देश में आम चुनावों के लिए आज पहले चरण का मतदान हो रहा है। यह एक बड़ी कवायद है जिसे पूरा करने में कई सप्ताहों का समय लगता है और देश भर में कई चरणों में ये चुनाव होने हैं। पहले चरण में कुल 543 लोक सभा सीट में से 102 में मतदान हो रहा है। मतदान की तुलना में मतगणना का काम काफी तेजी से होता है।
बीते दो दशकों से मतगणना का काम बहुत सहज और सुरक्षित ढंग से होता रहा है और इसके लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) का इस्तेमाल किया जाता रहा है। इस मामले में हम अन्य बड़े लोकतांत्रिक देशों से अलग हैं। जैसा कि हमने 2020 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में भी देखा, धीमी मतगणना हारने वालों को यह अवसर देती है कि वे चुनाव नतीजों पर सवाल उठा सकें। कहा जा सकता है कि ईवीएम ने भारत में चुनाव नतीजों की विश्वसनीयता में सुधार किया है।
बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय कुछ प्रतिष्ठित गैर सरकारी संगठनों की एक याचिका पर सुनवाई कर रहा है जिनका कहना है कि अगर कागजी मतपत्रों पर मतदान की प्रक्रिया दोबारा शुरू नहीं हो सकती है तो भी कम से कम यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि हर इलेक्ट्रॉनिक वोट के बाद निकलने वाली कागज की पर्ची की अलग से गिनती की जाए। दो दिन की सुनवाई के बाद न्यायालय ने फिलहाल अपना फैसला सुरक्षित रखा है। न्यायालय के निर्णय को लेकर किसी भी पूर्वग्रह से इतर यह समझने की आवश्यकता है कि वादियों के तर्क पर अधिक जोर देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को खतरे में डाल सकता है।
न्यायाधीशों ने उचित ही इस पर ध्यान दिया है कि ईवीएम के प्रचलन से पहले कागजी मतपत्रों से होने वाले मतदान के दौर में चुनावों में अक्सर गड़बड़ियां होती थीं। चुनाव आयोग ने कहा है कि मतदान के बाद निकलने वाली सभी पर्चियों यानी वेरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल्स (वीवीपैट्स) की गणना में कई दिनों या सप्ताहों का समय भी लग सकता है। फिलहाल किसी भी लोक सभा क्षेत्र में बिना किसी क्रम के पांच फीसदी वीवीपैट की गणना की जाती है।
इस मामले में वादियों का कहना है कि जर्मनी जैसे कुछ देश इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग के बाद दोबारा मत पत्रों से चुनाव कराने की व्यवस्था की ओर लौट गए हैं। परंतु संबंधित निर्णय देने वाली जर्मनी की संवैधानिक अदालत ने इस सिद्धांत के आधार पर ऐसा किया कि इस प्रक्रिया में गैर विशेषज्ञों द्वारा सार्वजनिक ऑडिट की संभावना की इजाजत होनी चाहिए। वीवीपैट में यह व्यवस्था है। पारदर्शिता के सिद्धांत का मान रखने के लिए प्रक्रिया के और अधिक ब्योरे का इस्तेमाल किया जा सकता है तथा ज्यादा संख्या में ऑडिट की व्यवस्था की जा सकती है। इसके लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग को पूरी तरह नकारने की जरूरत नहीं है।
चुनाव हारने वाले नेता चाहे जिस दल के हों, वे ईवीएम को दोष देना पसंद करते हैं। परंतु अगर निष्पक्ष होकर देखा जाए तो यह संदेह निर्मूल है। ईवीएम के दौर में सभी प्रमुख दल चुनाव जीतते और हारते हैं। कई राज्य सरकारें ऐसे दलों की है जो केंद्र में विपक्ष में हैं। देश भर में राज्य सरकारों के कर्मचारी ही चुनाव कराते हैं। यह कई मायनों में बंटी हुई कवायद है।
इस मामले में वादियों का यह कहना शायद सही हो सकता है कि नई वीवीपैट मशीनों के निर्माण और बैलेट मशीनों से इनके जुड़ाव के तरीके की वजह से व्यवस्था में कमजोरी आई हो सकती है। इससे अदालत और चुनाव आयोग निपट सकते हैं। परंतु इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग को लेकर व्यापक संदेह नहीं किया जा सकता है जब तक कि ऐसा संकेत देने के लिए समुचित आंकड़े न हों।
जो लाखों भारतीय आज मतदान करेंगे उन्हें चुनाव प्रक्रिया में भरोसा है। उनमें से कुछ के लिए यह अपना भविष्य तय करने का इकलौता तरीका है और वे इसकी कद्र करते हैं। बिना ठोस प्रमाण के उनके मन में इस व्यवस्था के प्रति अविश्वास पैदा करना अनुचित होगा। ईवीएम को हमेशा बलि का बकरा नहीं बनाया जा सकता है।