संपादकीय

महंगा सफर: बढ़ता खर्च, कमजोर पब्लिक ट्रांसपोर्ट

खाद्य खर्च के बाद सबसे ज्यादा खर्च परिवहन पर। सार्वजनिक परिवहन की कमी से महंगे निजी साधनों पर निर्भरता बढ़ी, जिससे आम जनता की जेब पर असर।

Published by
बीएस संपादकीय   
Last Updated- February 14, 2025 | 10:45 PM IST

नवीनतम घरेलू खपत व्यय सर्वेक्षण के ताजा आंकड़ों में एक चौंकाने वाला तथ्य यह सामने आया है कि खाद्य वस्तुओं के अलावा होने वाले औसत मासिक व्यय में सबसे अधिक हिस्सेदारी परिवहन की है। राष्ट्रीय स्तर पर ग्रामीण क्षेत्रों में एक परिवार का औसत मासिक प्रति व्यक्ति खपत व्यय (एमपीसीई) 7.6 फीसदी और शहरों में 8.5 फीसदी रहा। एक स्तर पर ये आंकड़े बढ़ते आवागमन और शहरों के विस्तार को बताते हैं जिसके कारण लोगों को कामकाज के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है।

हालांकि ईंधन पर बढ़ते खर्च की लागत निस्संदेह इस लागत में बड़ी हिस्सेदार है लेकिन अपर्याप्त सार्वजनिक परिवहन ढांचा भी परिवारों पर लागत का बोझ बढ़ाता है। इसका परिणाम यह है कि यात्रियों को काम पर जाने के लिए महंगे निजी उपायों के भरोसे रहना होता है। जो लोग अधिक संपन्न हैं, वे अपनी कारों से आवागमन करते हैं जिससे शहरों में यातायात और प्रदूषण की समस्या पैदा होती है।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र यानी एनसीआर और तेजी से विकसित होता आईटी का गढ़ बेंगलूरु इस बात के उदाहरण हैं कि कैसे कमजोर शहरी परिवहन नियोजन समस्याएं पैदा कर सकता है। ग्रामीण इलाकों में समस्या अधिक है क्योंकि वहां सार्वजनिक परिवहन पूरी तरह नदारद है। ऐसे कई इलाकों में ट्रैक्टरों का 50 फीसदी इस्तेमाल निजी आवागमन के काम में किया जाता है।

देश में सहज, किफायती और सुरक्षित परिवहन में निवेश बहुत जरूरी होता जा रहा है। अगर ऐसा होगा तभी कंपनियां न केवल कर्मचारियों को आकर्षित कर पाएंगी बल्कि इससे भी अहम कामकाज में महिलाओं की भागीदारी में इजाफा होगा। उदाहरण के लिए मुंबई और कोलकाता जैसे पुराने शहरों में व्यापक ट्रेन नेटवर्क है जिसके कारण फैक्टरी और घरेलू कर्मचारी दूरदराज से काम पर आ पाते हैं।

कोलकाता के उलट मुंबई में लोकल ट्रेनों में उच्च अधिकारी भी उतने ही नजर आते हैं जितने कि फैक्टरी कर्मचारी। आंशिक रूप से आरंभ दिल्ली-मेरठ क्षेत्रीय रैपिड ट्रांजिट सिस्टम (आरआरटीएस) पहले ही बेहतर संपर्क के लाभ दर्शा रहा है। इसके बावजूद केवल आठ आरआरटीएस कॉरिडोर ही चिह्नित किए गए हैं। इनमें से अधिकांश एनसीआर के आसपास संपर्क मुहैया कराते हैं। बस संपर्क भी शहरी आवागमन पर बहुत अधिक असर डाल सकता है लेकिन इस पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया और देश में निजी-सार्वजनिक मिलाकर 21 लाख बसें हैं जो 14 करोड़ से अधिक लोगों को सेवा देती हैं। हालांकि इस संख्या का एक तिहाई पैदल सफर करना पसंद करता है।

राज्य परिवहन निगम जो गरीबों को सुविधा मुहैया कराने के लिए सब्सिडी पर यात्रा सुविधा देते हैं, उनके पास बहुत कम बसें हैं। दिल्ली में किए गए बस रैपिड ट्रांजिट के प्रयोग को जबरदस्त नाकामी हाथ लगी। आज केवल 10 शहरों में बीआरटी है और सात अन्य शहरों में यह प्रस्तावित है।

अब तक तो भारी पूंजी वाली, समय खपाऊ और यातायात बाधित करने वाली मेट्रो परियोजनाएं ही अधिकांश शहरी परिवहन नियोजकों की पसंद बनी हुई हैं। भारत में 17 शहरों में मेट्रो सेवा चल रही है लेकिन यह अपेक्षाकृत आकर्षक और आरामदेह परिवहन विकल्प भी सीमित दायरे में ही है। लंदन की ऐतिहासिक अंडरग्राउंड मेट्रो सेवा को वर्तमान नेटवर्क जैसा विस्तार पाने में 162 साल लगे। मेट्रो का किराया भी दूरी के मुताबिक 8 रुपये से 50 रुपये के बीच है। यह आम आदमी के लिए ज्यादा है। जब तक शहरी परिवहन योजना को कम लागत वाला नहीं बनाया जाता तब तक देश के परिवारों को अपनी आय का बड़ा हिस्सा काम पर जाने और काम से आने में व्यय करना होगा।

First Published : February 14, 2025 | 10:45 PM IST