे को देखते हुए अमेरिका से कहना चाहिए कि वह देशों को ध्यान में रखकर प्रतिबंध लगाने से बचे। ट्रंप अपने प्रचार अभियान के दौरान कई बार भारतीय टैरिफ की बात कर चुके हैं।
पहली बात तो यह कि कई अन्य देशों के उलट भारत घरेलू नीतियों में बदलाव नहीं कर रहा और अमेरिका की तरह वह भी चालू खाते के घाटे से जूझ रहा है। हमारा आयात, निर्यात से अधिक है। दूसरा भारत अपने शुल्कों की समीक्षा कर रहा है और जैसा एक व्यापार विशेषज्ञ ने इसी पृष्ठ पर लेख में कहा है कि भारत आने वाले तीन चौथाई अमेरिकी आयात पर वास्तविक शुल्क पांच फीसदी से भी कम है।
जरूरत पड़ने पर भारत को टैरिफ और आयात स्रोत की समीक्षा को तैयार रहना चाहिए। तीसरा, भारत का बाजार बहुत बड़ा है और वह अमेरिकी तकनीक कंपनियों को प्रतिभाएं मुहैया कराता है। यानी दोनों के बीच परस्पर निर्भरता बहुत अधिक है जो व्यापार के आंकड़ों में नहीं दिखती। अंत में, अर्थशास्त्र और भूराजनीति आपस में संबद्ध हैं। कम से कम चीन के संदर्भ में तो ऐसा ही है। ऐसे में आपसी सहयोग भारत और अमेरिका दोनों के हित में है।