भारत खुशकिस्मत है कि हमारे यहां उपभोक्ताओं का एक बड़ा आधार है जो कुछ हद तक अर्थव्यवस्था को वैश्विक मांग की लहरों से बचाता है। परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि वृद्धि और आर्थिक सुरक्षा को बिना निर्यात पर ध्यान दिए हासिल किया जा सकता है। दुर्भाग्य की बात है कि आंकड़ों से संकेत मिलता है कि फिलहाल देश में यह प्रक्रिया नहीं चल रही है। वास्तव में अगर कुछ हुआ है तो वह यह कि हालात विपरीत दिशा में चले गए हैं।
निजी कारोबारी क्षेत्र में मोबाइल हैंडसेट निर्माण, जैसे कुछ क्षेत्रों की उल्लेखनीय सफलता के अलावा निर्यात के बजाय उसके उलट रुख देखने को मिला है। जैसा कि इस समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ है, वित्त वर्ष 2012-13 में जहां 18 फीसदी से अधिक विनिर्माण बिक्री का निर्यात हुआ था, वहीं 2022-23 में यह घटकर 7 फीसदी से कम हो गया। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग द इंडियन इकॉनमी के आंकड़ों के मुताबिक तो चालू वित्त वर्ष में इसमें और गिरावट आ सकती है।
विनिर्माण अर्थव्यवस्था में निर्यात पर कम ध्यान केंद्रित होने का प्रभाव भी स्पष्ट हैं। सेवा निर्यात जहां स्वस्थ बना हुआ है, वहीं भारत का व्यापार घाटा बढ़ा है। अगस्त में यह 30 अरब डॉलर के साथ 10 महीने के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया। इसकी कुछ वजहें अस्थायी हैं। बीते सालों में चीन की वृद्धि धीमी पड़ी है और आखिरकार वह विकास के उस दौर में पहुंच गया है जहां उसे बचत और निवेश आधारित वृद्धि से नए सिरे से संतुलन कायम करते हुए खपत बढ़ाने पर ध्यान देना होगा। ऐसा करने से स्वाभाविक तौर पर जिंस जैसी चीजों की मांग कम होगी।
इसका यह अर्थ भी है कि ऐसी अतिरिक्त क्षमता मौजूद है जो व्यापक वैश्विक मांग को पूरा कर सके। इस्पात क्षेत्र चीन में अधिक क्षमता के असर को उजागर करता है। भारत इस वर्ष इस्पात के शुद्ध निर्यातक के बजाय आयातक बन गया क्योंकि चीन में इस्पात की घटती मांग के कारण उसे बाहर इसकी खपत करनी है।
दूसरा मसला है आपूर्ति श्रृंखला में उथलपुथल। पश्चिम एशिया में अस्थिरता के कारण बीमा तथा अन्य क्षेत्रों की लागत बढ़ गई है। समुद्री रास्ते से मालढुलाई को लेकर अलग तरह के जोखिम हैं। कुछ निर्यातकों का कहना है कि चुनिंदा पोत ही भारतीय बंदरगाहों पर आ रहे हैं और बाहर जाने वाले पोतों में अधिक प्रतिस्पर्धा है। इन समस्याओं को हल करने की जरूरत है लेकिन इसके साथ ही निर्यात पर ढांचागत रूप से ध्यान देने को लेकर भी गहरे सवाल किए जाने की जरूरत है।
भारत वैश्विक मूल्य श्रृंखला में बहुत मजबूत हैसियत नहीं रखता है और वैश्विक निकायों की ‘चीन प्लस वन’ की रणनीति को बहुत अधिक कामयाबी नहीं मिली है। भारत का आकार उसके लिए लाभदायक है लेकिन यह उसके लिए अभिशाप भी बन सकता है। आंतरिक मांग की भरपाई पर ध्यान केंद्रित करना किसी एक कंपनी को तो बाजार में बनाए रख सकता है लेकिन यह पूरी अर्थव्यवस्था के लिए लाभदायक नहीं हो सकता। किसी भी देश ने आंतरिक मांग पर ध्यान केंद्रित करके कभी भी टिकाऊ वृद्धि हासिल नहीं की है।
आर्थिक विकास में कोई व्यक्ति अपने बूते पर खुद को आगे नहीं ले जा सकता है। वैश्विक मांग और निवेश हमेशा नई परियोजनाओं के लिए गुंजाइश बनाने, वृद्धि के लिए क्षमता निर्माण आदि में अहम भूमिका निभाते हैं।
व्यापक विनिर्माण के लिए यह खासतौर पर महत्त्वपूर्ण है। विश्व स्तर पर चीन का मुकाबला करने के लिए देश के नियामकीय और पर्यावरण माहौल में बदलाव लाना लंबे समय से टलता रहा है और इसकी वजह देश के घरेलू बाजारों का दबाव रहा है।
नतीजा स्पष्ट है: विनिर्माण क्षेत्र तेजी से वैश्विक मांग के बजाय घरेलू क्षेत्र पर निर्भर होता जा रहा है और आने वाले दिनों में वह लाजिमी तौर पर दरों में संरक्षण की मांग करेगा। यह भारतीय उपभोक्ताओं के लिए उपयुक्त नहीं होगा। उपभोक्ता कल्याण, अहम आर्थिक मजबूती, स्थिर व्यापार घाटा और टिकाऊ वृद्धि के लिए भारत को नए बाजारों की ओर देखना होगा।